क्या आतंकवाद के विरोध के नाम पर फैलाई जा रही है साम्प्रदायिकता?

भारत नियंत्रित कश्मीर में पुलवामा ज़िले में सीआरपीएफ़ के कारवां आत्मघाती हमले के बाद पूरे भारत में आक्रोश की लहर जो स्वाभाविक भी है। इसलिए कि कश्मीर विवाद के दौरान अब तक किए जाने वाले हमलों में यह बहुत बड़ा हमला था जिसने 40 से अधिक सीआरपीएफ़ के जवानों की जान ले ली।

मगर इस घटना पर आक्रोश और निंदा की लहर पूरे देश में उठने के साथ ही कश्मीरी छात्रों और छात्राओं को निशाना बनाने की घटनाएं भी शुरू हो गईं क्योंकि गुरुवार का आत्मघाती हमला 20 साल के कश्मीरी युवा आदिल डार ने अंजाम दिया। आदिल डार ने एक साल पहले जैशे मुहम्मद संगठन की सदस्यता ग्रहण कर ली थी।

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून, बिहार की राजधानी पटना, हरियाणा राज्य में कुछ स्थानों, जम्मू में कई जगहों तथा देश के अन्य भागों कश्मीरियों और कश्मीरी छात्रों को निशाना बनाया। कश्मीरी छात्रों को ग़द्दार कहा गया और उनकी पिटाई की गई।

देहरादून में लड़कियों के हास्टल को उग्र भीड़ ने घेर लिया और नारेबाज़ी शुरू कर दी। भारत की राजधानी नई दिल्ली तक में कश्मीरियों के साथ एसा व्यवहार शुरू हो गया कि वह डर गए।

कश्मीर पुलिस ने भारत में अन्य स्थानों पर रहने वाले कश्मीरियों के लिए नंबर जारी किए हैं कि यदि उन्हें कोई समस्या पेश आ रही है तो वो इन नंबरों पर सूचना दें।

कश्मीर की पूर्व मुख्य मंत्री महबूबा मुफ़्ती ने भी इस मामले पर गहरी चिंता जताई। यही नहीं भारत के प्रबुद्ध समाज से जुड़े लोगों ने भी कश्मीरियों के साथ सहानुभूति जताई और उन पर होने वाले हमलों को दुर्भाग्यपूर्ण क़रार दिया।

बात यहीं नहीं थमी, धीरे धीरे इसमें सांप्रदायिक रंग भी घुलने लगा और सोशल मीडिया पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ अभद्र टिप्पणियां की जाने लगीं। कश्मीरियों पर हमला हो या आम मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत की भाषा प्रयोग करने या उन पर संदेह जताने और उन्हें ग़द्दार कहने का मामला हो।

हर मामले में बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, हिंदू युवा वाहिनी जैसे दर्जनों चरमपंथी संगठनों के लोग आगे आगे रहते हैं। पुलवाला घटना के बाद इन संगठनों से जुड़े लोगों ने कई जगहों पर आगज़नी भी की है।

सवाल यह उठता है कि इन कट्टरपंथी संगठनों से जुड़े लोगों की यह प्रतिक्रिया क्या आम जनमानस की प्रतिक्रिया के समान होती है? इसके जवाब मे बहुत से लोग कहते हैं कि इन संगठनों के सदस्यों की उग्र प्रतिक्रिया सेलेक्टिव होती है।

यह संगठन हर प्रतिक्रिया से पहले यह ज़रूर देख लेते हैं कि उन्हें राजनैतिक फ़ायदा कितना मिलेगा? वह यह भी देख लेते हैं कि सत्ता में सरकार अगर अपनी अर्थात भाजपा की नहीं है तो वह सरकार को चूड़ियां भिजवाने में देरी नहीं करते लेकिन अगर सरकार अपनी हो तो हर टिप्पणी और आलोचना को ख़ारिज करते हुए वह कहते हैं कि इस प्रकार की घटना पर राजनीति नहीं होनी चाहिए।

यह देखना ज़रूरी है कि इस समय आक्रोश की स्थिति में कुछ संगठनों की प्रतिक्रियां कहीं सामान्य स्तर से बढ़कर राजनैतिक स्वार्थों के लिए तो नहीं हैं।

भारत के वरिष्ठ टीकाकार शकील शम्सी ने आतंकवाद के विरोध के नाम पर सांप्रदायिकता शीर्षक के साथ अपने लेख में भी यही चिंता जताई और विशेष रूप से भारतीय जनता पार्टी का नाम लिया कि जहां भी भाजपा वालों को लगता है कि उनका काम नहीं बन रहा है वहां वह फौरन यह आरोप लगा देते हैं कि पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाए जा रहे हैं।

अलीगढ़ में भी कुछ दिन पहले मुसलमानों पर देश से ग़द्दारी का जो मुक़द्दमा भाजपा ने दर्ज करवाने की कोशिश की थी उसमें भी यही आरोप लगाया गया था। मगर पुलिस को सुबूत नहीं मिला तो उसनी ग़द्दारी की दफ़ाएं नहीं लगाईं।

छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, तेलंगाना, आंध्रा प्रदेश और महाराष्ट्र में कितनी बार नक्सलियों ने इसी प्रकार के हमले किए और कई बार तो नक्सली हमलों में पुलवामा के मुक़ाबले में बहुत ज़्यादा जवान शहीद हुए मगर उनकी शहादत पर कभी इस प्रकार के हिंसक प्रदर्शन नहीं हुए।

जन प्रदर्शनों का सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि उनमें हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई, बौध, जैन, पारसी सब समान रूप से शामिल होते हैं। बस हम सब को इस बात की कोशिश ज़रूर करना चाहिए कि इस हमले की आग पर कोई अपनी राजनीति की रोटियां न सेंकने पाए। जनाक्रोश का ग़लत फ़ायदा न उठाने पाएं।

हमें यह भी देखना होगा कि कश्मीर हमले का जवाब हमारी सेनाएं देती हैं तो उसका तमग़ा कोई नेता अपने सीने पर न सजाने पाए क्योंकि सेना के साहस और बहादुरी को अगर कोई नेता भुनाने की कोशिश करेगा तो जनता यह भी पूछेगी कि सीआरपीएफ़ के जवानों को विमानों से जम्मू से श्रीनगर क्यों नहीं भेजा गया?

साभार- ‘पार्स टुडे डॉट कॉम’