फ़लस्तीनीयों का यौम उल-अर्ज़

इसराईली फ़ौज के हाथों फ़लस्तीनीयों पर मज़ालिम के मुनाज़िर देख कर आलम इस्लाम का ख़ून खौलने लगता है। लेकिन ये ख़ून इसराईली जबर के आगे बहुत जल्द ही सर्द पड़ जाये तो इस तरह के ख़ून खौलने से कोई फ़ायदा नहीं। यौम उल-अर्ज़ या आलमी मार्च बराए येरूशलम के ज़रीया सारी दुनिया में इसराईली जा बरीयत, फ़लस्तीन, बैत-उल-मुक़द्दस पर ग़ासिबाना क़ब्ज़ा के ख़िलाफ़ अपना एहतिजाज दर्ज कराने वाले अफ़राद को ये अह्द करते हुए देखा गया कि फ़लस्तीन की आज़ादी तक जद्द-ओ-जहद जारी रखी जाएगी।

बरबरीयत और तशद्दुद के बाद अमेरीका का हसब-ए-मामूल तर्ज़-ए-अमल यही होता है कि वो एक तरफ़ दुनियाए अमन को अमन से रहने सब्र-ओ-तहम्मुल का मुज़ाहरा करने का मश्वरा देता है, दूसरी तरफ़ इसराईली जारहीयत पर वो तन्क़ीदी लफ़्ज़ कहने से घबराता है। जुमा के दिन फ़लस्तीनीयों ने नारा हक़ बुलंद करते हुए मस्जिद ए अक़्सा की आज़ादी के लिए एहतिजाज किया तो इसराईली फ़ौज ने उन पर फायरिंग कर दी।

आँसू गैस शॅल बरसाए, घोड़ों के टापों तले रौंद दिया। बच्चे, बूढ़े, ख्वातीन इसराईली फ़ोर्स के ज़ुल्म को सहते रहे और अपने मुल़्क की आज़ादी के लिए अपनी जद्द-ओ-जहद को जारी रखा। फ़लस्तीनीयों से इज़हार यगानगत करते हुए आलम अरब बल्कि आलम इंसानियत ने भी एहतिजाजी मुज़ाहिरे किए। दुनिया भर से आने वाले आलमी मार्च बराए यरूशलम के शुरका ने इसराईली ज़ुलम-ओ-ज़्यादती को फ़ौरी रोक देने और फ़लस्तीनीयों की क़ब्ज़ा कर्दा अराज़ी उन के हवाले करने पर ज़ोर दिया।

इस के बरअक्स सारी दुनिया की बड़ी ताक़तें ख़ासकर इंसानी हुक़ूक़ के इदारे और अक़वाम-ए-मुत्तहिदा को इसराईली ज़्यादती नज़र नहीं आतीं। सूरत ये है कि मफ़ाद-ए-आम्मा के ये इदारे अपने मुफ़ादात बल्कि यहूदीयों के फ़ायदा के लिए काम करते हैं। इनका किरदार रूबा ज़वाल है। इंसानी हुक़ूक़ के ये इदारे फ़क़त इसराईली निज़ाम बद के आगे बेबस हो गए हैं।

इन पर इसराईल ही ताक़तवर और ग़ालिब है। अमेरीका और इसके दोस्त मुल्कों को दीगर अरब मुल्कों में इंसानी हुक़ूक़ का ख़्याल रहता है। शाम में बशर अल असद की फ़ौज के मज़ालिम के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने और आलमी मुदाख़िलत के लिए ज़ोर दिया जाता है जबकि इसराईल की जानिब से फ़लस्तीनीयों पर की जाने वाली ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती, निहत्ते, बेसहारा, ग़रीब और कमज़ोर फ़लस्तीनीयों पर फ़ौजी ताक़त के इस्तेमाल के ज़रीया इंसानियत सोज़ वाक़्यात दिखाई नहीं देते।

