हैदराबाद जो कल था …शाद बानो अहमद

मुहतरमा शाद बानो अपने दौर की मशहूर शख़्सियत, हैदराबाद रियासत के वज़ीर-ए-आज़म महाराजा किशन प्रशाद की नवासी और हैदराबाद के पहले बैन-उल-अक़वामी हवाबाज़ बाबर मिर्ज़ा की दुख़तर हैं। उनके वालिद ने हब्शीगुड़ा में शहर का पहला एरोक्लब शुरू किया था। शाद बानो ने देवढ़ियों का माहौल भी देखा और चालीस के दहे में सिकंदराबाद और हब्शीगुड़ा के इलाक़ों में पनपती मग़रिबी तहज़ीब को क़रीब से महसूस किया।

शाद बानो ने उम्र का बड़ा हिस्सा दिल्ली और अलीगढ़ में गुज़ारा। अलीगढ़ यूनीवर्सिटी में प्रोफ़ैसर रहीं। इन दिनों वो कैनेडा में मुक़ीम हैं। पिछले दिनों जब वो हैदराबाद आएं तो उनसे मुलाक़ात के दौरान पुराने हैदराबाद की कई सारी यादें ताज़ा हुईं। उनसे बातचीत के इक़तिबासात यहाँ इनही की ज़ुबानी पेश हैं।

लंदन से हैदराबाद के लिए पहली सोलो फ़्लाईट
5 हब्शी गौड़ा में जहां हमारा मकान था, वो सारा जंगल हुआ करता था। ये जायेदाद मेरी दादी अहमदी बेगम की थी जो मंज़ूर जंग की दूसरी बेगम थी। वालिदा बताती हैं कि वालिद साहिब ने जब यहाँ मकान बनाने का फ़ैसला किया तो दूर दूर तक बहुत कम मकानात थे। उनके मकान बनाने के शौक़ का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि तामीर की शुरूआत से लेकर तकमील तक वालिद और वालिदा टेंट डाल कर पास ही में रहे। यहां से कुछ फ़ासले पर दादा का भी बड़ा सा मकान था। मेरी पैदाइश से पहले यहां एक क्लब हाॶस भी क़ायम किया गया था। अब वहां उस्मानिया यूनीवर्सिटी के इमतिहानात के शोबे की इमारत है।
दरअसल वालिद साहब (बाबर मिर्ज़ा) को हवाबाज़ी का बहुत शौक़ था। 19 साल की उम्र में वो आला तालीम के लिए लंदन गए। वहां उन्होंने तालीम में कम और हवाई जहाज़ों में ज़्यादा दिल लगाया। शाम का अक्सर वक़्त जहाज़ उड़ाना सीखने में सर्फ़ करदेते। यहां से लंदन तो वो पानी के जहाज़ से गए थे लेकिन जब लौटे तो ख़ुद अपना ज़ाती हवाई जहाज़ लेकर, लंदन से निकल कर सीधे हैदराबाद नहीं पहुंच सके। हुआ यूं कि गल्फ़ के पास उनका प्लेन अचानक ख़राब होगया और उन्हें एमरजैंसी लैंडिंग करनी पड़ी। उन्हें दुश्मन मुल्क का फ़ौजी समझ कर क़ैद करलिया गया। ख़ैर किसी तरह उन्होंने क़ैद से आज़ादी पाई और हैदराबाद चले आए। यहाँ सब लोग परेशान थे। उन्होंने अकेले हवाई जहाज़ लेकर हैदराबाद आने की इत्तिला किसी को नहीं दी थी। उन्हें देख कर घर और ख़ानदान में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। प्लेन वहाँ से कराची और फिर बाद में बंबई पहुंचाया गया। ये 1932 का वाक़िया है। इस के बाद उन्होंने हब्शीगुड़ा में एरोक्लब शुरू किया। दो और तय्यारे मंगवाए। सिखाने के लिए दो इंस्ट्रक्टर भी मुक़र्रर किए गए। हैदराबाद के कई शौक़ीन लोग हवाई जहाज़ देखने आते तो उन्हें जॉय राइड दी जाती। ये शौक़ मरते दम तक उनके साथ रहा। बाद में उन्होंने सातवें निज़ाम की इजाज़त से बेगमपेट अर पोर्ट क़ायम किया।

