गुरुनानक एक सच्चे रहनुमा का नूर : जाकिर हुसैन भूतपूर्व राष्ट्रपति

इस बार गुरुनानक देवजी की जयंती 23 नवंबर यानी शुक्रवार को मनाई जाएगी। इसे गुरु पर्व या प्रकाशपर्व भी कहते हैं जो सिखों के प्रथम गुरु, गुरु नानक देव जी के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। हमारे मुल्क में ऐसी महान शख्सीयतें पैदा होती रही हैं, जिन्होंने इस मुल्क के रहने वालों की और उनके जरिए तमाम इंसानों की रहनुमाई की। वे ऋषि, जिनके ख्यालात और जिनकी हिदायतें उपनिषदों में भी मिलती हैं, जैसे गौतम बुद्ध, महावीर और उनके अनुयायी, दक्षिण भारत के आलवार और आडयार, फिर शंकराचार्य और रामानुजाचार्य और उनके अनुयाई, फिर भक्ति मार्ग की दिल अफरोज मंजिलों को तय करने वाले। किस-किस का नाम लीजिएगा, किस-किस की महिमा को बयान कीजिएगा। मगरबी एशिया से सूफी खुदापरस्ती और इंसान से दोस्ती का पैगाम लेकर आए- दातागंज बख्श, शेख मुइनउद्दीन चिश्ती, कुतुबउद्दीन बख्तयार, फरीद शक्रगंज, निजामुद्दीन औलिया।

और सौ, दो सौ बरस के अंदर ऐसा हो गया कि हर बस्ती में और हर भाषा में खुदा की याद दिलाने और इंसान को उसके फर्ज से आगाह करने वाले संत, सूफी और जोगी नजर आने लगे। बेशक यह सही है कि दीये से दीया जलता है, मगर उन हजारों दीयों में, जिन्होंने हमारे देश में रोशनी फैलाई, सबका अपना अलग-अलग तेल था, जिसकी वजह से अलग-अलग बाती जली। वे जले भी अपने वक्त पर और किसी-किसी के तेल में कुछ ऐसी सिफत थी कि वह वक्त आने पर खुद ही रोशन हो गया।

गुरु नानक ने जिस जमाने में जन्म लिया, पंजाब में हिंदुओं के साथ मुसलमान कुछ ऊपर ढाई सौ बरस से आबाद थे। उनमें से जो हाकिम थे, उन्हें दौलत और सत्ता की फिक्र थी। उसके लिए लड़ाइयां होती रहती थीं और किसी को परवाह न थी कि उन लड़ाइयों से बेचारे गरीबों को कितना नुकसान पहुंचेगा। उस जमाने में बाबर ने पंजाब पर हमले शुरू किए, जिनका अंजाम यह हुआ कि उत्तर भारत पर मुगलों की हुकूमत हो गई। समाज की एक तकसीम यह थी कि थोड़े से हाकिम थे और बहुत से शासित। हाकिम जो चाहते, कर सकते थे और शासितों का, चाहे वे हिंदू होते या मुसलमान, कोई हक न था। समाज की दूसरी तकसीम मजहब और धर्म की बिना पर थी।

एक तरफ मुल्ला और दूसरी तरफ ब्राह्मण इस तकसीम को कायम रखने पर तुले थे और जनता में जो ख्वाहिश हंसी-खुशी भाइचारे और दोस्तों की तरह साथ रहने की थी, उसका गला घोटा जाता था। मगर हमें यह न समझना चाहिए कि गुरु नानक की शख्सियत और उनकी तालीमात जमाने के खास हालात का नतीजा थीं। ये हालात गुरु नानक से पहले भी थे, उनके बाद भी रहे।

गुरु नानक की शख्सियत में बड़ा कैफ-आवर हुस्न और आभा था उस लगन का, जो उनमें बचपन से नुमायां थी, किसके बस में था कि उस साहिबे-मारफत को इस तरह तालीम दे, जैसे बच्चों को दी जाती है? मां-बाप की मुहब्बत में भी कहां इतनी ताकत थी कि उनके दिल को खुदा से हटाकर दुनिया के धंधों में लगा दे? खुदा से उनकी लगन बीस बरस तक उनके दिल में परवरिश पाती रही, फिर उन्हें हजूरी नसीब हुई। उन पर हकीकत का इंकसाफ हुआ और वह अपनी बुलंद निगाह, दिलनवाज सुखन और पुरसोज जान को रख्ते-सफर बनाकर लोगों की हिदायत के लिए यह कहते हुए निकले- खुदाया आरजू मेरी यही है, मेरा नूरे बसीरत आम कर दे।