मशरिक़ वुसता में दिन ब दिन हालात बहुत ख़राब होते जा रहे हैं लेकिन इसके बावजूद फ़लस्तीनीयों के अंदर मायूसी नहीं फैली, ये बहादुर क़ौम अपने हक़ के लिए जान की बाज़ी लगाने सड़कों पर इसराईली फ़ौज से नबरद आज़मा है। सवाल ये है कि आख़िर फ़लस्तीनी अवाम कब तक अपने ही मुल्क में असीरान ज़िंदाँ बने रहेंगे। आलमी क़वानीन की मौजूदगी, अक़वाम-ए-मुत्तहिदा और दीगर होशमंद अक़्वाम के होते हुए एक क़ौम को मज़लूमियत का शिकार कब तक बनाया जाएगा।

क्या अक़वाम-ए-मुत्तहिदा के मौजवा रुकन ममालिक का ये फ़रीज़ा नहीं है कि वो इसराईल की ग़ासिबाना कार्यवाईयों को रोक दे। बैत-उल-मुक़द्दस और मस्जिद ए अक़्सा के इलावा फ़लस्तीनीयों की हड़प कर्दा ज़मीन उन के हवाले करने के लिए इसराईल को पाबंद किया जाए। इसराईली ज़्यादतियों के हवाले से ये तज़किरा बेमहल नहीं होगा कि आलम इस्लाम की बार-बार की अपीलों के बावजूद अक़वाम-ए-मुत्तहिदा और इस के रुकन ममालिक ने इसराईल पर लगाम लगाने में किसी जुर्रत का मुज़ाहरा नहीं किया।

फ़लस्तीनीयों के बोहरान का हल तलाश करने के बजाय उन्हें मज़ीद परेशान करने वाले अस्बाब पैदा कर दिए जा रहे हैं। सारी दुनिया में इंसानी तरक़्क़ी के फ़रोग़ के लिए ज़रूरी इक़दामात किए जा रहे हैं इन इंसानी तरक़्क़ी की कोशिशों में फ़लस्तीनीयों को शामिल नहीं किया जाना सरासर जांबदारी है, आलमी इंतेज़ामी ढाँचे के उसूलों के मुग़ाइर है।

फ़लस्तीनीयों के लिए उन की ज़मीन तंग कर दी जा रही है। मस्जिद ए अक़्सा में नमाज़ की अदायगी से रोक देना,20साल से कम उम्र के अफ़राद को बैत-उल-मुक़द्दस के क़रीब जाने से रोक देना और उन पर यहूदीयों की फटकार, एक रुसवा कुन मरहला होता है। फ़लस्तीनी ख़वातीन मुसलसल इसराईली फ़ौज की गंदी नज़रों का बार बार सामना करती हैं। अमेरीकी सदर बारक ओबामा को आलमी सूरत-ए-हाल की फ़िक्र है तो उन्हें फ़लस्तीनीयों के मुस्तक़बिल की भी फ़िक्र करनी चाहीए।

इनके पेशरू सदर ने फ़लस्तीनीयों के हक़ में बज़ाहिर दयानत दाराना कोशिश नहीं की, कैंप डेविड मुआहिदे ओस्लो मुआहिदे सब धरे के धरे रह गए हैं। साबिक़ सदर फ़लस्तीन यासिर अराफ़ात की हयात में फ़लस्तीनीयों के लिए कोई इंसाफ़ नहीं किया गया।आज़ाद फ़लस्तीन का ख़ाब लिए यासिर अराफ़ात इस दुनिया से रुख़स्त हो गए। मशरिक़ वुसता को इसराईली ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती से छुटकारा दिलाने के लिए एक तरफ़ आलम अरब को अपनी कोशिशों में शिद्दत पैदा करनी है, दूसरी तरफ़ आलमी ताक़तों को बैन-उल-अक़वामी क़ानून, उसूलों पर अमल करना ज़रूरी है।

इस में कोई शक नहीं कि तशद्दुद, झड़पों और ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती से मसला का हल नहीं निकलेगा। फ़लस्तीनीयों के जायज़ हुक़ूक़ उन्हें हवाले किए जाएं। इनकी सरज़मीन को आज़ाद कर दिया जाए तो उन्हें भी अपने मुल़्क की फिज़ाओं में सांस लेने का मौक़ा मिलेगा। ओबामा नज़म-ओ-नसक़ को अपनी ख़ारिजा पालिसी के मक़ासिद में उसूलों और आलमी क़वानीन की असल रूह को शामिल करना होगा। ताकि इंसानियत के हक़ में इंसाफ़ हो सके।