मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

तहज़ीब-ओ-सक़ाफ़्त के शहर हैदराबाद फ़र्ख़ंदा(मुबारक) बुनियाद में इन दिनों पेश आए वाक़ियात तमाम शहरयान हैदराबाद के लिए लम्हा-ए-फ़िक्र है।

इस किस्म की सूरत-ए-हाल, पुरअमन और मुहज़्ज़ब मुआशरा के लिए सिम क़ातिल है और तरक़्क़ी-ओ-ख़ुशहाली की राह में रुकावट है। कई मुस्लिम नौजवानों की गिरफ्तारियां अमल में आएं।

बसाऔक़ात छोटी सी ग़लती से मुस्तक़बिल तारीक हो जाता है। वक़्ती परेशानी तो ख़त्म हो जाती है, लेकिन जब करीयर दाउ पर लग जाता है तो ज़िंदगी मुश्किल हो जाती है।

कई हैदराबादी नौजवान तर्क-ए-वतन पर मजबूर हो गए, बैरून मुल्क परदेसी ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। बाज़ तो शादी के लिए भी हैदराबाद ना आसके, बड़ी मुश्किलात से शादी ब्याह के मसाइल हल हुए।

ग़ैर मुस्लिम भी नफ़रत-ओ-अदावत और ख़ौफ़-ओ-हिरास के साय में ज़िंदगी बसर करना पसंद नहीं करते, ना कोई अमन पसंद शहरी उस को क़बूल करता है और ना कोई तरक़्क़ी पसंद उस को बर्दाश्त करसकता है। ये सारी सूरत-ए-हाल नाइंसाफ़ी-ओ-जांबदारी पर मबनी हुक्मरानी, मज़हबी मुनाफ़िरत, फ़िर्कावाराना तास्सुब और बाहमी अदम रवादारी की वजह से है।

अगर अदल-ओ-इंसाफ़ की हुक्मरानी हो, सदाक़त-ओ-अमानत, रास्त बाज़ी-ओ-शफ़्फ़ाफ़ियत का माहौल हो, इंसान दोस्ती, अमन-ओ-आश्ती, वुसअत नज़री और मज़हबी रवादारी की फ़िज़ा हो तो फिर तशद्दुद बदअमनी की सूरत-ए-हाल ना पैदा होगी।

मुस्लिम मुआशरा के लिए तालीमी तरक़्क़ी, मआशी इस्तिहकाम, रोज़गार की फ़राहमी और बुनियादी ज़रूरीयात की हुसूलयाबी संगीन मसला है और किसी हद तक इन ही मसाइल से ग़ैर मुस्लिम भी दो चार हैं।

हुसूल तेलंगाना के लिए कई ग़ैर मुस्लिम तालीमयाफ़ता और ग़ैर तालीमयाफ़ता नौजवानों ने अपनी जानों की क़ुर्बानियां दी हैं। हुसूल तेलंगाना के लिए जद्द-ओ-जहद किसी मख़सूस मज़हब की बालादस्ती के लिए नहीं है, बल्कि वो ये समझते हैं कि उस की वजह से इलाक़ा तेलंगाना ख़ुशहाल होगा, रोज़गार के मवाक़े फ़राहम होंगे, मुक़ामी सतह पर ग़ुर्बत के ख़ातमा में मदद मिलेगी और अवाम के लिए मुस्तक़बिल की ज़मानत होगी।

इस के सहि और ग़लत दोनों पहलू हैं, किसी के नज़दीक सहि पहलू काबिल-ए-तरजीह है और कोई ग़लत पहलू को तर्जीह देता है। लेकिन बुनियादी तौर पर मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम दोनों कि सौच मे तरक़्क़ी और ख़ुशहाली है, जब कि मज़हबी जुनून और पुरतशदुद रवैया इस राह में सब से बड़ी रुकावट हैं।

मुसलमानों की कोई अलहदा हुकूमत क़ायम होने वाली नहीं है और ना ही ग़ैर मुस्लिम मुसलमानों को नजरअंदाज़ करके किसी रियासत में अपनी हुकूमत क़ायम करसकते हैं।

मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम हिंदूस्तानी मुआशरह के दो अहम सतून हैं, हर एक का इस्तिहकाम दूसरे के इस्तिहकाम में मुज़म्मिर है।

इंसानी एहतिराम पर मबनी इस्लामी तालीमात एसी हैं कि उस को अमल मे लाते हुए किसी भी जमहूरी-ओ-ग़ैर स्लामी हुकूमत में ब्रदर एन-ए-वतन के साथ ख़ुशगवार ताल्लुक़ात-ओ-मरासिम को बरक़रार रखते हुए तरक़्क़ी की राह पर गामज़न होना मुसलमानों के लिए निहायत आसान है।

क़ुरआन मजीद ने उम्मत वाहिदा और इख़तिलाफ़ अदयान से मुताल्लिक़ हक़ायक़ का इज़हार करते हुए बयान किया कि (इब्तिदा-ए-में) सब लोग एक ही उम्मत थे (एक ही देन पर थे।

फिर इन में इख़तिलाफ़ात रौनुमा हुए) तो अल्लाह ने बशारत देने वाले और डर सुनाने वाले पैग़म्बरों को भेजा और उन के साथ हक़ पर मबनी किताब नाज़िल की, ताकि वो लोगों के दरमयान उन के अख़तिलाफ़ी मसाइल में फ़ैसला करें और इस में इख़तिलाफ़ इन ही लोगों ने किया, जिन्हें वो किताब दी गई थी, बावजूद इस के उन के पास वाज़िह निशानीयां आचुकी थीं (और ये इख़तिलाफ़) बुग़ज़-ओ-हसद की बिना था।

फिर अल्लाह ने ईमान वालों को अपने हुक्म से अख़तिलाफ़ी उमूर में हक़ की हिदायत दी और अल्लाह जिस को चाहता है स्रात मुस्तक़ीम की हिदाएतदेता है। (सूरतअल बक़रा।२१३)