मैरी कॉम ने छठी बार भी गोल्ड मैडल पर अपना नाम दर्ज किया

भारतीय मुक्केबाजी की दिग्गज मैरी कॉम ने इतिहास रचकर छठी बार वर्ल्ड बॉक्सिंग चैंपियनशिप गोल्ड मेडल जीत लिया है. दिल्ली में चल रही इस चैंपियनशिप में सबकी निगाहें मैरी कॉम पर टिकी थी, उन्होंने सभी की उम्मीद पर खरा उतरकर गोल्ड जीता.

मैरी कॉम ने फाइनल में यूक्रेन की हना ओखोटा को 5-0 से मात देते हुए स्वर्ण पदक अपने नाम किया. मैरी कॉम का यह छठा विश्व चैम्पियनशिप खिताब है तो वहीं विश्व चैम्पियनशिप में कुल आठवां पदक है. उन्होंने बहुत विश्‍वास के साथ जीत हासिल कर दिखा दिया कि उन्हें क्यों मैगनीफिशेंट मेरी कहा जाता है.

एक मजदूर परिवार में जन्म लेने के बाद शिखर तक सफर आसान नहीं होता. पग पग पर चुनौतियां और हौसलों को तोड़ देने वाली बाधाएं रास्ते में मिलती हैं. भारत की जानी -मानी चैंपियन बॉक्सर मैरी कॉम ने इस मुश्किल सफर की हर बाधा को लांघकर दिखा दिया कि वो विलपॉवर की एक बहुत बड़ी मिसाल भी हैं. उन्हें लौह महिला भी कहा जाता है.

हर जगह खुद को विजेता साबित किया
जब वो मुक्वेबाजी में आईं थीं तो इस खेल का कोई भविष्य नहीं था और जोखिम बेहिसाब. घरवालों ने मना किया. खेल राजनीति ने रास्ता रोका. गरीबी और अभावों ने मुश्किलों में डाला-लेकिन क्या मजाल की इस लौह महिला को झुका पाए. हर जगह उन्होंने खुद को विजेता साबित किया-चाहे ओलंपिक हो या एशियाई खेल या फिर विश्व बॉक्सिंग.

बचपन मिट्टी की झोंपड़ी और मजदूरी में बीता
मैरी कॉम के अभिभावकों के पास एक मिट्टी की झोंपड़ी थी. उन्हें भी बचपन खेतों में मजदूर के तौर पर काम करना पड़ा. ये वो दौर था जब उनके पास सपनों की उडाऩ के लिए पंख बेशक नहीं थे लेकिन इरादे जरूर मजबूत थे. बचपन की कड़ी मेहनत ने उन्हें एक मजबूत शख्सियत दी. अब उनकी जिंदगी पूरी तरह से बदल चुकी है.

मेरी कोम के पास सबकुछ है लेकिन वो नहीं बदलीं हैं. जब भी घर में होती हैं तो खुद अपने पूरे घर को धोती हैं. सफाई करती हैं. खाना बनाती हैं. वह अपने तीन बेटों की प्यारी मम्मी बन जाती हैं.

फीस नहीं होती थी स्कूल की
कई बार ऐसा होता था जब मैरी कॉम के पिता उनकी स्कूल की फीस भी जमा नहीं कर पाते थे. उन्हें क्लास से बाहर खड़ा कर दिया जाता था.मेरी ने अपनी आत्मकथा अनब्रेकेबल में लिखा है, गांव में शायद सभी बच्चे उतनी मेहनत नहीं करते थे,जितनी हम लोग. मैं खेतों में पिता के साथ काम में मदद करती रहती थी. और अपने साथियों को दुूर से खेलते हुए देखती थी. अक्सर मुझे बैलों को लेकर बुआई का काम करना पड़ता. ये बहुत मुश्किल होता था क्योंकि बैलों को भी नियंत्रित करते हुए चलाना होता था और साथ साथ बुआई भी करनी होती थी.

जाड़े में कपड़े नहीं होते थे
खेतों में काम करने के साथ मेरी गायों को चरातीं, दूध दूहतीं. कभी मायूस भी होतीं कि वह बच्चों के साथ खेल क्यों नहीं पा रहीं. मैरी के परिवार के दिन तब इतने कठिन थे कि कई बार तो कोई उम्मीद की किरण ही नजर नहीं आती थी. लगता था कि ये अंतहीन सिलसिला कब तक चलता रहेगा. पढाई लैंप की रोशनी में होती थी. नाममात्र के कपड़े होते थे. जाड़े हमेशा उनके कठिन होते थे, जो रातों में सोने के दौरान उन्हें कंपकंपाते रहते थे.

पहली बार कब पदक जीता
गांव के पास के कस्बे में जब उन्होंने स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली तो वह आगे की पढ़ाई के लिए इंफाल गईं. यहीं उन्होंने पहली बार तरीके से बॉक्सिंग सीखना शुरू किया. वह स्कूल जातीं, लेकिन साथ में सुबह और भारतीय खेल प्राधिकरण की बॉक्सिंग एकेडमी जातीं, प्रैक्टिस करतीं और लौटकर खाना बनातीं.

हालांकि लोगों को लगता था कि उनकी जैसी दुबली पतली लड़की बॉक्सर कैसे बन सकती है. पहली बार उन्हें एक राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में 48 किलोवर्ग में हिस्सा लेने का मौका मिला. जब वह रिंग में उतरीं तो उन्होंने विरोधियों को बुरी तरह हराया.

