हैदराबाद जो कल था…सय्यद तुराबुल हसन

साबिक़ आई ए एस ओहदेदार तुराब उल-हसन साहब हैदराबाद के एक मशहूर-ओ-मुअज़्ज़िज़ ख़ानदान से ताल्लुक़ रखते हैं। एक ओहदेदार के तौर पर उन्होंने आंध्र प्रदेश के मुख़्तलिफ़ शोबों में नुमायां ख़िदमात अंजाम दी हैं। गुज़िशता साठ , सत्तर बरसों में बदलते हैदराबाद और उसकी तहज़ीब को उन्होंने बहुत क़रीब से देखा है। उनके वालिद ग़ुलाम पन्जतन साहब साबिक़ हैदराबाद रियासत में जज के ओहदे पर फ़ाइज़ रहे। बड़े भाई आबिद हुसैन साहब (आई ए एस) अमरीका में हिंदुस्तान के सफ़ीर रहे। तुराब साहब की अपनी शख़्सियत भी काफ़ी दिलचस्प है। अदब का आला ज़ौक़ रखते हैं। शहर की अदबी और सक़ाफ़्ती महफ़िलों में ख़ाह वो किसी भी हलक़े या ज़बान से ताल्लुक़ रखती हों, तुराब उल-हसन नज़र आ ही जाते हैं। उनसे बातचीत के दौरान जहाँ हैदराबाद की अदबी , तहज़ीबी-ओ-समाजी ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ पहलू सामने आते हैं, वहीं एक ख़ास हैदराबादियत का चेहरा खुलकर सामने आता है। उनसे गुफ़्तगु का ख़ुलासा यहाँ पेश है।

दरगाह हज़रत तुराब उल-हक़ का वाक़िया
मेरा बचपन आबिड्स के आस पास बीता। आबिद मंज़िल हमारा ख़ानदानी मकान हुआ करता था। मेरे सारे दोस्त भी यहीं थे। डाक्टरों ने मेरे बारे में कह दिया था कि मैं ज़्यादा दिन तक ज़िंदा नहीं रहूँगा। इसलिए मुझे खेलने कूदने की पूरी आज़ादी थी। जब हम मरने को तैयार थे तो भला पढ़ने की फ़िक्र क्योंकर हो। इसी दौरान एक अजीब वाक़िया पेश आया। किसी ने कहा कि परभणी में तुराब पीर की दरगाह है (हज़रत तुराब उल-हक़ शाह) वहाँ ले जाएँ तो बच्चा ठीक हो जाएगा। वालिदा को मज्लिसों और दरगाहों पर जाने का बहुत शौक़ था, लेकिन जब वो परभणी गईं और देखा कि हज़रत की दरगाह पर एक कुत्ता बैठा हुआ है, वो वापिस लौट आईं। मेरी हालत और ख़राब होगई। डाक्टरों ने भी जवाब दे दिया। वालिदा को कुछ ख़्याल हुआ और मुझे लेकर फिर दरगाह शरीफ़ गईं। रो रो कर माफ़ी मांगी। मेरा नाम भी उन्हींके नाम पर रखा गया। ख़ुदा का शुक्र हुआ कि इस के बाद मुझे किसी दवा की ज़रूरत नहीं पड़ी। लगता है में बुज़ुर्गों की दुवाओं पर ही ज़िंदा हूँ।

ग़ुलाम पन्जतन साहब की ख़ुद्दारी
वालिद ग़ुलाम पन्जतन साहब बड़े ख़ुद्दार इंसान थे। उसी ख़ुद्दारी की वजह से उन्होंने कोठियां छोड़ीं, माँ बाप की जायदाद को ठुकराया , नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। ख़ानदान की मर्ज़ी से हट कर शादी की तो उन्होंने दिल में ठान लिया था कि ज़रूरत पड़ी तो मस्जिद में रह लेंगे, लेकिन सर नहीं झुकाएंगे। अपने बच्चों को भी यही तालीम दी कि रऊसा के सामने झुकना नहीं, बुज़ुर्ग हों तो उनकी ताज़ीम ज़रूर करो। चुनांचे जिस दिन उन्हें हाईकोर्ट के जज के तौर पर तरक़्क़ी के अहकाम जारी हुए, उसी दिन उन्होंने इस्तीफ़ा भी दे दिया। वाक़िया कुछ यूं है कि जो साहब आर्डर लेकर आए थे उन्होंने पाया कि वो (ग़ुलाम पन्जतन) इजलास पर नहीं हैं। मुलाज़िम ने बताया कि दोपहर की नमाज़ के वक़्त इजलास पर नहीं होते। दूसरे कमरे में नमाज़ पढ़ते हैं। जजी के आर्डर देने से पहले उन्होंने शर्त रखी कि वो यहां नमाज़ नहीं पड़ेंगे, कहीं और जा कर पड़ेंगे। वालिद साहिब को ये मंज़ूर नहीं था उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया। एक साहब से क़र्ज़ ले रखा था। लोगों ने क़र्ज़ देने वाले को उकसाया और वो सुबह सुबह ही दरवाज़े पर आ धमका। वालिद साहिब ने मकान मआ साज़-ओ-सामान , मोटर फ़रोख़त कर दिया और किराये के घर में रहने के लिए तैयार होगए। वालिदा ने बच्चों से कहा कि दो दो जोड़े कपड़ों के साथ घर से निकलना है। लेकिन वालिद साहब के दोस्त हसन अली ख़ानसाहब आए और हम सब को अपने घर ले गए। ये वही शख़्स थे जो इंगलैंड से पढ़ कर आए थे। सूट पहनते थे। अंग्रेज़ी के इलावा दूसरी ज़बान में एक लफ़्ज़ भी नहीं बोलते थे। लेकिन रमज़ान के पूरे महीने में सूट और अंग्रेज़ी दोनों को हाथ और ज़बान नहीं लगाते थे।

