ख़ाना – आबादी ……. साहिर लुधियानवी

तराने गूँज उठे हैं फ़ज़ा में शादियानों के
हवा है इतर-आगीं , ज़र्रा ज़र्रा मुस्कुराता है

मगर दूर, एक अफ़सुर्दा मकाँ में सर्द बिस्तर पर
कोई दिल है कि हर आहट पे यूं ही चौंक जाता है
मेरी आँखों में आंसू आ गए ‘नादीदा आखों” के
मेरे दिल में कोई ग़मगीन नग़मा सरसराता है

ये रस्म ए इंकिता ए एहदे उल्फ़त , ये हयात ए नौ
मुहब्बत रो रही है और तमद्दुन मुस्कुराता है
ये शादी ख़ाना – आबादी हो, मेरे मोहतरिम भाई
मुबारिक कह नहीं सकता, मेरा दिल काँप जाता है