उनके मुक्कों में इतना दम था कि कोई उनके सामने टिक नहीं पाया. उन्होंने न केवल गोल्ड जीता बल्कि वह प्रतियोगिता की श्रेष्ठ बाक्सर भी चुनी गईं. वर्ष 2001 में पहली नेशनल वूमन बॉक्सिंग चैंपियनशिप चेन्नई में थी. मेरी का चयन मणिपुर की टीम में 48 किलोवर्ग टीम में हुआ. अभ्यास शिविर बेंगलुरु में था. ट्रेन में रिजर्वेशन मिला नहीं, लिहाजा टीम को ट्रेन के डिब्बे में टॉयलेट के पास बैठकर जाना पड़ा. चेन्नई में भी मेरी ने गोल्ड मेडल जीता.

जब अंतरराष्ट्रीय पहचान मिलनी शुरू हुई
पहली बार बैंकाक की एशियाई चैंपियनशिप ने उन्हें पहचान दी, जहां से वो रजत पदक जीत लौटीं. पूरे मणिपुर में वह देखते ही देखते स्टार बन गईं. हर कोई उन्हें जान गया लेकिन आर्थिक हालात वैसे ही बदतर थे. जब उनका अमेरिका के पेनसिल्वेनिया में होने वाली वर्ल्ड बाक्सिंग चैंपियनशिप में हुआ तो जेब में पैसे नहीं. ऐसे समय में पिता ने किसी तरह 2000 रुपए जुटाकर दिए. साथ में मणिपुर के लोगों ने करीब दस-पंद्रह हजार की मदद की. वहां वह रजत पदक जीतकर लौटीं. उनके अलावा भारतीय टीम में कोई पदक नहीं जीत पाया.

फिर शुरू हुई पैसों की बारिश
इसके बाद शुरू हुई मैरी कॉम पर पैसे की बारिश. खेल मंत्रालय ने नौ लाख रुपए का अवार्ड दिया. जिंदगी बदलने लगी. इसके बाद तो वह एक के बाद दूसरी प्रतियोगिताएं जीतती गईं, चाहे वह देश में हो या विदेश में. वह जीतती जा रही थीं. शादी और बच्चे पैदा होने के बाद भी वह जब बॉक्सिंग रिंग में टिकी रही तो लोगों को हैरानी भी हुई.

ढलती उम्र में ओलंपिक में पदक
वर्ष 2012 के लंदन ओलंपिक में महिला बॉक्सिंग को पहली बार शामिल किया गया. वह 30 साल की हो चुकी थीं. यानि उम्र ढलने लगी थी. अगर देश में क्षेत्रवाद और खेलों की राजनीति की बात करें तो उसकी शिकार वह भी कम नहीं हुईं. ओलंपिक से पहले ही उनके भारतीय टीम में शामिल किए जाने पर सवाल खड़े किए जाने लगे. लेकिन मेरी ने ओलंपिक का कांस्य पदक जीतकर सबका मुंह बंद कर दिया.

अब वह मणिपुर पुलिस में सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस (स्पोर्ट्स) हैं. उनका जीवन ये बताता है कि अगर दृढइच्छाशक्ति हो तो सारी राहें आसान हो जाती हैं. फिर वही होता है जो आप चाहते हैं.जब अंतरराष्ट्रीय पहचान मिलनी शुरू हुई
पहली बार बैंकाक की एशियाई चैंपियनशिप ने उन्हें पहचान दी, जहां से वो रजत पदक जीत लौटीं. पूरे मणिपुर में वह देखते ही देखते स्टार बन गईं. हर कोई उन्हें जान गया लेकिन आर्थिक हालात वैसे ही बदतर थे. जब उनका अमेरिका के पेनसिल्वेनिया में होने वाली वर्ल्ड बाक्सिंग चैंपियनशिप में हुआ तो जेब में पैसे नहीं. ऐसे समय में पिता ने किसी तरह 2000 रुपए जुटाकर दिए. साथ में मणिपुर के लोगों ने करीब दस-पंद्रह हजार की मदद की. वहां वह रजत पदक जीतकर लौटीं. उनके अलावा भारतीय टीम में कोई पदक नहीं जीत पाया.

फिर शुरू हुई पैसों की बारिश
इसके बाद शुरू हुई मैरी कॉम पर पैसे की बारिश. खेल मंत्रालय ने नौ लाख रुपए का अवार्ड दिया. जिंदगी बदलने लगी. इसके बाद तो वह एक के बाद दूसरी प्रतियोगिताएं जीतती गईं, चाहे वह देश में हो या विदेश में. वह जीतती जा रही थीं. शादी और बच्चे पैदा होने के बाद भी वह जब बॉक्सिंग रिंग में टिकी रही तो लोगों को हैरानी भी हुई.

ढलती उम्र में ओलंपिक में पदक
वर्ष 2012 के लंदन ओलंपिक में महिला बॉक्सिंग को पहली बार शामिल किया गया. वह 30 साल की हो चुकी थीं. यानि उम्र ढलने लगी थी. अगर देश में क्षेत्रवाद और खेलों की राजनीति की बात करें तो उसकी शिकार वह भी कम नहीं हुईं. ओलंपिक से पहले ही उनके भारतीय टीम में शामिल किए जाने पर सवाल खड़े किए जाने लगे. लेकिन मेरी ने ओलंपिक का कांस्य पदक जीतकर सबका मुंह बंद कर दिया.

अब वह मणिपुर पुलिस में सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस (स्पोर्ट्स) हैं. उनका जीवन ये बताता है कि अगर दृढइच्छाशक्ति हो तो सारी राहें आसान हो जाती हैं. फिर वही होता है जो आप चाहते हैं.
Courtesy: News 18