पुण्यतिथि- कुर्रतुलऐन हैदर जिन्हें मौलाना आजाद ने बनाया था पाकिस्तानी से हिंदुस्तानी

हिंदुस्तानी साहित्य में दो आपाओं का जिक्र हुए बिना बात पूरी नहीं होती. उर्दू में ‘आपा’ बड़ी बहन को कहते हैं. एक हैं ‘इस्मत आपा’ यानी इस्मत चुगताई और दूसरी आपा हैं, ‘ऐनी आपा’ अर्थात कुर्रतुलऐन हैदर. ऐनी आपा, इस्मत आपा से 11 बरस छोटी थीं. अभी कुछ दिनों पहले इस लेखक ने इस्मत चुगताई की यादें आपके साथ साझा की थीं, आज बात कुर्रतुलऐन हैदर की.

कोशिश करूंगा कि ऐनी आपा पर बात करूं साथ ही साथ उनकी लेखनी से निकले हुए हीरे-मोती भी आपको दिखाता चलूं. लेकिन पहले एक बहुत ही संक्षिप्त परिचय, उनके लिए, जो लोग ‘ऐनी-आपा’ से जरा भी परिचित नहीं. कुर्रतुलऐन हैदर का जन्म उत्तर प्रदेश के शहर अलीगढ़ में 1926 में हुआ.

उनके पिता ‘सज्जाद हैदर यल्दरम’ उर्दू के जाने-माने लेखक होने के साथ-साथ ब्रिटिश शासन के राजदूत की हैसियत से अफगानिस्तान, तुर्की इत्यादि देशों में तैनात रहे और उनकी मां ‘नजर’ बिन्ते-बाकिर भी उर्दू की लेखिका थीं.

वह बचपन से रईसी और पाश्चात्य संस्कृति में पली-बढ़ीं. उनकी प्रारंभिक शिक्षा लखनऊ में हुई फिर अलीगढ़ से हाईस्कूल किया. लखनऊ लौटीं और बी.ए. और एम.ए. लखनऊ विश्वविद्यालय से किया. विदेश गईं और लंदन के हीदरलेस आर्ट्स स्कूल से भी एक डिग्री ली.

विभाजन के बाद चली गईं थीं पाकिस्तानी

1947 में विभाजन के बाद उनके भाई-बहन और दूसरे रिश्तेदार पाकिस्तान चले गए. लखनऊ में अपने पिता की मौत के बाद वो भी अपने बड़े भाई मुस्तफा हैदर के साथ पाकिस्तान चली गईं. फिर वहां से 1951 में वे लंदन चली गईं. यहां एक स्वतंत्र लेखक व पत्रकार की हैसियत से ‘बीबीसी’ और ‘दि टेलीग्राफ’ से जुड़ीं.

1956 में जब वे भारत भ्रमण पर आईं तो उनके वालिद के गहरे दोस्त, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने उनसे पूछा कि क्या वे भारत आना चाहतीं हैं? कुर्रतुल ऐन हैदर के हामी भरने पर उन्होंने कोशिश की और आखिरकार वो फिर हिंदुस्तानी होकर मुंबई में रहने लगीं. उन्होंने ता-उम्र विवाह नहीं किया. 21 अगस्त 2007 को, 80 वर्ष की उम्र में उन्होंने आखिरी सांस ली.

‘स्त्रियों की ‘इंटेलीजेंस सर्विस’ इतनी तेज होती है कि खुफिया विभाग का विशेषज्ञ भी उसके आगे पानी भरे, और फिर मेरी कहानी तो इतनी दुःख भरी है. मेरी दशा कोई उल्लेखनीय नहीं. गुमनाम हस्ती हूं, इसलिए किसी को मेरी चिंता नहीं, खुद मुझे भी अपनी चिंता नहीं. रेहाना, सईदा, प्रभा और ये लड़की जिसकी आंखों में मुझे देखकर डर पैदा हुआ, शायद वो मुझसे ज्यादा अच्छी तरह मुझसे परिचित हों!.’ (कहानी ‘पतझड़ की आवाज’ से)

