हैदराबाद जो कल था

हैदराबाद जो कल था के सिलसिले में अब तक जिन शख़्सियातों से मुलाक़ातें की गई हैं इनमें कई बुज़ुर्ग और काबिल-ए-क़दर हस्तियां शामिल हैं। क़दीम हैदराबाद की समाजी ज़िंदगी, ख़ुशहाली, तामीरी सरगर्मियां, सहाफ़त, भाई चारा, तालीमी तरक़्क़ी, सियासी हालात पर गुफ़्तगु हुई है, लेकिन अदब-ओ-शेर के बारे में बातचीत कम हुई है।

मुज़्तर मजाज़ का शुमार इस वक़्त हैदराबाद के सीनियर शायरों में होता है। गो देखने में वो अभी भी जवान और चाक़-ओ-चौबंद लगते हैं लेकिन उनकी उम्र उनासी बरस की है। उनकी शायरी के तीन मजमुए मौसमे संग, इक सुख़न और इक दाग़-ए-निहां शाये होचुके हैं। उनकी कुल्लियात तिलसमे मजाज़ अभी हाल में मंज़रे आम पर आई। उर्दू के जदीद शायरों में मुज़्तर अहम मुक़ाम रखते हैं। मुज़्तर साहिब हिंदुस्तान के कई अहम मुशाविरों में शिरकत करचुके हैं। बैरूनी ममालिक जैसे बर्तानिया , अमरीका और ख़लीजी ममालिक के मुशायरों में भी उन के कलाम को निहायत पसंद किया गया है।

मुज़्तर का अहम कारनामा इक़बाल के फ़ारसी कलाम का मंजूम उर्दू तर्जुमा भी है। आप ने जावेद नामा, पयाम-ए-मशरिक, अरमुगाँ-ए-हिजाज़ और तुलूए मशरिक़ (पस चह बायद कुरद ए अक़्वाम-ए-शिर्क़) और चंद फ़ारसी मंज़ूमात का निहायत उम्दा मंजूम तर्जुमा किया है जो कई बरसों की मेहनत का नतीजा है। अभी हाल में ये तर्जुमे सदाए दिलकुशा के नाम से कुल्लियात की शक्ल में शाये हुए हैं। ग़ालिब की बाअज़ ग़ज़लों का भी उर्दू में मंजूम तर्जुमा किया है।

उनके साथ बातचीत के इक्तेबासात यहा पेश हैं।
मेरा ख़ानदानी ताल्लुक़ बुलंदशहर (यू पी ) से है लेकिन पैदाइश हैदराबाद की है और ख़ालिस हैदराबादी हूँ । नवाब आफ़ छतारी का तक़र्रुर जब रियासत-ए-हैदराबाद दक्कन में हुआ तो वो यहां आते हुए अपने मुर्शिद को भी साथ लाए। उन के मुर्शिद के साथ उन के दो भांजे भी हैदराबाद आए । उन्ही दो हज़रात में एक साहब मेरे वालिद थे । उन्हों ने यहां महकमा-ए-पुलिस की मुलाज़िमत इख़तियार की , बाद में एक प्राईवेट मुलाज़िमत के सिलसिले में वो बीदर मुंतक़िल होगए। मेरी इबतिदाई तालीम घर पर हुई । घर पर अंग्रेज़ी और रियाज़ी पर तवज्जो दी गई। बीदर के स्कूल में दाख़िले के लिए ले जाया गया तो स्कूल के अंग्रेज़ हेडमास्टर ने अंग्रेज़ी की एक किताब पढ़वाकर सुनी। मेरी अंग्रे़जी रवानी से अंग्रेज़ हेडमास्टर ख़ुश हुए और पांचवीं जमात में दाख़िला दे दिया लेकिन स्कूल में शिरकत के देढ़ माह बाद ही बीदर में ताऊन की वबा-ए-फैली और आबादी को शहर से बाहर आरिज़ी कैम्पों में पनाहगुज़ीं कर दिया गया। वालिद अपने अफ़राद-ए-ख़ानदान को लेकर हैदराबाद आगए और यहां 1945 में चंचलगुड़ा हाई स्कूल में शरीक करा दिया गया । उस वक़्त चंचलगुड़ा स्कूल के हेडमास्टर अबदूल्लतीफ़ साहिब थे । फ़ानी बदायुनी भी इस स्कूल के सदर रह चुके थे। उस ज़माने में सरकारी मदारिस का मेयार बहुत अच्छा था। असातिज़ा काबिल थे। हर तालिब-ए-इल्म पर पूरी तवज्जे देते थे और उस की ज़हनी नशो-ओ-नुमा पर ख़ुसूसी तवज्जा देते थे। खेल कूद के साथ तक़रीरी और तहरीरी मुक़ाबले हुआ करते थे। ख़ुद फ़ानी साहिब के नाम से एक तक़रीरी मुक़ाबला और रोलिंग ट्रॉफ़ी का एहतिमाम था। इन तहरीरी और तक़रीरी मुक़ाबलों में शहर के दीगर मदारिस के तलबा-ए-हिस्सा लेते थे। तक़रीरी और तहरीरी मुक़ाबलों के उनवानात मुक़ाबलों से आधा घंटा पहले दिए जाते थे। जजस के तौर पर शहर की काबिल शख़्सियतों को मदऊ किया जाता था। मैट्रिक के इमतिहान में मुझे हर मज़मून में अच्छे निशानात आए लेकिन रियाज़ी ने लुटिया डुबो दी। इस के बाद 1951 में आसफ़िया हाई स्कूल से मैट्रिक का इमतिहान कामयाब किया। मैट्रिक के बाद चादरघाट कॉलेज में दाख़िला लिया। यहां उर्दू के सच्चे ख़ादिम, अदीब और मुहक़्क़िक़ मुहीयुद्दीन कादरी ज़ोर प्रिंसिपल थे। क़दीम हैदराबाद में चादरघाट कॉलेज मुमताज़ मुक़ाम रखता था। मशहूर शायर अबदुलक़य्यूम ख़ां बाक़ी उर्दू के उस्ताद थे। बाक़ी साहिब बहुत अच्छे शेअर कहते थे। वो सितार भी बहुत अच्छा बजाते थे। अबदुलक़य्यूम ख़ां बाक़ी ने मेरे शेरी ज़ौक़ को संवारने में अहम रोल अदा क्या। बाक़ी साहिब की तरग़ीब पर मैंने इक़बाल और फ़ानी के कलाम का मुताला किया। इक़बाल के पास रजाईयत का अंसर ग़ालिब है और फ़ानी यास अंगेज़ शायरी के सतून हैं।

