पाकिस्तान की ख़्वातीन दूसरे दर्जे की शहरी

पाकिस्तान में ख़्वातीन की हालत कभी भी अच्छी नहीं रही। साठ के दहा में जनरल अयूब खान के हुक्मरानी में ख़्वातीन की हालत में सुधार के लिए कुछ कोशिशें जरूर हुई।

लेकिन जनरल जिया (1977-88) की हुक्मरानी में पाकिस्तान में कठमुल्लाबाद को बढ़ावा देने से हालात बिगड़ते गये। अस्सी के दहा में तो कदामतपसंद और दकियानूसी अनासिर हावी हो गये। जनरल जिया ने जो दौर शुरू किया उसमें ख़्वातीन के हुकूक पर कई बंदिश लगाये गये। उन्होंने पाकिस्तान की औरतों को दूसरे दर्जे का शहरी बना दिया। पाकिस्तान ने ख्वातीन इख्तेयारात और कुछ कदम बढ़ाने शुरू किये लेकिन मुल्ला-मौलवियों की लॉबी ने इसमें हमेशा रोड़े अटकाये।

इस लॉबी ने सियासत में ख़्वातीन के दाखिल होने पर एतराज किया और बेनजीर भुट्टो को पाकिस्तान की पहली खातून वज़ीर ए आज़म बनाये जाने का पुरजोर एहतिजाज किया। लेकिन यह एहतिजाज बेकार साबित हुआ। कई मामलों में हिंदुस्तान में भी ख़्वातीन की हालत बहुत अच्छी नहीं है लेकिन कुल मिलाकर पाकिस्तान से बहुत बेहतर है।

कुछ अरसा पहले पाकिस्तान के मशहूर उर्दू रोजनामा ‘जंग’ ने लिखा था कि पाकिस्तान की ज़्यादातर ख़्वातीन अभी भी पुराने जमाने में जी रही है। शरीयत के तहत उन्हें जो हुकूक दिये गये हैं उनसे भी उन्हें मरहूम कर दिया गया है।

एक ताजा खबर मेें बताया गया है कि पाकिस्तान में खैबर पख्तूनख्वा सूबे में मुकामी एक जिम्नी इंतेखाबात (पीके-98 हल्का) में किसी भी औरत को वोट डालने नहीं दिया गया। जबकि मजकूरा हल्के के वोटर लिस्ट में 53,000 औरतों के नाम दर्ज थे।

सभी पार्टियों के मर्द सियासतदानों ने आपस में एक तरह की ज़ुबानी रज़ामंदी कर रखी थी कि औरतों को वोट नहीं डालने दिया जाये। इससे पहले 2013 के आम इंतेखाबात में ऐसा एक तहरीरी यानी लिखित करार हुआ था जिसका खुलासा हो जाने से एक नाज़ुक हालात पैदा हो गयी।

अब हंगू में एक कबाइली जिरगे की तरफ से सुनाये गये हुक्म पर तामील करते हुए सियासी पार्टियों ने अपनी कार्रवाई की। इधर इलेक्शन कमीशन से मजकूरा इलेक्शन को रद्द करने की मांग की गयी है जो ज़ेर ए गौर है। यह बड़ी अजीब हालात है कि 21वीं सदी में ग्लोबलाइजेशन के दौर में पाकिस्तान में ऐसी ताकतें मौजूद हैं जो उसे इस दौर से बाहर नहीं निकलने देना चाहती।