‘औरत की कहानी’ पुस्तक की भूमिका में सुधा अरोड़ा लिखती हैं- ‘उर्दू और हिंदी में रुकैय्या सखावत हुसैन, सुभद्रा कुमारी चौहान, शिवरानी देवी, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, महादेवी वर्मा, इस्मत चुगताई और कुर्रतुलऐन हैदर ने अपने समय में औरतों की सामाजिक स्थिति पर कहानियों या लेखों के रूप में अपने बयान दर्ज किए हैं.’ ये बात सच लगती है क्योंकि ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो’ के बिना महिला-विमर्श अधूरा रह जाता है.

 

साझी विरासत की लेखिका

कुर्रतुलऐन हैदर उर्दू-फिक्शन का रौशन नाम हैं. फिक्शन लेखन एक तरह से उनको विरासत में मिला था. मां-बाप दोनों की दिलचस्पी फिक्शन से थी. लेकिन इस बड़ी विरासत की वारिस होने के बावजूद भी उनकी पहचान और शोहरत में उनकी समझ की गहराई, इंसान-दोस्ती, वतन-परस्ती और पुरानी सांस्कृतिक धरोहर से उनका जो लगाव था, उन सबका बड़ा हाथ था.

‘एक और जर्मन मेरी तरफ आया और मुझसे कहने लगा ‘मैं वो जर्मन आर्टिस्ट हूं जो मुंबई में चंद रोज आपके यहां मेहमान रहा था. इंडिया से जाकर मैंने आपको वियतनाम से खत भी लिखा था’, ‘हां मुझे अच्छी तरह याद है, लेकिन मैंने तो तुमको वियतनाम ही में वो खत लिखने के बाद एक इत्तेफकिया (अकस्मात) गोली का निशाना बनाकर मार दिया था, अपने एक अफसाने में.’ (कहानी ‘आवारा-गर्द’ से)

‘साझी-विरासत’ उनका पसंदीदा विषय था. इसके कई कारण हो सकते हैं. एक तो मुल्क का विभाजित होना, दूसरा उनके पुरखों ने जो कुछ सांस्कृतिक-विरासत छोड़ी थी, उसकी हिफाजत उनकी नस्ल ने नहीं की, इसका गम उन्हें बहुत था.

वो लिखती हैं- ‘इस मिट्टी पर बैठ कर, उस पुरानी नदी के किनारे, पुराने इमामबाड़े के साए में, जबकि सूरज आहिस्ता-आहिस्ता डूबता जा रहा है, अपना, और अपने पुरखों का मर्सिया लिखूंगी. क्योंकि हम नालायक साबित हुए, हमारी नस्ल उस भार को न उठा सकी जो अब्बा मियां तुमने और तुम्हारे साथियों ने हमें सौंपा था. हम तुम्हारे मानकों पर जो इंसानियत, शराफत और तहजीब के मानक थे, पूरे नहीं उतर सके और इसलिए अब हम जा रहे हैं.’

कुर्रतुलऐन हैदर ने बहुत ही छोटी सी उम्र, महज 6 साल में ही लिखना शुरू केर दिया था. ‘बी-चुहिया’ उनकी पहली प्रकाशित कहानी थी. 17-18 साल की हुईं तो एक पूरा संकलन ही (शीशे का घर) प्रकाशित हो गया. दो साल बाद 1947 में पहला उपन्यास ‘मेरे भी सनमखाने’ प्रकाशित हुआ.