हैदराबाद की शेअरी महफ़िलों की अव्वलीन याद जो दिल में अब तक ताज़ा है 1954 का वो यादगार मुशायरा है जिस में जोश मलीहाबादी सरदार जाफरी, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुलतान पूरी, सहाब क़ज़लबाश, सय्यदा अख़तर, मख़दूम , शाहिद सिद्दीक़ी, वहीद अख़तर, सुलेमान अरीब , शाज़ तमकनत , क़मर साहिरी और कई दूसरे शोरा ने शिरकत की थी। स्टान्ली स्कूल का वसीअ-ओ-अरीज़ दालान सामईन से खचाखच भरा हुआ था। जोश साहिब, आलमे सरमस्ती में थे और इसी आलम में उन्होंने अपनी नज़म हाय जवानी हाय ज़माने, सुनाई थी । बाज़ ख़वातीन इस नज़्म के दौरान उठ कर चली गई थीं और बादअज़ां अख़बारात में मुरासले भी शाये हुए थे। इस मुशायरे के बाद दूसरा यादगार मुशायरा 1955 में लेडी हैदरी क्लब में हुआ था जिस में हज़रत जिगर मुरादाबादी के इलावा हैदराबाद और बैरून हैदराबाद के कई अहम शोरा-शरीक थे । जिगर साहब ने दो ग़ज़लें एक साथ अपने दिल नशीन तरन्नुम में सुनाई थीं।
दुनिया के सितम याद ना अपनी ही वफ़ा याद और
फ़िक्र जमील ख़ाब-ए-परीशाँ है आजकल
जिगर साहब 1956 में आख़िरी बार हैदराबाद आए थे । एक मुशायरा अनवार उल-उलूम स्कूल में भी हुआ था । इस मुशायरे में ख़ुद मैंने भी अपना कलाम सुनाया था। मई 1956 में जिगर साहिब आए थे और जुलाई के आख़िर तक यहीं मुक़ीम रहे, इन का क़ियाम तुरुप बाज़ार में ब्राज़ील आप्टीकल के मालिक एजाज़ुद्दीन साहॉब के मकान पर था। जब जिगर साहब की वापसी का वक़्त क़रीब आया तो बाअज़ प्रुरस्ताराने जिगर ने तहरीक की कि एक मुशायरा ऐसा किया जाये जिस की आमदनी उन की ख़िदमत में बतौर कैसा-ए-ज़र पेश की जाये। मजरूह सुलतानपुरी, ख़ुमार बारह बन्कवी और शकील बदायूनी से रब्त पैदा किया गया और उन शोरा ने इस अज़ीम शायर से अपनी अक़ीदत के इज़हार के तौर पर बिला मुआवज़ा, अपने ख़र्च पर शरीक होना मंज़ूर कर लिया। बारिश के दिन थे। नुमाइश मैदान के एक वसीअ हाल में ये शानदार मुशायरा हुआ था जिस में जिगर साहब ने अपनी एक ताज़ा ग़ज़ल सुनाई थी जिस का मतला था।
मेरे शोर-ए-रंगीं मरे क़्लब पारे
तेरा ही तसर्रुफ़ तेरे ही इशारे
इस मुशायरे में शकील बदायूनी अपने मूसीक़ी रेज़ तरन्नुम की वज्ह से बहुत कामयाब रहे थे। तुरुप बाज़ार के मकान में जिगर साहब के तवील क़ियाम की वज्ह से वहां एक सड़क को जिगर रोड का नाम दिया गया था। पता नहीं अभी वो तख़्ती वहां लगी हुई है या नहीं। हैदराबाद में कई मशहूर अदीब शायर और उर्दू के ख़िदमतगुज़ार मौजूद थे। शोरा में हज़रत अली अख़तर और उनके फ़र्ज़ंद नज़र हैदराबादी, नज्म आफ़ंदी और हज़रत अमजद हैदराबादी थे जिन की रूबाईआत आज भी मशअले राह हैं। यूनिवर्सिटी के नामवर तलबा में मख़दूम, आलम ख़ून्दमीरी, प्रो. सय्यद सिराजुद्दीन (माहिर इक़बालियात), सिकन्दर अली वज्द और बहुत से नाम शामिल हैं। साहिबज़ादा मैकश भी अच्छे शायर थे, लेकिन उनका इंतिक़ाल कमउमरी में होगया था। मख़दूम के साथियों में अशफ़ाक़ हुसैन और मीर हसन बहुत मशहूर हुए थे। अशफ़ाक़ हुसैन रेडियो से वाबस्ता थे। इक़बाल पर उनकी किताब बहुत मशहूर है। मीर हसन और मख़दूम ने मिलकर ड्रामा होश के नाख़ुन लिखा था जो बहुत मक़बूल हुआ था। उनलोगों को बाबाए उर्दू मौलवी अबदुलहक़ की शागिर्दी का शरफ़ भी हासिल था। मिर्ज़ा ज़फ़र उल-हसन ने भी रेडियो की मुलाज़िमत से अपने कैरीयर की शुरूआत की थी और जलसों की रनिंग कॉमेंट्री बहुत अच्छी करते थे। बाद में वो पाकिस्तान चले गए थे।

