भोपाल एन्काउंटर: पुलिस को नहीं है किसी की जान लेने का अधिकार

वसीम अकरम त्यागी

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल की सेन्ट्रल जेल से सिमी से जुड़े होने के आरोपी आठ युवकों दीपावली की रात करीब ढ़ाई बजे फरार होने की खबरें सुब्ह मीडिया में आईं थीं। फिर कुछ समय बाद खबर आई की जेल से भागे सभी आठ आरोपियों को पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराया है। इस मुठभेड़ के बाद सोशल मीडिया पर जो तस्वीरें वायर हुईं हैं उनमें साफ दिख रहा है कि मृतकों ने जींस व टीशर्ट जैसे कपड़े, व घड़ी तक पहनी हुई है। जबकि अंडरट्रायल को ये सब चीज़ें नहीं दी जातीं।

मुठभेड़ के बाद भोपाल आईजी योगेश चैधरी ने कहा था कि फरार कैदियों ने पुलिस के ऊपर गोलाबारी की अगर चौधरी की बात को भी सच मान लिया जाये तो सवाल उठता है कि जब गोलीबारी की थी तो पुलिस हथियारों व गोला बारुद का ब्योरा देने से बच क्यों रहे हैं ? गौरतलब है कि 2013 में मध्यप्रदेश के खंडवा जिले से ‘सिमी’ के आरोपी जेल से फरार हो गये थे। जिसमें बताया गया था कि वे चादर की रस्सी बनाकर दीवार फांदकर भाग गये थे। वैसी ही कहानी भोपाल में सामने आई, गौरतलब भोपाल की सेंट्रल जेल देश के सबसे सुरक्षित जेलों में से है. इसे सबसे पहला आईएसओ 9000 का प्रमाणपत्र मिला था.

ऐसी जेल से आठ कैदियों का भाग जाना और फिर 9 घंटे बाद ही शहर के ही आस पास उनका पुलिस मुठभेड़ में मारा जाना क्या अपने आप में सवाल पैदा नहीं करता ? जबकि उनके पास इतना समय था कि वे इस समय में राज्य से बाहर जा सकते थे। लगातार सिमी और आईएम के नाम पर जेलों में बंद उन कैदियों हत्या की जा रही है जिनकी रिहाई होने वाली होती है। ठीक इसी तरह वारंगल में पांच युवकों की पेशी पर ले जाते वक्त हिरासत में हत्या कर दी गई। क्योंकि उन पर मोदी को मारने के षडयंत्र का आरोप था जो अगर बरी हो जाते तो खुफिया-सुरक्षा व इस आतंक की राजनीति का पर्दाफाश हो जाता। इन घटनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि केन्द्रिय खुफिया एजेंसियां और प्रदेश की पुलिस मिलकर इन घटनाओं को अंजाम दे रही हैं।

भोपाल सेन्ट्रल जेल को अन्र्तराष्ट्रीय मानक आईएसओ-14001-2004 का दर्जा प्राप्त है। जिसमें सुरक्षा एक अहम मानक है। ऐसे में वहां से फरार होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पुलिस जिन कैदियों को मुठभेड़ में मारने का दावा कर रही है उसमें से तीन कैदियों को वह खंडवा के जेल से फरार होने वाले कैदी बताया गया है। इससे साबित होता है कि प्रदेश सरकार आतंक के आरोपियों की झूठी फरारी और फिर गिरफ्तारी या फर्जी मुठभेड़ में मारने की आड़ में दहशत की राजनीति कर रही है। जेलों में बंद बेकसूर नौजवानों की लड़ाई लड़ने वाले संगठन रिहाई मंच का कहना है कि यहां पर अहम सवाल है कि जिन आठ कैदियों के भागने की बात हो रही है वह जेल के ए ब्लाक और बी ब्लाक में बंद थे।