सैंट जॉर्जिस स्कूल
हब्शीगुड़ा में इन दिनों बहुत कम आबादी थी और यहाँ पुराने शहर की तहज़ीब का सीधा असर नहीं था। वहां से हम लोग बग्घी या टांगे में सैंट जॉर्जिस स्कूल आते थे। वालिद साहिब अपनी मोटर में हकीम पेट अर पोर्ट जाते थे। उन्हें मोटरों का भी बहुत शौक़ था। घर में हमेशा दो तीन मोटरें हुआ करती थीं। हमारे लिए बग्घी और टांगे का इंतिज़ाम था। हमारे साथ आया भी स्कूल आती। जब किंडरगार्टन में थे तो बिस्तर भी साथ आता। दोपहर के खाने के बाद हाथ मुँह साफ़ करने के लिए जो तौलिये इस्तिमाल किए जाते उन पर हमारा नाम लिखा होता था। बच्चों को कुछ देर सुलाया जाता बल्कि खाने पीने, उठने बैठने और सोने के सारे आदाब बच्चों को इब्तिदाई जमातों में ही सिखाये जाते।

जहाँ एक ही बाप की मुस्लिम और हिंदू औलादें साथ रहती थीं
महाराजा किशन प्रशाद शाद मेरे नाना थे हालाँकि मैं एक साल ही की थी कि नाना चल बसे लेकिन वालिदा सईदुन्निसा अपने वालिद के बारे में इतना कुछ बताती थीं कि में अपने आप को जज़्बाती तौर पर उनसे बहुत क़रीब समझती हूँ। आज लोग सेक्यूलर ज़म के बारे में बहुत कुछ बोलते बताते रहते हैं लेकिन मैंने नाना की तरह किसी को सेक्यूलर नहीं पाया। मेरे दादा के ख़ानदान के लोग भी महाराजा को चाहते थे। शायद यही वजह है कि दादा ने मेरा नाम उनके (नाना के) तख़ल्लुस शाद को मिला कर शाद बानो रखा। मेरी हिंदू ख़ाला ने भी इस नाम को आगे बढ़ाते हुए एक बेटी का नाम शाद कंवर रखा। महाराजा की सात बीवियां थीं। चार मुसलमान और तीन हिंदू। हिंदू बीवियों के बच्चे राजा कहलाते और मुस्लिम बीवियों के बच्चे नवाब। नाना का ताल्लुक़ राजा टोडरमल से था जो मुग़ल शहनशाह अकबर के नवरत्नों में से एक थे। वो शाद के तख़ल्लुस से शायरी भी करते थे और कहते भी थे कि शाद रहना ही उनका मज़हब है। उन की सभी बीवियों के नाम के साथ महल जोड़ दिया जाता और शाह अली बंडा की देवढ़ी में सभी के अपने महल बने हुए थे। निज़ाम ने अपनी बेटियों की शादी महाराजा के घर में की थी। हुज़ूर निज़ाम मीर उसमान अली ख़ां अकसर शाद की देवढ़ी में आते थे। उनके आने की इत्तिला मिलते ही सभी लोग क़तार में खड़े होजाते। पहली क़तार में बीवियां, दूसरी क़तार में बेटे, बेटियां, दामाद और बहूएं और तीसरी क़तार में बच्चे होते। सभी लोग निज़ाम को नज़राना देते। एक दिन मेरे बड़े भाई कामरान ने अपनी मुट्ठी नहीं खोली तो निज़ाम ने कहा ये बड़ा होकर कंजूस बनेगा। घर का माहौल देख कर आला हज़रत अपने ख़ास अंदाज़ में रान पर हाथ मार कर कहते, वाह महाराजा वाह! बिलकुल फ़र्क़ दिखाई नहीं देता कि कौन हिंदू है और कौन मुसलमान और फिर ढेर सारी तारीफ़ करते।

