Exclusive Interview: मेरी शायरी मज़लूमों की आवाज़ है- इमरान प्रतापगढ़ी

“मैं हर रात यह सोच कर नजीब पर नज़्म पढ़ता हूं कि ये मेरी नजीब पर पढ़ी गई आखिरी नज़्म होगी और सुबह तक नजीब लौट आयेगा। लेकिन फिर सुबह उठकर अपने आंसूओं को पोछता हूं और एक बार फिर इस उम्मीद के साथ पढ़ना शुरू करता हूं कि नजीब आज लौट आयेगा”

अब्दुल हमीद अंसारी, कोलकाता: मौजूदा दौर में जुल्फ़, आशिकी़, इश्क़ और महबूब की यादों से इतर शायरी की अलग पहचान बनाने वाले इमरान प्रतापगढ़ी किसी तार्रुफ़ के मोहताज नहीं हैं। इमरान कहते हैं कि मेरी शायरी सिर्फ़ शायरी तक ही महमूद ना रहे बल्कि हक की आवाज़ बनकर आंदोलन का रुप ले सके, इसलिए समाज के उन मुद्दों पर मैं बात करता हूँ जिसे ‘मेन स्ट्रीम’ मीडिया अहमियत नहीं देती।

सवाल- नजीब के लिए आपकी नज़्म के क्या मायने हैं?

जवाब- मेरी कोशिश हमेशा से ही रही है कि मुशायरे के मंच से हक की आवाज़ को बुलंद करुं। समाज में जो एक मज़लूम है जिसे कोई नहीं सुन रहा हो, मैं उनकी आवाज़ बन कर लोगों तक पहुंच सकूं, ये कोशिश करता हूं। नजीब  के सवाल को भी मैं इसी तरफ देखता हूँ।

मैं जब जेएनयू में मुशायरा पढ़ने के लिए गया तो मुझे एक दोस्त ने मुझसे कहा कि आपको नजीब की मां से मिलना चाहिए। मैं शायर से अलग एक अंजान शख्स बन कर उनसे मिला। मुलाक़ात के दौरान मैंनें उनके आंसू देखे और उनके तड़पते हुए दर्द को महसूस किया।

जब मैंने नजीब पर नज़्म पढ़ी तो उस मां के दर्द को अपने नज़्म के ज़रिए  दुनिया के लोगों को बताने की कोशिश की। मेरी इस नज़्म को लोगों ने पसंद किया। नजीब के लिए चलाए जा रहे आन्दोलन में इसे बजाया गया, यह मेरे लिए गर्व की बात है।

सवाल- आपकी शायरी और नज़्मो की अलग पहचान है, लोगों में इसे सुनने के लिए एक दिवानगी है। क्या कहना चाहेंगे इस अलग अंदाज के बारे में?

जवाब- मेरी मकबुलियत मदरसों की शायरी से रही है। मैं हमेशा से मदरसों की हक़ीक़त को अपने नज़्मऔर शायरी में शामिल करता आया हूं, ताकि दुनिया को बता सकूं कि कितना योगदान रहा है इस देश में मदरसों का। समाज में तहजीब की क्या पहचान होनी चाहिए, यह समझा सकूं।

मैने जुल्फ, आंचल और महबूब से गुफ्तगू की शायरी से अलग शायरी की है। मेरी शायरी बगावत की शायरी है, प्रतिरोध की शायरी है। मेरी शायरी उन मजलूमों की आवाज़ है, जिन्हें दुनिया नहीं सुनती, जिसके लिए मीडिया आवाज़ नहीं उठाती। समाजिक न्याय के लिए हम अपनी शायरी के जरिए आवाज़ उठाते रहेंगे।

कश्मीर की हालात से लेकर फलस्तीन पर भी मैंने नज़्म पढ़ी है। फलस्तीन पर मेरी नज़्म की दुनिया की तकरीबन आठ भाषाओं में अनुवाद किये गये। पूरी दुनिया में इसे पसंद किया गया। आप मेरी नज़्मों में दादरी के अखलाक, झारखंड के मिनहाज और जेएनयू के नजीब़ तक को सुन पायेंगे।

सवाल- क्या आगे चलकर आप किसी किताब पर भी काम करना चाहेंगे?