फ़ैज़ और मख़दूम पर उन की किताबें यादगार हैं। उस्मानिया यूनीवर्सिटी की नामवर हस्तियों में डा. रज़ीयुद्दीन सिद्दीक़ी, ख़लीफ़ा अबदुलहकीम , हारून ख़ां सरदानी , प्रो. वहीदुद्दीन सलीम, प्रो. हुसैन अली ख़ां, प्रो. दोराय स्वामी, आग़ा हैदर हुस्न मिर्ज़ा, प्रो. हबीबुर्रहमान, मुहीयुद्दीन कादरी ज़ोर, अबदुलक़ादिर सरवरी के नाम कभी भुलाये नहीं जा सकते। उन लोगों ने दरस-ओ-तदरीस के इलावा दारालतरजमा के लिए भी ग़ैरमामूली ख़िदमात अंजाम दीं। प्रो. जाफ़र हुस्न ने उर्दू इमला के लिए काम किया । मिर्ज़ा शुकूर बैग मज़ाहिया शायरी के लिए शोहरत रखते थे। बाद में उनकी शोहरत नातगो शायर की हैसियत से और बढ़ गई थी। लतीफ़ साजिद , यूसुफ़ नाज़िम कंवल प्रशाद कंवल के नाम भी अहम हैं।

हैदराबाद के जिस अदीब ने अपने मुनफ़रिद स्टाइल से सारी उर्दू दुनिया को चौंका दिया था। वो इबराहीम जलीस थे। उन्ही के दो भाई महबूब हुसैन जिगर और मुज्तबा हुसैन अपने अपने मैदान में यकता निकले। महबूब हुसैन जिगर ने सियासत के ज़रिये सहाफ़त की जो ख़िदमत अंजाम दी उस की याद कभी भुलाई नहीं जा सकती। उनके छोटे भाई मुज्तबा हुसैन ने तंज़-ओ-मिज़ाह में जो मुक़ाम पैदा किया और आलमगीर शौहरत हासिल की इस से हर एक वाक़िफ़ है।