अशर्फ़ उल-मदारिस और नेक काम
उन दिनों रईसों के बच्चे मदरसा आलिया, सेंट जॉर्जिस स्कूल या जागीरदार स्कूल में पढ़ा करते थे। वालिद साहिब ने हमें अशर्फ़ुल-मदारिस में दाख़िला दिलाया। चार साल यहां चटाई पर बैठ कर तालीम हासिल की। इस मदरसे के क़ियाम के पीछे भी एक दिलचस्प वाक़िया है। जिन्होंने इसको क़ायम किया था वो कभी तालुकदार थे। बताया जाता है कि एक दिन तहसीलदार उनसे मिलने आए तो ये नमाज़ पढ़ रहे थे। तहसीलदार की नाराज़गी पर उन्होंने कहा कि में अल्लाह के हुज़ूर में था, नमाज़ ख़त्म होते ही चला आया। इस के बावजूद तहसीलदार चुप ना हुए तो उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया और अशर्फ़ुल-मदारिस क़ायम किया। अशर्फ़ुल-मदारिस के बच्चों पर एक शर्त थी कि वो रोज़ाना कोई एक नेक काम करें। बच्चे हर दिन यही सोचते थे कि आज क्या नेक काम करना है? क्यों कि मदरसा जाते ही पूछा जाता। कोई फ़क़ीर को खाना खिलाता, ज़रूरतमंद की मदद की जाती। कोई कुछ दे नहीं पाता तो किसी को पढ़ा देना ही उस दिन के नेक काम में शामिल होता। यहां से हमें चादर घाट स्कूल में दाख़िल कराया गया। चादरघाट स्कूल उस वक़्त अच्छे स्कूलों में शुमार किया जाता था। तालीमी निज़ाम भी बहुत अच्छा था। अख़लाक़ियात और दीनियात की तालीम दी जाती। तालीमी निज़ाम में बिगाड़ के लिए पण्डित नेहरू ज़िम्मेदार हैं। उन्होंने मज़हबी तालीम को सरकारी निसाब से हटाने के बहाने दीनियात और अख़लाक़ियात की तालीम ख़त्म करदी। उनकी एक ग़लती, बाद के मुआशिरे की कई ग़लतियों के लिए ज़िम्मेदार बनी। कई बच्चे, जिनकी तर्बीयत घर में अच्छी नहीं होती तो वो दीनियात और अख़लाक़ीयात की वजह से सुधर जाते थे। अफ़सोस कि वो सिलसिला बाक़ी ना रह सका।

अलीगढ़ में हैदराबाद
हैदराबादी जहाँ जाते वहां अपना अलग मुक़ाम बनाते। हैदराबाद से अलीगढ़ जाने वालों का भी यही हाल था। वो अपने साथ एक बावर्ची और एक मुलाज़िम ले जाते। बड़ी शान से रहते। हैदराबादी रईसों और नवाबों के बच्चे हॉस्टल में नहीं रहते थे। वो जहाँ रहते थे वहां सोफे और तख़्त बिछे रहते थे। मैं जब अलीगढ़ गया तो मेरे साथ ये सब कुछ नहीं था। और मुझे ये भी कहा गया था कि नवाब ज़ादों के साथ नहीं रहना है। यहां पढ़ाई के साथ साथ अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के लिए रुपया जमा करने की ज़िम्मेदारी दी गई। इसके लिए तलबा के कई ग्रुप थे। इस काम पर हम अफ़्ग़ानिस्तान तक गए। ये बात भी बड़ी मशहूर थी कि अलीगढ़ के तलबा ट्रेन में टिकट नहीं लेते थे। यूनीवर्सिटी में पढ़ने वालों का ग्रुप अलग था और खेल कूद में माहिर तलबा अलग रहते थे। एक ग्रुप आराम पसंद और तफ़रीह करने का शौक़ीन भी था। हाकी और क्रिकेट में यहां की टीमों का कोई जवाब नहीं था। हालाँकि कश्मीर और पंजाब से भी लोग वहां आते लेकिन हैदराबादी शेरवानी में मलबूस तलबा अलग पहचाने जाते। सोने चांदी और अशर्फ़ियों के सात बटनों वाली ख़ास शेरवानी ज़ेब-ए-तन किए रहते थे।

