क्या सबको आय की गारंटी देने का बोझ उठा सकता है भारत, हकीकत या फसाना

नई दिल्ली : तीन राज्यों में कर्जमाफी के ‘सफल’ चुनावी वादे के बाद न्यूनतम आय की गारंटी का दांव खेलकर राहुल ने बजट से पहले केंद्र सरकार को दवाब में ला दिया है। पिछले कुछ दिनों से बजट को लेकर चर्चा गरम है कि मोदी सरकार अपने इस आखिरी बजट में गरीबों के लिए न्यूनतम आय गांरटी का ऐलान करने जा रही है। ऐसे में राहुल ने बजट से तीन दिन पहले ही यह चुनावी वादा कर नया पासा फेंका है। ऐसे में यह सवाल उठ रहे हैं कि क्या देश की अर्थव्यवस्था यह बोझ उठाने में सक्षम है और इसको लागू करने की राह में क्या चुनौतियां हैं?

इसके साथ और भी कई सवाल जुड़े हुए हैं मसलन गरीबों की संख्या तय करने का आधार क्या होगा क्योंकि ग़रीबी रेखा के कई पैमाने तय किये गये हैं. इसके अलावा यह भी कि न्यूनतम आय कितनी तय की जायेगी. जब तक संख्या और आय के बारे में जानकारी नहीं होगी यह पता लगाना संभव नहीं है कि इस योजना का आर्थिक बोझ कितना होगा.

यह सच है कि न्यूनतम आय गारंटी योजना को पूंजीवादी सोच रखने वाले या वामपंथी विचारों वाले दोनों ही धाराओं के अर्थशास्त्री एक अच्छी योजना मानते हैं. जहां पूंजीवाद की वकालत करने वालों को लगता है कि इससे “फिजूल” की सब्सिडी कम होंगी वहीं वामपंथी अर्थशास्त्री कहते हैं कि एक न्यूनतम आमदनी सुरक्षित होने से सामाजिक सुरक्षा की भावना बढ़ेगी और गरीबों के पास विकल्प खुले रहेंगे कि वह और क्या काम करें.

2016-17 के आर्थिक सर्वे में इस योजना का विचार आने के बाद से यह भी बताया जा रहा है कि कैसे दुनिया के कई देश इस प्रयोग को अपना रहे हैं. मिसाल के तौर पर फिनलैंड को “न्यूनतम आय गारंटी लागू करने वाला पहला देश” बताया जाता है जबकि सच्चाई यह है कि फिनलैंड भारत के मुकाबले एक बहुत ही छोटा देश है. जहां भारत की आबादी 130 करोड़ है वहीं फिनलैंड की आबादी 60 लाख से भी कम है. भारत में प्रति व्यक्ति आय 1.25 लाख से कम है वहीं फिनलैंड में प्रति व्यक्ति आय 32 लाख रुपये से अधिक है. इसके बावजूद इस देश का “कामयाब न्यूनतम आय गारंटी प्रोजेक्ट” मात्र 2000 लोगों तक सीमित रहा है जिसकी तुलना भारत जैसे विशाल देश से करना बेमानी होगा.

असल चुनौती है कि इतनी बड़ी योजना के लिये पैसा कैसे इकट्ठा होगा. अंदाज़ा है कि अगर न्यूनतम आय गारंटी के लिये जीडीपी का 3.5 प्रतिशत भी खर्च किया जाय तो यह भारत के स्वास्थ्य बजट का तीन गुना और ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के 10 गुना खर्च के बराबर होगा.

दिल्ली स्थित नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (एनआईपीएफपी) ने कुछ साल पहले ज़रूरी और गैर ज़रूरी सब्सिडी के आंकड़ों का अध्ययन किया और एक रिपोर्ट जारी की. इस रिपोर्ट को बनाने वाले अर्थशास्त्रियों सुदीप्तो मंडल और एस सिकदर ने सस्ते अनाज़ (पीडीएस), शिक्षा और पानी जैसी सुविधाओं की सब्सिडी को ज़रूरी (मेरिट सब्सिडी) और फर्टिलाइज़र, पेट्रोलियम पदार्थों और एलपीजी में छूट को गैर ज़रूरी सब्सिडी (नॉन मेरिट सब्सिडी) माना. 1987-88 से लेकर 2011-12 तक के आंकड़ों का अध्ययन बताता है कि ज़रूरी सब्सिडी में खर्च बढ़ा है और गैर ज़रूरी सब्सिडी में कटौती की गई है.

