सीबीआई में कोहराम: पीएमओ की सुन लेते तो नहीं होती कार्रवाई

सीबीआई की अंदरूनी रार में केंद्र सरकार की साख बचाने के लिए हर संभव कोशिश की गई। सुलह कराने के लिए पीएमओ के वरिष्ठ अधिकारी दोनों अधिकारियों के संपर्क में थे। लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप और पुख्ता सबूतों का हवाला देकर वर्मा ने झुकने से इनकार किया। वहीं अस्थाना ने भी शिकायतों का र्पुंलदा सीवीसी को भेजकर वर्मा पर दबाव बनाने का पूरा प्रयास किया।

सूत्रों ने कहा कि सरकार की कोशिश थी कि मामला कोर्ट में न जाए और दोनों पक्ष राजी हो जाएं। जनवरी तक वर्मा का कार्यकाल बचा था। सरकार तब तक मामले को ठंडा रखने के पक्ष में थी।

पीएमओ में रही गहमागहमी :

सरकार में ममले को निपटाने के लिए क्राइसिस मैनेजमेंट टीम काम कर रही थी। प्रमुख रूप से पीएमओ में वरिष्ठ अधिकारी पीके मिश्रा और अजित डोभाल को मामले को निपटाने की जिम्मेदारी दी गई थी। वित्तमंत्री अरुण जेटली से सीबीआई निदेशक को छुट्टी पर भेजने के कानूनी पहलुओं पर विचार विमर्श किया गया। सीवीसी के संपर्क में भी सरकार के वरिष्ठ अधिकारी बने हुए थे। अंतत: उस फार्मूले को अंतिम रूप दिया गया जिसमें विवाद के सभी किरदार को सीबीआई से बेदखल करने का फैसला हुआ।

डीओपीटी सचिव तलब
सूत्रों ने कहा, डोभाल ने रात एक बजे डीओपीटी सचिव चन्द्रमौलि को बुलाया। सीवीसी एक्ट की धारा आठ और डीएसपीई एक्ट की धारा चार (1) के तहत सीवीसी को मिले अधिकार व सरकार को धारा चार (2) के तहत मिले अधिकारों का हवाला देकर तैयार आदेश का ड्राफ्ट उन्हें उपलब्ध कराया गया।

क्या थी वजह
सरकार को आशंका थी कि सीबीआई प्रमुख के बने रहने पर अंदरूनी खींचतान बढ़ सकती है। इसलिए अस्थाना के साथ उन्हें भी छुट्टी पर भेजने का फैसला हुआ। यही नहीं, राफेल डील पर प्रशांत भूषण और अरुण शौरी से मुलाकात भी वर्मा के खिलाफ गई।

आकलन में चूक से देरी
सूत्र मानते हैं कि स्थिति का आकलन करने में थोड़ी चूक हुई। लेकिन दो महीने से ज्यादा चली खींचतान में स्थिति नियंत्रण से बाहर होने लगी। सरकार को लगा था कि शीर्ष स्तर पर दखल के बाद मामला शांत हो जाएगा। लेकिन आरोप-प्रत्यारोप से मामला बढ़ता गया।