जवाब- एक शायर की हैसियत से जो कुछ भी लिख रहा हूं, पढ़ रहा हूं, वो दुनिया तक पहुंचना चाहिए। मौजूदा दौर में किताब बहुत जरूरी नहीं है, जब लोग सोशल मीडिया पर आपको पढ़ लेते हैं, सुन लेते हैं। मगर किताब पर अब काम करना चाहता हूं। मैने नाम भी तय कर लिया है “गंगा में वजू करके”।

सवाल- एक शायर के लिए गंगा जमुनी तहज़ीब क्या है, क्या यह तहज़ीब अब खतरे में है?

जवाब- मेरी शायरी या नज़्मो को जब भी आप सुनेंगे, यह तहजीब़ साफ़ झलकती नज़र आयेगी। आपसी मोहब्बत कैसे समाज में बनी रहे, इसपर हम हमेशा काम करते रहेंगे। भाईचारे के लिए मैं हमेशा से उनलोगों की पहचान कराने की कोशिश करता रहा हूँ जो लोग हमारी आवाज़ बन कर हक़ की लड़ाई लड़ते रहे हैं।

आपको जानना जरुरी है कि वो कौन लोग हैं जो आपके हक़ के लिए लड़ने को तैयार रहते हैं। मैं अपनी शायरी के जरिए कोशिश करता हूं कि दो समुदायों के बीच का एक पुल बन सकूं, ताकि मोहब्बत प्यार नफरतों पर हमेशा भारी रहे।

सवाल- क्या आप कभी सियासत का रुख करेंगे?

जवाब- फिलहाल ऐसा कुछ नहीं सोचा है। इस तरह का इरादा नहीं है अभी। लेकिन राजनीति या सियासत को अछूत भी नहीं कह सकता हूं। बहुत सारी चीजें ऐसी है जो बिना राजनीतिक गलियारे में पहुंचे पूरा करना मुमकिन नहीं हैं। बाहर के आन्दोलन और लोकसभा-विधानसभा में बोलने में काफी फर्क होता है।

हमारा पढ़ा लिखा तबका चाहता है कि उसके पास एक अच्छी नौकरी हो, सुकून की जिंदगी हो। सिर्फ भाषण देकर अपना फर्ज पूरा करना चाहते हैं।

हर कोई चाहता है कि अशफ़ाकउल्लाह खान और भगतसिंह जैसा कोई पैदा हो, लेकिन उसके घर में नहीं बल्कि पड़ोसी के घर में। हकीकत तो ये है कि समाज को बदलने के लिए हमें अपने घरों में अशफ़ाकउल्लाह खान और भगतसिंह पैदा करना पड़ेगा। हमें समाज में गांधी पैदा करना होगा।

अगर हम यह नहीं कर सकते हैं तो हम लगातार हारते रहेंगे। मैं भले ही राजनीति में ना जाऊं मगर इस बेलगाम घोड़े पर अपनी नज़्म और शायरी के जरिए जरुर लगाम लगाने का काम करता रहूंगा। अगर मेरे इस अंदाज से कोई नाराज़ होता है तो मुझे इसकी कोई परवाह नहीं है।

सवाल- देश के मौजूदा हालात पर क्या कहना चाहेंगे, क्या रास्ते हैं इन परिस्थितियों से निपटने के?

जवाब- हालत तो बहुत ही बुरा है। आने वाले दिनों के इरादे भी अच्छे नहीं लगते हैं। समाजिक परिस्थितियां और आपसी भाईचारे में काफ़ी बुरा बदलाव आ सकता है।

हाँ लेकिन इतना जरूर है कि नफरत करने वाले और फैलाने वालों की संख्या बहुत कम है। ये सिर्फ़ चीखते और चिल्लाते हैं। अगर हम अमन पसंद लोगों को इकठ्ठा करने में कामयाब रहें तो कामयाबी मिल सकती है। समाज में अमन और शांति लाने का यही एक रास्ता।