साझी विरासत का एक और नमूना देखिए जब वो अपने शहर लखनऊ को याद करते हुए लिखती हैं- ‘लखनऊ की सरजमीन में एक तरफ लोग जहां राधा-कन्हैया की रास-लीला में शामिल होते तो दूसरी तरफ मुहर्रम के जुलूस में बराबर शरीक होते. जहां रात को ढोलक की थाप पर मुस्लिम घरों से औरतों की आवाजें आतीं ‘भरी गगरी मोरी धरका लइ श्याम.’ या जब लडकियां अपनी गुड़ियों की बरात निकालतीं तो बार-बार ये नारा लगता ‘हाथी घोडा पालकी, जय कन्हैया लाल की’. एक तरफ हिंदू रईस इमामबाड़े बनवाते, जैसे ‘झाओ लाल का इमामबाड़ा, राजा ग्वालियर का इमामबाड़ा तो दूसरी तरफ असिफुद्दौला होली खेलते और बसंत मनाते.’

लेकिन विभाजन ने उस साझी-विरासत कि जिसको बनने में सदियां लगी थीं, चंद लम्हों की सियासत ने उसमें ऐसे नफरतों के बीज बोये कि लाल खून भी हरा और भगवा नजर आने लगा. इन सारी स्थितियों ने कुर्रतुलऐन हैदर पर बहुत बुरा असर छोड़ा. और यही खराब असर उनकी लेखनी में जा-ब-जा दिखाई देता है, चाहे वो टूटती हुई तहजीब हो, वक्त का बदलाव हो, इंसान और वक्त की अहमियत हो या संवेदनाओं के बेकद्री हो.

‘हम गए थे एक आया की तलाश में, कलकत्ते में… पहुंच गए एक जगह सोनागाछी… वहां एक बहुत बदनाम इलाका है तवायफों का… वहां दहलीज पर एक लड़की बैठी हुई… सुर्ख रंग की साड़ी पहने, सफेद रंग उसका, बहुत प्यारी शक्ल उसकी. वो हम लोगों को देखकर बार-बार बहुत अदब से नमस्कार कर रही थी. वो लड़की मुझे कभी नहीं भूली… कि कहां से आई थी… कहां बैठी थी… तो उसपर मैंने अफसाना ‘तलाश’ लिखा.’

इंसानी जज्बातों की लेखिका

उनके अफसाने, कहानियां और उपन्यास पढ़ते जाइए और आप इसी नतीजे पर पहुंचेंगे कि उनकी रचनाओं का केंद्र इंसान है. वह इंसान से ज्यादा अहमियत किसी को नहीं देती हैं. उनका खयाल है कि इंसान आज के बाजारू दौर में अकेला पड़ गया है. वो दूसरे रिश्तों को भूल बैठा है. खुदगर्जी, और मतलब-परस्ती, अवसरवादिता में पूरी तरह डूब गया है.

‘इंसान इन्फेरादी (व्यक्तिगत) तौर पर कितना सीधा-सादा और नेक है और इज्तेमाई (सामूहिक) हैसियत में दरिंदा बन जाता है.’

उनकी रचनाओं में पकिस्तान और उसका चित्रण दीवार में चुनी गयी एक बेढंगी ईंट की तरह नजर आता है और आंखों को चुभता है. उनका एक अफसाना ‘कैक्टस लैंड’ है जिसमें उन्होंने पाकिस्तान को कैक्टस-लैंड कहकर पुकारा है. उनकी कहानियों का संकलन ‘शीशे का घर’ की तमाम कहानियां विभाजन के दौर की हैं और इसमें हर जगह विभाजन के जख्म रिसते हुए नजर आते हैं.

‘आग का दरिया’ विभाजन पर लिखा हुआ उनका कालजयी उपन्यास है जो न सिर्फ धरती का बंटवारा बल्कि बल्कि तहजीबों की तकसीम को भी अपनी परिधि में लेता है. एक ऐसा विभाजन जिससे खून के रिश्ते और इंसान दोस्ती के रिश्ते भी टूट गए.

उर्दू जबान की मधुरता लिए कथा-साहित्य की रसधारा को अपनी संवेदनाओं से वेग देती हुई ऐनी आपा भारतीय साहित्य जगत पर अपनी अमिट छाप छोड़ गयी हैं. जिसे पढ़े बगैर हिंदुस्तानी साहित्य का सफर अधूरा रह जाता है.

साभार- फर्स्ट पोस्ट