वालिदा बहुत छोटी थीं कि उनकी माँ का इंतिक़ाल होगया। नानी धीरूबाई रानी ने उनकी परवरिश की। शायद माँ के ना होने की वजह से महाराज उन्हें बहुत मुहब्बत करते थे। वालिदा बताती हैं कि नाना जब निकलते थे तो खुली बग्घी में निकलते थे। उन के दोनों जानिब बग्घी में पैसों की थैलियां रखी होती थीं। जिन्हें वो सड़क पर लोगों की तरफ़ उछालते हुए जाते थे। कभी ऐसा नहीं हुआ कि उन की गाड़ी के सामने आने वाली भीड़ में से किसी को चोट पहुंचे। हज़ारों लोगों की भीड़ पैसे लेने के लिए आती थी। महाराजा के बारे में कहा जाता है कि वो बहुत चौकस रहते थे। एक बार का वाक़िया बताया जाता है कि वो कुछ लिख रहे थे। कोई शख़्स उन के कमरे में दाख़िल हुआ। उन्होंने इस बात का एहसास होने नहीं दिया कि वो उस शख़्स की आमद को जान गए हैं। जैसे ही इस ने तलवार उठाई महाराजा ने तलवार पकड़ी और उसे अपने मुहाफ़िज़ों के हवाले कर दिया।

मशरिक़ और मग़रिब का फ़र्क़
हम जहां रहते थे हब्शीगुड़ा और ननीहाल (देवढ़ी) पुराने शहर के माहौल के दरमियान ज़मीन आसमान का फ़र्क़ था। हब्शीगुड़ा सिकंदराबादी माहौल के क़रीब था। वालिद सिकंदराबाद क्लब के मेंबर थे, उनके जितने दोस्त थे, उनके साथ इंगलैंड में तालीम हासिल करचुके थे। ख़ुसूसन कुछ लोग मुझे याद आते हैं। शमीम जौहरी साहिब जो बाद में एग्रीकल्चर शोबे के जवाईंट डायरेक्टर बने, एक और डाक्टर क़ासिम हुसैन साहब भी काफ़ी मशहूर हुए। ये लोग पूरी तरह मग़रिबी तहज़ीब से मुतास्सिर थे। अंग्रेज़ी तालीम का असर था। देवढ़ी में अलग माहौल था। वहाँ से जब ख़ालाज़ाद, मामूं ज़ाद भाई बहन यहां (हब्शीगुड़ा) आते तो बिलकुल आज़ादाना माहौल पाते। देवढ़ी में पर्दे का माहौल था, लेकिन हमारे पास कोई पर्दा नहीं था। हालाँकि देवढ़ी के जो बच्चे जागीरदार स्कूल जाते थे वो भी अंग्रेज़ी में तालीम हासिल करते। लेकिन घर के माहौल में काफ़ी फ़र्क़ था। वालिद साहब मग़रिबी तर्ज़ के खाने पसंद करते। इन्ही की तरह मिर्च बहुत कम खाते जब कि वालिदा ज़्यादा मिर्च खातीं, उन्हें झिंगे भी बहुत पसंद थे। दोनों का खाना अलग- अलग बनता। वालिदा ने एक ख़ूबसूरत बाग़ भी बनाया था। बताते हैं कि उन्होंने ख़ुद फावड़ा लेकर पौधे लगाए थे। आम, अमरूद, काजू और कई इक़साम के मेवओं के दरख़्त के बाग़ थे। शमीम जौहरी साहब का इस मुआमले में ख़ूब तआवुन हासिल था।

डर और ख़ौफ़ में गुज़रे दिन
पुलिस एक्शण और इस के बाद के कुछ दिन बाद का माहौल डर और ख़ौफ़ भरा रहा। 1948 से कुछ दिन पहले ही हम लोग दादा के साथ हब्शीगुड़ा से हिमायत नगर मुंतक़िल होगए थे। उन्हीं दिनों रज़ाकार तहरीक शुरू होगई थी, चूँकि दादा नेशनलिस्ट ज़हन रखते थे और कांग्रेसियों के साथ थे इस लिए उन्होंने मश्वरा दिया था कि हैदराबाद को इंडियन यूनियन में शामिल होजाना चाहिए। उनकी इस बात से रज़ाकार उन से बहुत नाराज़ थे। मुझे याद है कि जब रज़ाकार हिमायत नगर के पास से मार्च करते थे तो हमारे घर की सारी लाइटें बंद करदी जातीं। हम सब घर के लोग डरे डरे रहते, लेकिन दादा कहते हैं कि डरने की कोई ज़रूरत नहीं। आख़िर ये लोग मारने से ज़्यादा क्या कर सकते हैं। ख़ैर जब पुलिस एक्शण हुआ तो कई सारी तबदीलीयां आएं। में शायद दूसरी जमात में थी। जमात शुरू होने से पहले रोज़ाना जो अह्द किराया जाता इस में पहले निज़ाम का ज़िक्र करते हुए बादशाहत के वफ़ादार होने की बात कही जाती, लेकिन बाद इस अह्द में से निज़ाम और बादशाहत के लफ़्ज़ हटा दिये गये।