अर्थशास्त्री प्रणब बर्धन ने इन आंकड़ों के आधार पर गणना करके बताया है कि गैर ज़रूरी सब्सिडी में कटौती कर जीडीपी का 10 प्रतिशत तक न्यूनतम आय योजना पर खर्च किया जा सकता है. बर्धन इसके लिये सालाना 10 हज़ार रूपये प्रति व्यक्ति न्यूनतम आमदनी देनी की सिफारिश करते हैं. यह रकम 1000 रुपये महीने से भी कम है लेकिन दिल्ली की झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले गरीबों के बीच सामाजिक सुरक्षा के लिये काम कर रहे अशोक कुमार कहते हैं कि बेरोज़गारी और हताशा का आलम यह है कि अगर इतना पैसा भी मिल जाये तो कई लोगों के लिये यह उम्मीद की किरण होगी.

लंदन यूनिवर्सिटी के प्रफेसर गाय स्टैंडिंग ने गरीबी हटाने के लिए अमीर-गरीब, सबको निश्चित अंतराल पर तयशुदा रकम देने का विचार पेश किया। उनका मानना है कि इस स्कीम का लाभ लेने के लिए किसी भी व्यक्ति को अपनी कमजोर सामाजिक-आर्थिक स्थिति अथवा बेरोजगारी का सबूत नहीं देना पड़े। प्रफेसर गाय स्टैंडिंग ने जनवरी 2017 में नवभारत टाइम्स को जिनीवा से दिए इंटरव्यू में कहा था कि कांग्रेस के शासन के दौरान भी इस स्कीम के बारे में सरकार ने उनसे संपर्क किया था, लेकिन तब सरकार इसे लागू करने की हिम्मत नहीं कर सकी थी। उसके बाद 2016-17 के आर्थिक सर्वे में मोदी सरकार ने यूबीआई का जिक्र किया। तब आर्थिक सर्वेक्षण में यूनिवर्सल बेसिक इनकम पर 40 से अधिक पेजों का एक खाका तैयार किया गया था। इस रिपोर्ट के अनुसार, यूनिवर्सल बेसिक इनकम भारत में व्याप्त गरीबी का एक संभव समाधान हो सकता है। चूंकि कल्याणकारी योजनाएं उम्मीद पर खरा नहीं उतर पा रही हैं, इस वजह से भी इसे सार्थक कदम बताया गया था। उस दौरान मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने लिखा था, ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम जैसी योजना हमें सामाजिक न्याय दिलाने के साथ मजबूत अर्थव्यवस्था बनने में मददगार साबित हो सकती है।’

इकनॉमिक सर्वे 2016-17 में कहा गया था कि भारत में केंद्र सरकार की तरफ से प्रायोजित कुल 950 स्कीम हैं और जीडीपी बजट आवंटन में इनकी हिस्सेदारी करीब 5 फीसदी है। ऐसी ज्यादातर स्कीमें आवंटन के मामले में छोटी हैं और टॉप 11 स्कीमों की कुल बजट आवंटन में हिस्सेदारी 50 फीसदी है। इसे ध्यान में रखते हुए सर्वे में यूबीआई को मौजूदा स्कीमों के लाभार्थियों के लिए विकल्प के तौर पर पेश करने का प्रस्ताव दिया गया है। सर्वे के मुताबिक, ‘इस तरह से तैयार किए जाने पर यूबीआई न सिर्फ जीवन स्तर बेहतर कर सकता है, बल्कि मौजूदा स्कीमों का प्रशासनिक स्तर भी बेहतर कर सकता है।’

इस बार मोदी सरकार अपने मौजूदा कार्यकाल का आखिरी बजट पेश करने जा रही है। लोकसभा चुनाव के बेहद नजदीक होने के कारण यूबीआई जैसी लोकलुभावन घोषणा की उम्मीद पहले से ही की जा रही थी, लेकिन जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने छत्तीसगढ़ की किसान रैली में कांग्रेस की जीत के बाद ‘मिनिमम गारंटी इनकम’ स्कीम लागू करने का ऐलान किया तो यकीन होने लगा है कि 1 फरवरी के बजट में इसका ऐलान होना लगभग तय है। दरअसल, कयास यह लगाए जा रहे हैं कि राहुल गांधी ने ‘मिनिमम गारंटी इनकम’ का ऐलान किया ही इसलिए क्योंकि उन्हें इस बजट में इसकी घोषणा की भनक मिल गई।

इंडिया रेटिंग्स के डी के पंत ने बताया, ‘यह कॉन्सेप्ट अच्छा दिखता है, लेकिन वास्तविक लाभार्थी की पहचान करना बड़ी चुनौती है। आधार हर शख्स की पहचान को स्थापित करता है, लेकिन यह लोगों का वर्गीकरण नहीं करता। लिहाजा, अगर लाभार्थी की बेहतर तरीके से पहचान की जाती है, तो यूबीआई आगे बढ़ने योग्य कदम है।’