इस्लाम में महिलाओं का सम्मान किसी अन्य धर्म के मुकाबले कहीं ज्यादा (पार्ट-1)

आमतौर पर लोगों की धारणा यह है कि इस्लाम में महिलाओं को अत्यधिक अत्याचार और शोषण सहना पड़ता है – लेकिन क्या हकीक़त में ऐसा है ? क्या लाखों की तादाद में मुसलमान इतने दमनकारी हैं या फिर ये गलत धारणाएं पक्षपाती मीडिया ने पैदा की हैं ?

“और औरतों के लिए आदमीयों के ऊपर अधिकार है, जैसे आदमियों के औरतों के ऊपर अधिकार हैं” (क़ुरान 2:228)

चौदह सौ साल पहले, इस्लाम ने महिलाओं को वे अधिकार दे चुका है जो पश्चिम में महिलाओं को हाल ही में मिलने शुरू हुए हैं । 1930 में, एनी बेसेंट ने कहा, “ईसाई इंग्लैंड में संपत्ति में महिला के अधिकार को केवल बीस वर्ष पहले ही मान्यता दी गई है, जबकि इस्लाम में हमेशा से इस अधिकार को दिया गया है। यह कहना बेहद गलत है कि इस्लाम उपदेश देता है कि महिलाओं में कोई आत्मा नहीं है ।” (जीवन और मोहम्मद की शिक्षाएं, 1932)

सभी आदमी और औरत एक ही व्यक्ति की संताने हैं – पैगम्बर आदम अलैहिस्सलाम | इस्लाम महिला और पुरुष दोनों के लिए ही इन्साफ और हक की बात करता है |

समान पुरस्कार और बराबर जवाबदेही

इस्लाम में आदमी और औरत एक ही अल्लाह को मानते हैं, उसी की इबादत करते हैं, एक ही किताब पर ईमान लाते हैं | अल्लाह सभी इंसानों को एक जैसी कसौटी पर तौलता है वह भेदभाव नहीं करता | अल्लाह क़ुरान की आयातों में आदमी और औरत के लिए इन्साफ और एक जैसे पुरूस्कार पर जोर देता है:

“अल्लाह ने ईमान वालों, आदमी और औरतों, से वादा किया है, उन बगीचों और महलों का जिन से नदियाँ बहती हैं और उनकी ख़ूबसूरती कभी न ख़त्म होने वाली है |” (कुरान 9:72)

“मैं तुम में से किसी कामगार, आदमी या औरत के काम का नुक्सान न होने दूंगा; तुम एक दुसरे के हो |” (कुरान 3: 195)

इन आयातों से पता चलता है कि इनाम इंसान के लिंग पर निर्भर नहीं है बल्कि उसके द्वारा किये गए काम पर निर्भर करता है |

अगर हम दुसरे मज़हबों से इस्लाम की तुलना करेंगे तब हम देखेंगे की इस्लाम दोनों लिंगों के बीच भी न्याय करता है | उदाहरण के लिए इस्लाम इस बात को ख़ारिज करता है कि माँ हव्वा हराम पेड़ से फल तोड़ कर खाने के लिए ज्यादा ज़िम्मेदार हैं बजाय हज़रत आदम के | इस्लाम के मुताबिक माँ हव्वा और हज़रत आदम दोनों ने गुनाह किया | जिसके लिए दोनों को सजा मिली | जब दोनों को अपने किये पर पछतावा हुआ और उन्होंने माफ़ी मांगी, तब दोनों को माफ़ कर दिया गया |

इल्म हासिल करने का बराबरी का अधिकार

दोनों पुरुषों और महिलाओं को समान रूप से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा है कि:

“शिक्षा हर मुसलमान के लिए अनिवार्य है।”

पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) के समय पर भी कई मुस्लिम महिला विद्वान् थीं | इनमें से कुछ पैगम्बर के परिवार से थी, कुछ सहाबी और उनकी बेटियां थी | कुछ प्रमुख विद्वान् महिलाओं में हज़रत आयशा, जो पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) की पत्नी थी, शामिल हैं | इस्लामिक कानून का एक चौथाई हज़रत आयशा के ज़रिये ही आया है |

अन्य कई महिलाएं भी इस्लामिक न्यायशास्त्र की विद्वान् थी और उनके छात्रों में कई महान पुरुष विद्वान् शामिल थे |

जीवनसाथी चुनने का बराबरी का अधिकार

इस्लाम ने औरतों को अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार दिया है और उन्हें शादी के बाद अपने पारिवारिक नाम में भी कोई बदलाव न करने की आज़ादी है | कई लोगों के मन में यह धारणा होती है मुस्लिम माता-पिता जबरदस्ती अपनी बेटियों की शादी करा देते हैं | यह एक सांस्कृतिक प्रथा है इसका इस्लाम से कुछ लेना देना नहीं है | बल्कि इस्लाम में ऐसी जोर-जबरदस्ती की मनाही है |

पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) के समय पर एक महिला आपके पास आई और कहा कि, “मेरे पिता ने अपना सामाजिक रुतबा बढाने के लिए मेरे चचेरे भाई से शादी करा दी और इस शादी के लिए मुझ पर दबाव बनाया गया |” यह सुनने के बाद पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने उस महिला के पिता को बुलवाया और उसकी मौजूदगी में उसकी बेटी के सामने दो विकल्प रखे | अगर वह चाहे तो इस शादी को ख़त्म कर दे या शादी को अपना ले | महिला ने जवाब दिया, “ ऐ अल्लाह के पैगम्बर मैंने अपने पिता की बात को मान लिया है | लेकिन मैं बाकि महिलाओं को दिखाना चाहती थी कि उन्हें शादी के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता |”

 

 मूल कॉपी हमारी अंग्रेज़ी वेबसाइट सियासत पर है जिसका तर्जुमा हिंदी में मुहम्मद ज़ाकिर रियाज़ ने किया है |