मंच को प्राप्त सूचना अनुसार मारे गए जाकिर, अमजद, गुड्डू, अकील खिलजी जहां ए ब्लाक में थे तो वहीं खालिद, मुजीब शेख, माजिद बी ब्लाक में थे। इन ब्लाकों की काफी दूरी है। ऐसे में सवाल है कि अगर किसी एक ब्लाक में कैदियों ने एक बंदी रक्षक की हत्या की तो यह कैसे संभव हुआ कि दूसरे ब्लाक के कैदी भी फरार हो गए। पुलिस चादर को रस्सी बनाकर सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करने का दावा कर रही है। जबकि चादर को रस्सी बनाकर ऊपर ज्यादा ऊंचाई तक फेंका जाना संभव ही नहीं है यदि फेंका जाना संभव भी मान लिया जाए तो इसकी संभावना नहीं रहती कि वह फेंकी गई चादर कहीं फंसकर चढंने के लिए सीढ़ी का काम करे।

जेल में लगे सीसीटीवी कैमरे के फुटेज के बारे में अब तक कोई बात क्यों सामने नहीं आई। जबकि सीसीटीवी फुटेज से ही साबित हो जायेगा कि वे आठों आरोपी जेल से भागे थे या फिर पुलिस ने कहानी घढ़ी है। पुलिस की यह कहानी सिर्फ कहानी से ज्यादा कुछ ओर नजर नहीं आती। यह मुठभेड़ हर पहलू पर सवालिया निशान लगा रही है। क्या 35 से 40 फ़ीट दीवार को चादर की मदद से फांदा जा सकता है औऱ क्या ये चादरें इतना वज़न उठा सकती हैं?

एक ही बैरक में सभी अभियुक्तों को साथ क्यों रखा गया ? अगर अभियुक्तों को भागना था तो रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड की ओर जाना चाहिए था न कि ऐसे इलाके में जो गांव है? कथित मुठभेड़ के दौरान इन अभियुक्तों के पास कैसे हथियार थे ? और वो हथियार कहाँ से आए ? क्या इन्हें ज़िंदा पकड़ने की कोशिश की गई थी ?

दरअस्ल समाज में मुठभेड़ को मान्यता मिली हुई है एक बहुत बड़ा तबका ऐसा है जो हर एक समस्या का हल मृत्यू को ही मानता है। लेकिन भारतीय संविधानुसार किसी भी अधिकारी किसी भी पुलिस को किसी की भी जान लेना का अधिकार नहीं है, समाचार चैनलों पर होने वाली बहस में एक दूसरे को चरित्र प्रमाण तो दिया जाता है मगर क्या सही है क्या नहीं इस पर चर्चा ही नहीं होती।

ऊपर से मीडिया की पूर्वाग्रह से ग्रस्त रिपोर्टिंग जिसने मारे गये अंडरट्रायल कैदियों को ही आतंकवादी, खूंखार आतंकवादी लिखकर प्रसारित किया है, यह ऐसी कुकर्म है जो मृतकों के प्रति उमड़ने वाली सहानूभूती को कम कर देता है। पूर्व आईपीएस वीएन राय के मुताबिक भारतीय समाज में एनकाउंटर को स्वीकार्यता मिली हुई है. समाज इसे स्वीकार करता है. इशरत जहां के केस में मसला यह नहीं था कि इशरत लश्कर की सदस्य थी कि नहीं. उसमें बहस यह होनी चाहिए थी कि क्या राज्य को यह अधिकार है कि आप किसी को भी पकड़कर मार देंगे? अगर वह लश्कर की सदस्य भी है तो क्या आप उसको पकड़कर मार देंगे? आपको यह मारने का ये अधिकार भारत का संविधान या कानून देता है ? इस पर बहस होने लगी कि नहीं वह तो बड़ी भली महिला थी. उसे गलत तरीके से मारा गया. आप किसी को पकड़कर नहीं मार सकते. वह लश्कर की थी भी तो आपको यह अधिकार किसने दिया कि आप उसे पकड़कर मार दें? आप किसी को भी ऐसे नहीं मार सकते.