उन्होंने पंजाब का दौरा किया। जनूब में लंका तक, पूरब में असम तक। मगरिब में बगदाद और शायद मक्का तक तौहीद का पैगाम सुनाया। इससे बढ़कर और क्या सुबूत हो सकता था कि उनके नजदीक दुनिया एक थी और इंसानियत एक। इसलिए कि एक खुदा सबका खालिक और सबका पालनहार है। गुरु नानक ने सारी उम्र इंतहाई सादगी, खलूस और इिस्तकलाल (दृढ़ता) के साथ अपने जमाने के लोगों को बुनियादी बातें बताईं, जो दिमाग को रोशन और दिल को साफ करती हैं और इंसान को खुदा का बंदा बनाकर इंसानी जिंदगी को सही रास्ते पर लगाती है।

जब एक खुदा ने तमाम आदमियों को पैदा किया है, तो आदमी-आदमी सब बराबर हैं। गुरु नानक के पहले इरशादात में से है कि ‘न कोई हिंदू, न कोई मुसलमान’, जिसके एक माने ये हो सकते हैं कि कोई हिंदू सच्चा हिंदू और कोई मुसलमान, सच्चा मुसलमान नहीं है। और एक माने यह कि हिंदू-मुसलमान की तफरीक गलत है। सब एक खुदा के बंदे हैं। तफरीक पर इसरार करने वाले जाहिरी बातों को देखते हैं और उन्हीं को छेड़ने और सवाल पूछने पर आमादा करने के लिए गुरु नानक ने अपने लिए ऐसा लिबास पसंद किया कि वह हिंदू भी समझे जा सकते थे और मुसलमान भी। बहुत से लोगों ने उनसे पूछा कि आप हिंदू हैं या मुसलमान? और इस तरह उन्हें यह समझाने का मौका मिला कि मजहब की बिना पर आदमी आदमी से तफरीक करना और किसी को बिला वजह गुमराह समझ लेना गलत है। इस बात को मानने पर लोग बहुत कम तैयार होते, बल्कि बाज तो ऐसी बात कहना एक जुर्म समझते थे और यह गुरु नानक की शख्सियत का करिश्मा था कि कट्टर लोगों की अदावत से उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचा।

गुरु नानक ने एक तरफ बुतपरस्ती और इबादत की ऐसी रस्मों की मुखालफत की, जो उन्हें अक्ल के खिलाफ मालूम हुईं। दूसरी तरफ, जिंदगी के ऐसे उसूल बताए, जो इंसानी तबियत से पूरी मुनासबत रखते हैं, ‘कीरत करो, नाम जपो, वंड छको’। इंसान को राहे-रास्त (धर्मपथ) पर रखने के लिए बहुत जरूरी है कि वह मेहनत करके खाए और बीवी-बच्चों की परवरिश करे। मेहनत करने वाला भी भटक सकता है, खुदगर्जी में मुब्तिला हो सकता है, अगर वह अपने खालिक, अपने खुदा को भूल जाए। इसलिए उसे पाबंदी से सतनाम का वजीफा पढ़ना होगा। उसकी खुदगर्जी का इलाज और उसकी मेहनत को सबके लिए मुफीद बनाने का तरीका यह है कि वह अपनी कमाई को सिर्फ अपना नहीं, सबका हक समझे। जो कुछ खाए, बांटकर खाए और इस तरह से मेहनत, इबादत और फैयाजी (दानशीलता) को अपनी जिंदगी का दस्तूर बनाए और पूरे समाज का दस्तूर बनाने में मदद करे। इन उसूलों पर अमल करने वाले को सिख कहेंगे और अगर उसके अमल में खलूस और इस्तिकलाल है, तो वह उस तैयार पर पूरा उतरेगा, जो गुरु नानक ने कायम किया है।

हिंदुस्तान से ली गई और भूतपूर्व राष्ट्रपति जाकिर हुसैन द्वारा लिखित एक लेख