ज़ीनत साजिदा ने अपने शगुफ़्ता तर्ज़ तहरीर और बरजसतागोई से हर एक को मुतास्सिर किया । सदर शोबा ए उर्दू की हैसियत से डा. रफ़ीया सुलताना ने कई तलबा और तालिबात की रहनुमाई की। हैदराबाद के जिन डाक्टरों ने बेशुमार मायूसु मरीज़ों की बेलौस ख़िदमत की, उनमें डा. बहादुर ख़ां , डाक्टर अबुलहसन, डाक्टर बंकट चन्द्र , डा. मुस्तफा अली ज़ैदी , डा. आर आर सक्सेना इलहाम, डा.सय्यद अबदुलमनान के नाम आज भी शुक्र गुज़ार मरीज़ों के दिलों पर नक़्श हैं।

प्रो. यूसुफ़ हुसैन ख़ां का मुताला ए इक़बाल बेमिसाल था । उनकी किताब रोज इक़बाल संग-ए-मील की हैसियत रखती है। सन 60 की दहाई में थ्री एस एस होटल आबिड्स के वसीअ मैदान में यौम-ए-इक़बाल का जलसा हुआ था । उन दिनों प्रो. आलम ख़ोन्दमीरी इक़बाल के क़ाइल नहीं थे। उन्होंने इस जलसे में इक़बाल के कलाम पर एतराज़ात किए थे। प्रो. यूसुफ़ हुसैन ख़ां ने जवाबी तक़रीर की और आलम साहब के एतराज़ात का निहायत मुदल्लिल और वाज़िह जवाब दिय। शायद इसके बाद आलम साहब ने इक़बाल का अज़ सर-ए-नौ मुताला किया और इक़बाल के शैदाई होगए । इक़बाल पर उनकी किताब निहायत उम्दा है। वो अर्से तक इक़बाल एकेडेमी के सदर भी रहे। इक़बालियात के सिलसिले में एक और मुहतरम हस्ती ग़ुलाम दस्तगीर रशीद साहब की भी थी जिन्हों ने इक़बाल के फ़ारसी और उर्दू कलाम पर बहुत कुछ लिखा है।
क़दीम हैदराबाद के जिन दो शोरा ने हिंदुस्तान गीर शौहरत हासिल की इन में मख़दूम और सिकन्दर अली वज्द के नाम ज़हन में आते हैं। बाद के शोरा में शाज़ तमकनत और वहीद अख़तर मशहूर हुए। ख़ुरशीद अहमद जामी और अज़ीज़ कैसी ने भी अपनी इन्फ़िरादियत से नाम पैदा किया। 1952 में जब पहले इंतिख़ाबात हुए तो मख़दूम भी कम्यूनिस्ट पार्टी की तरफ़ से उम्मीदवार थे।

इंतिख़ाबी जलसों में लोग मख़दूम से तक़रीर के बाद कलाम की फ़र्माइश करते थे। मख़दूम अपने बेमिसाल तरन्नुम में अक्सर अपनी नज़्म क़ैद सुनाते थे। ये वो दिन थे जब मख़दूम ने अभी ग़ज़लें कहना शुरू नहीं की थीं। मख़दूम आज़ाद नज़्म को भी ऐसे दिल नशीन अंदाज़ से सुनाते थे कि बेइख़्तयार अश अश करने को जी चाहता था। मख़दूम की रिहाई के बाद पहला जलसा प्रताप गीर जी की कोठी में हुआ था जिस में अली सरदार जाफरी और इस्मत चुग़्ताई भी शरीक थे। रियासतों की तक़सीम के बाद सिकन्दर अली वज्द महाराष्ट्रा मुंतक़िल होगए थे। वज्द का तरन्नुम भी मुनफ़रिद था। लोग आम तौर से उन की नज़्म अजन्ता की फ़र्माइश करते थे । वज्द सराकरी ओहदेदार थे और बहुत मुहतात आदमी थे। जिन दिनों मख़दूम अन्डर ग्राउंड थे तो ए क बार मख़दूम एक देहाती के भेस में वज्द के घर पहुंच गए थे। वज्द बहुत घबराए और जल्दी से मख़दूम को रुख़स्त कर दिया।