श्रीनगर की 16 वर्षीय लड़की उन खिलाड़ियों को आवाज देती है जो बोल और सुन नहीं पाते

श्रीनगर : श्रीनगर में एक सुबह जो पुरी तरह सफेद शीतकालीन मौसम है, और एक 16 वर्षीय लड़की ने शहर के बाहरी इलाके में अपने तंग घर से बाहर निकलकर बैडमिंटन खिलाड़ियों के एक समूह को इनडोर स्टेडियम में एक टूर्नामेंट के लिए तैयार करने में मदद कर रही है। दसवीं क्लास की लड़की अर्वा इम्तियाज भट्ट कोच नहीं है, मगर फिर भी किसी कोच से उसका रोल कम नहीं है। क्योंकि वो सन्नाटे को अपनी आवाज देकर उन खिलाड़ियों तक पहुंचाने का काम कर रही है, जो बोल और सुन नहीं पाते। दिव्यांगों के लिए बनी जम्मू-कश्मीर स्पोर्ट्स एसोसिएशन से जुड़े सभी 250 खिलाड़ियों के लिए अर्वा उनकी आवाज है, वो रोजाना साइन लैंग्वेज के जरिए इन खिलाड़ियों की खेल के बारे में अहम जानकारी देती है।

इतना ही नहीं 16 साल की अर्वा अपनी पढ़ाई छोड़कर कई बार टीम के साथ टूर्नामेंट के लिए शहर से बाहर जाती है। ये अलग बात है कि इससे उनका परिवार परेशान होता है। मगर इस लड़की में मदद का ऐसा जज्बा है कि अपनी सुरक्षा की परवाह किए बगैर ये इन खिलाड़ियों की आवाज बनी हुई है।

इस काम के लिए अर्वा को पैसे नहीं मिलते हैं। मगर उसको इसकी परवाह नहीं, उसकी नजर में तो टीम की जीत ही उसके लिए सबसे बड़ा ईनाम है। पिछले साल दिसंबर में जम्मू-कश्मीर की टीम ने दिव्यांगों के लिए लिए रांची में हुए नेशनल गेम्स में चार गोल्ड, तीन सिल्वर और दो ब्रॉन्ज मेडल जीते थे।

अर्वा की मां रेहाना भी बोल नहीं सकती हैं, वहीं उनके भाई मोहम्मद सलीम, जोकि एक अच्छे बैडमिंटन खिलाड़ी हैं, वो भी न बोल सकते हैं और न ही सुन। अर्वा ने जब से होश संभाला, तब से वो अपनी मां और भाई को इस परेशानी से लड़ते हुए ही देख रही हैं। परिवार के साथ ही रिश्तेदारों ने भी उनके साथ पक्षपात किया। मां और भाई के साथ हो रही अन्याय के बाद अर्वा ने उनकी मदद का फैसला किया, जिसमें उन्हें अपने चाचा का साथ मिला, जो दिल्ली से साइन लैंग्वेज सीखकर आए थे। अर्वा ने अपने चाचा से ये सीखा और फिर जुट गई अपने मिशन में।

अर्वा के लिए यहां तक पहुंचने का सफर आसान नहीं था। खासतौर पर दिव्यांग बच्चों के माता-पिता को ये समझाना कि वो अपने बच्चों को घर से बाहर निकालें। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब जम्मू-कश्मीर की टीम को नेशनल गेम्स में शामिल होने के लिए रांची जाना था, तब दिव्यांग बच्चों के मां-बाप ने उन्हें भेजने से इंकार कर दिया।

ऐसे में अर्वा ने बच्चों के मां-बाप को ये भरोसा दिलाया कि वो रांची में सुरक्षित रहेंगे। कई बार अर्वा को बच्चों के परिवार वालों से लड़ना पड़ता है। जम्मू-कश्मीर स्पोर्ट्स काउंसिल के सचिव वाहिद रहमद भी अर्वा को दूसरों के लिए प्रेरणा मानते हैं। वाहिद रहमद का कहना है, मैं 16 साल की लड़की का समर्पण देखकर हैरान हूं, ‘ऐसे में जब भी दिव्यांग टीम बाहर खेलने जाती है और उनके साथ अगर अर्वा जा रही होती है, तो मैं कागजी कार्रवाई जल्दी पूरी करवाता हूं।’

बारामूला में रहने वाले नाजिर अहमद भट्ट, जिनके दोनों बेटे बोल और सुन नहीं सकते, वो भी अर्वा के इस जज्बे और समर्पण को सलाम करते हैं। उनके मुताबिक दुनिया में ऐसे कम ही लोग हैं, जो इस तरह के बच्चों की मदद के लिए आगे आते हैं।

डॉक्टर बनने का सपना देख रही अर्वा को इस नेक काम का खामियाजा भी उठाना पड़ता है, क्योंकि टूर्नामेंट के लिए टीम के साथ आने-जाने की वजह से पढ़ाई प्रभावित होती है। अर्वा के मुताबिक, ‘पिछले साल कश्मीर के अलग-अलग हिस्सों में टीम को ले जाने की वजह से वो कई दिनों तक स्कूल नहीं जा पाईं, ऐसे में टीचर ने उन्हें फटकार लगाई।’

डॉक्टर बनने का सपना देख रही अर्वा के पिता मामूली ऑटो रिक्शा ड्राइवर हैं और वो अपनी बेटी को खूब पढ़ाना चाहते हैं। मगर मामूली कमाई की वजह से परिवार की परवरिश करने के साथ ही पढ़ाई का खर्चा उठाना मुश्किल होता है। अर्वा के दो भाई हैं, बड़े भाई ने जहां एक दुर्घटना के बाद पढ़ाई छोड़ दी, वहीं छोटा भाई पांचवीं क्लास में पढ़ता है।

कई बार पिता का मामूली कमाई की वजह से अर्वा को भी लगता है कि वो डॉक्टर नहीं बन पाएगी। कई बार पिता के पास इतने पैसे नहीं होते कि वो अर्वा की फीस भर पाएं। इसी वजह से पिता ने उसे निजी स्कूल से निकालकर नौगांव के सरकारी स्कूल में दाखिल करा दिया।

हालांकि इतनी तकलीफों के बाद भी जब वो दिव्यांग खिलाड़ियों के चेहरे पर मुस्कान देखती है तो अपना दर्द भूल जाती है और बड़ी सुकून से सोती है।