हैदराबादी तहज़ीब में रचे बसे लोग
हैदराबादी तहज़ीब को फ़रोग़ देने में अमीर ग़रीब सब का अहम रोल था। किसी के घर कोई मेहमान आए और उसे बगै़र कुछ खिलाए भेज दें ऐसा कुछ नहीं होता। जो भी रूखी सूखी होती मेहमान के सामने पेश की जाती। कई ख़ानदान थे जो अपनी ज़ियाफ़त के लिए मशहूर थे
प्रोफ़ेसर आग़ा हैदर हसन के घर भला कौन नहीं आया। पण्डित नेहरू , सरोजनी नायडू , निज़ाम की औलादें , सब उन के घर गईं। बंजारा हिल्ज़ में ख़ास वज़ा का दो मंज़िला मकान आज म्यूज़ियम बना हुआ है। मुईनुद्दौला खेल के शौक़ीन थे खिलाड़ियों की दिल खोल कर मदद करते। क्रिकेट खेलने वाले तो बच्चों से लेकर बड़ों तक उनके पास से ख़ाली नहीं लौटते। यही वजह है कि आज भी उनके नाम के खेल के मुक़ाबले होते हैं। महाराजा किशन प्रशाद ग़रीबों और ज़रूरतमंदों में दौलत लुटाने के लिए शौहरत रखते थे। आला हज़रत जब नज़राना लेते लेते थक जाते तो कहते कि महाराजा को दो, वो मेरा नायब है। और महाराजा दूसरे दिन ये दौलत रास्ते के दोनों जानिब जमा होने वाले ग़रीब लोगों में खुले हाथों से तक़सीम कर देते.. जब उनके पास दौलत ना रही तो उन्होंने बाहर निकलना छोड़ दिया।
सालार जंग जिनके बारे में मशहूर था कि उनके बहुत कम दोस्त थे। बहुत क़ीमती चीज़ें अपने पास रखते थे। अपने घर इस लिए नहीं बुलाते कि कोई अगर कुछ मांग ले तो वो इन्कार नहीं कर सकते थे।

आंध्रा कल्चर ने बिगाड़ी हैदराबादी तहज़ीब
मुल्क की तक़सीम और पुलिस एक्शण के बाद के हालात ने हैदराबाद को बहुत नुक़्सान पहुंचाया ख़ुसूसन हुकूमत का निज़ाम और सरकारी महिकमों में जो तहज़ीब थी उसको ख़त्म कर दिया गया। बड़ी तादाद में मुसलमान ओहदेदारों ने मुल्क छोड़ दिया। कुछ को जेल हुई और जो कुछ बचे थे उन्हें आंध्रा के इलाक़ों में भेज दिया गया। मुझे याद है हैदराबाद में हमारे दफ़्तर में अगर कोई अर्ज़ी लेकर आता तो हम खड़े होते और उसको सामने कुर्सी पर बैठने की गुज़ारिश करते। हम ये समझते थे कि हम से उसको शिकायत है इस लिए वो यहां आया है। जबकि आंध्रा में तस्वीर बिलकुल अलग थी वहां सिर्फ़ ओहदेदार की ही कुर्सी रहती और आने वाला इस के सामने खड़ा होता। वो शिकायत करने वाले को ग़ुलाम समझते थे। दफ़्तरों में सोफे का तो नाम-ओ-निशान नहीं था बल्कि बाथरूम भी नहीं थे। जब वहां से ओहदेदार हैदराबाद आए तो उन्होंने यहाँ की हालत भी बिगाड़ दी। दफ़्तर आने वालों के साथ गुलामों जैसा सुलूक किया जाता। ओहदेदारों के सामने की कुर्सियां हटादी गईं। उन्होंने हैदराबाद की तहज़ीब को बिगाड़ने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी। पहले दफ़्तरों में हैदराबादियत को ख़त्म किया और बाद में उर्दू ज़बान को भी। हैदराबाद की तहज़ीब जब बदलने लगी तो राजा महाराजाओं ने भी हैदराबाद छोड़ा और मुंबई में जा बसे। कुछ ने तो मुल्क ही छोड़ दिया। दूसरी जानिब हैदराबाद के ओहदेदारों ने आंध्रा को नई तहज़ीब दी वहाँ के नए शहरों में हैदराबाद सांस ले रहा है।