कुर्दों को लेकर एक तरफ़ तुर्की और एक तरफ़ अमेरिका!

तुर्की लंबे समय से अपने देश में पू्र्वी सीमा पर घरेूल कुर्द विद्रोहियों की वजह से अशांति झेल रहा है। इस सशस्त्र विद्रोह को दबाने के लिए सेना के इस्तेमाल पर तुर्की को दुनिया में मानवाधिकारों की दुहाई भी झेलनी पड़ी है।

पिछले कई सालों से तुर्की ने कई क्षेत्र में, खासकर भाषा के मामले में कुर्दों को मान्यता देते हुए उन्हें अपने देश की मुख्यधारा में शामिल करने की कोशिश भी की है।

लेकिन कुर्द समस्या हल होने के बजाए उलझती जा रही है। कुर्द केवल तुर्की में ही संघर्षरत नहीं हैं, वे ईरान और इराक में भी अपने हक केलिए जूझ रहे हैं। इस समस्या ने अब अंतरराष्ट्रीय स्वरूप ले लिया है।

ज़ी न्यूज़ पर छपी खबर के अनुसार, कुर्द पश्चिम एशिया में पूर्वी एंतोलिया प्रायद्वीप के टॉरस पहाड़ों, पश्चिम ईरान के जागरोस पर्वतों, उत्तरी ईराक, उत्तर पूर्वी सीरिया, अर्मेनिया और आसपास के इलाकों में रहने वाले निवासी हैं।

माना जाता है कि वे कुर्द मेसोपोटामिया के मैदान और पर्वतीय इलाक़ों के मूल निवासी हैं। इन इलाकों ये लोग कुर्दिस्तान कहते हैं और अपनी आजादी के सशस्त्र और शांति दोनों तरह के संघर्ष कर रहे हैं।

इसमें तुर्की में स्वायत्ता और इराक और सीरिया में अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। यह पश्चिम एशिया में चौथे सबसे बड़े जातीय समूह है। इनकी संख्या अभी तीन करोड़ के आसपास मानी जाती है।

20वीं सदी की शुरुआत में कुर्दों ने अलग देश बनाने की कोशिशें की थीं। पहले विश्व युद्ध में ऑटोमन साम्राज्य की हार के बाद पश्चिमी सहयोगी देशों ने 1920 में संधि कर कुर्दों के लिए अलग देश बनाने पर सहमति हुई थी लेकिन 1923 में तुर्की के नेता मुस्तफ़ा कमाल पाशा ने इस संधि को ख़ारिज कर दिया था। तुर्की की सेना ने 1920 और 1930 के दशक में कुर्दिश उभार को कुचल दिया था।