इस्लाम से दूर होता मुसलमान..

इस्लाम को अगर सबसे ज़्यादा किसी से नुक़सान हुआ है तो मेरे ख़याल में वो मुसलमानों से ही हुआ है, दीन पर चलने का दावा करने वाले ‘कुछ (कुछ से ज़्यादा ही) मुसलमान’, इस्लाम की आड़ में अपने मक़ासिद को हल करने में लगे रहते हैं.  अपने राजनीतिक और दुनियावी मसलों की कामयाबी के लिए ये लोग इस्लाम को भी अपने हिसाब से इस्तेमाल करने की जुगत में लगे रहते हैं लेकिन ये बात सिर्फ़ राजनीतिक नहीं है ये बात समाज के अपने हितों को लेकर भी  है. एक ऐसा समाज है जो औरतों के बुर्क़ा पहेनने या ना पहेनने के बारे में रोज़ कुछ न कुछ कहता रहता है लेकिन औरतों के दूसरे अधिकार जैसे प्रॉपर्टी में हिस्सा वगैराह पे ये बात भी नहीं करना चाहते. इस्लाम के नाम पे बुर्क़े पहेनने की बात का समर्थन करने वाले कुछ मुसलमान ऐसे भी हैं जो अपनी अपनी शादियों में भर पेट दहेज़ लेकर बैठे हैं और तब ये भूल जाते हैं कि इस्लाम क्या है. इस्लाम में शादी के वक़्त दी जाने वाली मेहर के बारे में भी इनके ख़याल ऐसे हैं कि अगर आपका अपना मक़सद ना हो तो भर पेट हँसेंगे, कुछ तो यूं हैं जो कहते हैं कि वो अपनी बीवी से मेहर माफ़ करवा लिए हैं.खैर,  मैं कोई ऐसी बात नहीं कह रहा जो एक आध लोगों की हो, ये बात आम है. शादियों में बेतहाशा पैसा बहाने वाले ये मुसलमान कौन हैं? अल्लाह सादगी को पसंद करता है लेकिन इनको कुछ भी अल्लाह के लिए नहीं करना, इन्हें सिर्फ़ एक दिखावा करना है और उस दिखावे को किसी न किसी एंगल से इस्लाम से जोड़ देना है.

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अगर बात अलग अलग फ़िर्क़ों की करें तो आलम ये है कि मस्जिदों के बाहर लिखवा दिया गया है कि “फ़लां” फ़िरक़े की मस्जिद है और “फ़लां” का आना सख्त मना है. इतना ही नहीं हर फ़िरके का अलग क़ब्रिस्तान है, अब अगर आपका मुर्दा उनके फ़िरके से मेल नहीं खाता तो उसको वहाँ जगह नहीं मिलनी, इसी तरह के एक वाकये में राजस्थान में एक क़ब्र से निकाल कर मुर्दे को उसके घर पहुंचा दिया गया क्यूंकि वो उनके फ़िरके का नहीं था. ये अपने आप में शर्मनाक है और दिलचस्प ये है कि ये कुछ मुसलमान जो तमाम मुसलमानों के ठेकदार बने बैठे हैं इन सब चीज़ों से ख़ुश होते हैं. पिछले दिनों एक इस्लामिक मजलिस  में जाना हुआ तो वहाँ मौलवी साहब ने पहला काम दूसरे फ़िर्क़ों को बुरा भला कह के पूरा किया और शायद यही उनका सबसे ज़रूरी काम था.

मुझे नहीं पता कि क़ुरान के कौन से हिस्से में और हदीस के कौन से पन्ने में ये लिखा है कि आप इस तरह से अलगाव का माहौल पैदा करें, इस्लाम तो इत्तेहाद का नाम है. इस्लाम आसानी का नाम है और आप उसे मुश्किल पे मुश्किल बनाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसा तो बिलकुल नहीं है कि ये जो नाटक ‘कुछ मुसलमान’ कर रहे हैं इस्लाम के नाम पे हमें नज़र नहीं आता लेकिन हम भी ख़ास कुछ करते नहीं हैं क्यूंकि उन्होंने अपनी एक सत्ता क़ायम कर ली है.  इसमें भी कहीं न कहीं एक पूंजीवाद और साम्राज्यवाद शामिल है जिस वजह से ये सब एक मकड़ी के जाल की तरह हो गया है.

एक और बुराई जो मुझे नज़र आती है वो है पढ़ाई लिखाई के माहौल की कमी, उसका भी जो सबसे एहम कारण है वो है कि आजकल के ‘कुछ मौलानाओं’ ने विज्ञान को इस्लाम से दूर करने की कोशिश की है, दुनियावी और इस्लामी तालीम में अलगाव बताने की कोशिश करने वाले ये लोग शायद ये भूल गए हैं कि दुनिया की हर चीज़ अल्लाह की ही मर्ज़ी से है और अगर विज्ञान है तो उसमें अल्लाह की मर्ज़ी है. फिर आप कैसे अल्लाह की ही चीज़ को पढने से मना कर सकते हैं. मैं ये नहीं कहता कि आप बिन मर्ज़ी के विज्ञान पढ़िए लेकिन समझने और सोचने का तरीक़ा तो वैज्ञानिक ही होना चाहिए और अगर वाक़ई इन ‘कुछ मुसलमानों’ को विज्ञान से शिकायत है तो मोबाइल-इन्टरनेट, गाड़ियां  क्यूँ चलाते हैं. ये अपना फ़ायदा ख़ूब जानते हैं और ये भी जानते हैं कि आप जान गए तो इनकी पूंजीवादी दुकान बंद हो जायेगी.

बहरहाल मैं यहाँ सिर्फ़ ये बात कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि इस्लाम को समझने के लिए आपको क़ुरान और हदीस पढने की ज़ुरूरत है और उस पर अमल करने की ज़रुरत है और इस्लाम इत्तेहाद का नाम है, अलगाव का नहीं. हमारी ज़िम्मेदारी है कि जो लोग हम में पीछे हैं उन्हें आगे लायें, मजदूरों को सहारा दें और औरतों को ताक़त दें. इस्लाम को जिन लोगों से नुक़सान हुआ है वो बाहरी नहीं हैं वो इस्लाम के ही अन्दर हैं लेकिन इस्लाम से भटक गए हैं. मैं उम्मीद करता हूँ अमन के रास्ते पे चलते हुए, लोगों से इस बारे में चर्चा की जायेगी.

 

(अरग़वान रब्बही) 

(ये लेखक के अपने विचार हैं, सिआसत हिंदी इन विचारों से सहमत या असहमत हो सकता है)