बेसहारा रोहिंग्या शरणार्थियों के पैरों के नीचे से खिसकती ज़मीन…

म्यांमार के कट्टरपंथी बौद्धों और वहां की हत्यारी सेना के आतंक से अपनी जान बचाकर बांग्लादेश में शरण लेने वाले रोहिंग्या शरणार्थियों की परेशानी कम होने का नाम ही नहीं ले रही है।

कहते हैं ना कि भागते-भागते ज़मीन कम पड़ जाती है। म्यांमार में हिंसा के बाद अपना देश, गांव, परिवार सबकुछ छोडक़र भागे रोहिंग्या मुसलमानों के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। म्यांमार से भागकर पड़ोसी देश बांग्लादेश में शरण लेने पर विवश रोहिंग्या समुदाय के लोगों के पास अब सचमुच भागने के लिए ज़मीन भी नहीं बची है। मानसूनी बारिश के इन महीनों में उनके पास सिर छिपाने की जगह नहीं बची है। पहाड़ी पर बनी कच्ची झोपड़ियां बारिश और उसके कारण लगातार होने वाले भूस्खलनों को झेलने के लायक नहीं हैं यही कारण है कि पीड़ित रोहिंग्या शरणार्थियों की झोपड़ियां लगातर टूट रही हैं।

बांग्लादेश में शरण लेने वाले लगभग 9 लाख रोहिंग्या शरणार्थियों में से एक, मुस्तक़िमा नामक महिला है जो म्यांमार के कट्टरपंथी बौद्धों और वहां की हत्यारी सेना के हाथों से बचकर अपने बच्चों के साथ बांग्लादेश पहुंची है, बताती है कि उसका पति अगस्त 2017 में म्यांमार की सेना के हाथों मार दिया गया था और उसका वह घर जिसको उन्होंने बड़ी मेहनत से बनाकर खड़ा किया था उसे भी कट्टरपंथी बौद्धों और सेना ने जलाकर राख कर दिया था। मुस्तक़िमा का कहना है कि मैं बड़ी भाग्यशाली रही कि अपने बच्चों को लेकर बांग्लादेश पहुंचने में सफल रही।

मुस्तक़िमा का यह भी कहना है कि बांग्लादेश पहुंचने के बाद ऐसा लगा था कि यहां पहुंचकर वे सुरक्षित हो गए हैं, लेकिन जून महीने से जब से बारिश शुरू हुई है तब से उनके पैरों के नीचे की ज़मीन भी खिसकने लगी है। मुस्तक़िमा ने बताया कि मैं हार मानने वाली नहीं हूं जब तक सांसे चल रही है अपने बच्चों के लिए संघर्ष करती रहूंगी। उसने कहा कि मैं राहत ऐजेंसियों से बालू की बोरियां मांग कर एक बार फिर से उन्हीं बोरियों से अपने बच्चों के लिए सिर छिपाने की जगह का इंतेज़ाम कर रही हूं।

उल्लेखनीय है कि सर्दियों के मौसम में जिन पहाडिय़ों के पेड़ काटकर रोहिंग्या मुसलमानों ने अपने घर बनाए थे और जिन पेड़ों की लकड़ियों को जलाकर ठंड से राहत पाई थी, अब उन्हीं का न होना उनके लिए जैसे अभिशाप बन गया है। पेड़ कटने से पहाड़ी की मिट्टी ढीली हो गई है और तेज़ बहाव के कारण जानलेवा भूस्खलन में तब्दील हो रही है। अब मुस्तकिमा के पास सिर्फ एक ही आसरा है।  उसे लगता है कि शायद बारिश के इस मौसम में उसे अपने रिश्तेदारों की झोपड़ियों में शरण मिल जाए। इन शिविरों में राहत कार्य करने वाली ग़ैर सरकारी संस्थाओं के अनुसार कुछ ही घंटे की बारिश में यहां बाढ़ जैसे हालात पैदा हो जाते हैं जिसके कारण पहाड़ी से मिट्टी, पानी के सहारे बहकर नीचे आ जाती है, जिससे इन क्षेत्रों में बसे रोहिंग्या शरणार्थिंयों को बहुत कठिन परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।