एक और वाक़िया मुझे याद है, बल्कि ज़हन पर नक़्श है। इत्तिला मिली कि गांधी जी का क़तल हुआ है। हम लोग स्कूल में थे। हम सब को जमा किया गया और जिन के भाई ब्वॉयज़ सैक्शन में थे, उन्हें भी बलालया गया। बाद में वालिद साहिब अपनी मोटर में हमें घर ले गए। दिल्ली का एक और वाक़िया याद आता है। हैदराबाद के रिश्तेदारों ने डरा दिया था कि दिल्ली में बड़ी तादाद में सरदार रहते हैं। जब वहाँ स्कूल में दाख़िला लिया तो साथी तलबा-ए-का रवैय्या भी डर को बढ़ाने वाला था। लेकिन कुछ ही दिन बाद एक सुख ख़ानदान से दोस्ती हुई तो घरेलू ताल्लुक़ात गहरे हो गए। दरअसल इस सुख ख़ानदान की दो साल की बच्ची फ़सादात में गुम होगई थी। जब फ़सादात ख़त्म हुए तो एक मुस्लिम ख़ानदान ने इस मासूम बच्ची को बड़ी हिफ़ाज़त से सुख ख़ानदान तक पहुंचाया। इस वाक़िया से इस सुख ख़ानदान को मुसलमानों से बड़ी अक़ीदत थी। उन्होंने बताया कि डर और ख़ौफ़ का माहौल इस लिए है कि गांधी जी का क़त्ल कहीं किसी मुसलमान ने किया तो हालात बिगड़ सकते हैं, लेकिन दूसरे दिन ये ख़दशात दूर हो गए।

वालिद बाबर मिर्ज़ा साहिब दक्कन एयरवेज़ में चीफ़ एरोड्रोम ऑफिसर हुए। इसके बाद जब हिंदुस्तान की हुकूमत क़ायम हुई तो वो सिविल एवीएशन में अफ़्सर हुए। यहां से दिल्ली मुंतक़िल हुए। दिल्ली में हैदराबाद के लोग बहुत कम थे। तक़सीम के बिलकुल बाद के हालात थे और दिल्ली के मुसलमानों में भी ख़ौफ़ का माहौल था।
दिल्ली जाते ही जब सरकारी मकान नहीं मिला तो कंटोनमैंट में रहे और कुछ दिन के लिए डॉ. बी आर अंबेडकर के मकान में ठहरे। उनके आउट हाऊस में हमें जगह दी गई। वो बड़े नफ़ीस इंसान थे, हर वक़्त कुछ ना कुछ लिखते पढ़ते रहते। मेरे छोटे भाई इमरान को गोद में लेकर ख़ूब प्यार करते थे। उनकी बेगम भी बहुत अच्छी ख़ातून थीं। अंबेडकर के इंतिक़ाल के बाद भी उनकी बेगम से हमारे अच्छे ताल्लुक़ात रहे। डैडी बाद में डिप्टी डायरेक्टर के ओहदे से रिटायर होकर कैनेडा मुंतक़िल हो गए।

हम दिल्ली में थे, लेकिन हैदराबाद से दूर नहीं थे। साल भर छुट्टियों का इंतिज़ार करते और छुट्टियां मिलते ही वालिदा के साथ हैदराबाद चले आते। रेल से दो दिन तीन रातों का सफ़र होता। साथमें तोशों के साथ एक चूल्हा भी होता। रास्ते में खाना गर्म किया जाता , बच्चों के लिए दूध गर्म किया जाता। जब हैदराबाद आते तो पूरी तरह पिकनिक का माहौल होता। हैदरगुड़ा से टैंक बैंड पर आधे रास्ते तक पैदल चले जाते और तफ़रीह करके वापिस होते। सिकंदराबाद क्लब की मैंबरशिप अभी ख़त्म नहीं की थी। वहां भी चले जाते। गंडीपेट और गोलकुंडा भी इन दिनों तफ़रीह के अहम मुक़ामात हुआ करते थे। इनदिनों फल और मेवे जितने ख़ास-ओ-आम दिल्ली में मिला करते थे हैदराबाद में सिर्फ़ मुअज़्ज़म जाहि मार्किट की पेशावरी दुकान में ही मिला करते। इस लिए मुअज़्ज़म जाही मार्किट आना नहीं भूलते थे। सिकंदराबाद क्लब में बच्चों का सेक्शन अलग था। यहां तैरना और टेनिस खेलना भी ख़ूब होता। शमीम जौहरी साहिब हमें होशरुबा गार्डन ले जाते। ये गार्डन बड़ा ख़ूबसूरत था। शायद इस का नाम बाद में क़दवाई गार्डन रखा गया। इस से लग कर ही एग्रीकल्चर स्कूल हुआ करता था।

हुज़ूर निज़ाम की बेटी की शादी
छुट्टियों के दिनों में एक शादी का वाक़िया याद आता है। निज़ाम की एक बेटी की शादी मेरे मामूं के साथ तै हुई थी। शादी का दिन जैसे ही क़रीब आरहा था। तैय्यारियाँ ज़ोरों पर थीं, लेकिन शादी के दिन हमें इस बात पर ताज्जुब हुआ कि आला हज़रत इस में शरीक नहीं हुए। जैसे ही इत्तिला मिली आला हज़रत आने वाले हैं, हम सब लोग उन से मिलने के लिए तैयार हुए लेकिन इस दरमियान पता चला कि वो बेटी को अपनी मोटर में साथ लेकर आए और छोड़कर चले गए। बाद में क़ाज़ी साहब आये और निकाह पढ़ाया गया। शादी होगई।

बाद में हम मुमानी से मिलने उन के घर गए। जब में शायद पंद्रह बरस की थी। पता चला कि आला हज़रत आने वाले हैं। सब लोग तैयार हुए। ख़वातीन ने कहा कि आला हज़रत बी ए पास हैं। अंग्रेज़ी भी बोलते हैं और मुझे छेड़ने लगे कि वो तुम से ही बात करेंगे क्यों कि तुम को अंग्रेज़ी आती है। लेकिन आला हज़रत उस दिन नहीं आए और मेरी उन से अंग्रेज़ी में बात करने की हसरत रह गई। हैदराबाद में इन दिनों शादीयों में मुशायरे होते, क़व्वालियों के प्रोग्राम होते। शकीला बानो भोपाली भी इन प्रोग्रामों में शामिल होती। उम्दा गाती थीं। लेडी हैदरी कलब में एक शादी में बड़ा शानदार मुशायरा हुआ था। हुज़ूर निज़ाम के घर से लोगों के घर लज़ीज़ खानों के ख़वान भर कर जाते। इनमें ख़ास बात ये थी कि सालन के डिब्बे छोटे होते थे। बारीक और ख़ुशबूदार चावल का इस्तिमाल होता था। मीठा लाज़िमी तौर पर रखा जाता।

शादी के बाद जारी रही तालीम
7 मैंने इंटरमीडीयेट किया था कि वालिदा ने मेरी शादी की बात चलाई। वालिद साहिब चाहते थे कि में पहले तालीम पूरी करलूं और शादी बाद में हो, लेकिन वालिदा ने शादी पर ज़ोर दिया। शादी के बाद हम दोनों अमेरिका चले गए। उन्होंने (शौहर) एम एससी में दाख़िला लिया और मैंने बी ए में। जब वापिस हुए तो उन्हें पहले दिल्ली कॉलिज और बाद अलीगढ़ में मुलाज़िमत मिल गई। में चाहती थी कि एम ए करूं। मैंने दिल्ली में हॉस्टल में रह कर एम ए की तालीम पूरी की और फिर मुझे भी अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में मुलाज़िमत मिल गई। इस तरह शादी के पाँच साल बाद तक भी तालीम का सिलसिला चलता रहा।