जहां भाजपा ताक़तवर, ओवैसी की पार्टी वहां आज़माएंगी तक़दीर

उत्तर प्रदेश: 2015 में बिहार में मिली बुरी शिकस्त के बावजूद ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी अपना दमखम दिखाने उतर रही है। बिहार 2015 और यूपी 2017 के बीच में, बड़ी मुस्लिम आबादी वाले तीन राज्यों – असम, पश्चिम बंगाल और केरल में विधानसभा चुनाव आयोजित किये गए हैं। इन तीनों राज्यों में मुसलमानों का प्रतिशत बिहार (16.9%) और उत्तर प्रदेश (19.3%) की तुलना में काफी ज्यादा हैं। फिर भी वहां ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन ने चुनाव नहीं लड़ा।

असम और केरल में ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग क्रमशः की उपस्थिति ने शायद एआईएमआईएम को रोका होगा। लेकिन बंगाल में पार्टी का चुनाव न लड़ना वाकई एक रहस्य है क्योंकि वहां लगभग एक-चौथाई मतदाता मुसलमान हैं।

एआईएमआईएम की रणनीति के करीबी विश्लेषण से पता चलता है कि यह उन्हीं राज्यों में चुनाव मैदान में कूदती हैं जहां भारतीय जनता पार्टी एक प्रमुख खिलाड़ी हो और जहां मुसलमानों की आबादी अच्छी खासी हो। इन दोनों शर्तों का पूरा होना जरुरी है वरना ओवैसी भाई चुनाव में नहीं लड़ते।

उदाहरण के लिए, 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम ने ऐसे वक़्त पर 25 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, जब भाजपा और शिवसेना मजबूत दिखाई दे रहे थे और कांग्रेस और एनसीपी अलग-अलग लड़ रहे थे।

हालांकि एआईएमआईएम सुप्रीमो असदुद्दीन ओवैसी ने अपने ऊपर लग रहे उन आरोपों को बकवास करार दिया है जिनमें कहा जा रहा था कि उन्होंने परोक्ष रूप से भाजपा की मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लेकिन कई स्वतंत्र विश्लेषकों का मानना ​​है कि कई निर्वाचन क्षेत्रों में, अपने उम्मीदवारों की उपस्थिति से उन्होंने कांग्रेस और राकांपा की संभावनाओं को क्षतिग्रस्त कर दिया था।

एक साल बाद, एआईएमआईएम ने बिहार में छह सीटों पर चुनाव लड़ा, जहाँ इसका पूरी तरह से सफाया हो गया।

हालाँकि, राजनीतिक विश्लेषक उस वक़्त बेहद आश्चर्यचकित रह गए जब पार्टी ने बंगाल चुनाव में न उतरने का फैसला किया। यह वाकई चौंकाने वाला फैसला था क्योंकि एआईएमआईएम खुद को मुसलमानों के हितों के सबसे बड़े रक्षक के रूप में प्रस्तुत करती है। बंगाल में एआईएमआईएम के लिए एक बेहतरीन मौका था क्योंकि वहां कोई अन्य मुस्लिम पार्टी भी नहीं थी जबकि उत्तर प्रदेश में कई पार्टियाँ हैं।

महाराष्ट्र और बिहार के यह उदाहरण यह निष्कर्ष निकालने पर मजबूर करते हैं कि ओवैसी बंधू उन राज्यों में अपना आधार मज़बूत करने के लिए ज्यादा उत्सुक हैं जहाँ भाजपा मज़बूत स्तिथि में है।

वोटों का ध्रुवीकरण इन राज्यों में एआईएमआईएम की स्थिति को मजबूत करने में मदद करता है। साथ ही, यह परोक्ष रूप से भगवा ब्रिगेड में मदद करता है।

यह संदेह क्यों नहीं किया जाए कि एआईएमआईएम ने बंगाल को इसलिए छोड़ दिया क्योंकि वे जानते थे कि भाजपा को राज्य में लाभान्वित नहीं किया जा सकता क्योंकि यह बंगाल में एक कमजोर पार्टी है?

महाराष्ट्र में कांग्रेस और एनसीपी का ख़राब ट्रैक रिकॉर्ड – खासतौर पर मुसलमानों के प्रति – ओवैसी के लिए एक बिंदु हो सकता है। लेकिन बिहार में राजद और जद (यू) जैसे धर्मनिरपेक्ष विकल्प की उपस्थिति के कारण एआईएमआईएम को ज़्यादा समर्थन प्राप्त नहीं हुआ।

इसी प्रकार, सपा और बसपा उत्तर प्रदेश में हैं। बिहार की तरह, यहां भी कांग्रेस एक छोटी खिलाड़ी है।

ऐसे में, ओवैसी बंधुओं को चाहिए कि वे अपनी स्तिथि को स्पष्ट करें। क्या वे सिर्फ कांग्रेस के खिलाफ हैं या सभी धर्मनिरपेक्ष दलों के खिलाफ उनके पास कोई मुद्दा है? यदि यह मामला है, तो उन्होंने तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ उम्मीदवार क्यों नहीं उतारे?

अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों  का मानना ​​है कि वे बंगाल में भी चुनाव लड़ते अगर भाजपा वहां एक बड़ी पार्टी होती।

उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले ओवैसी को यह स्पष्ट करने की ज़रूरत है। अगर वे ऐसा नहीं करते तो समुदाय का काफी बड़ा हिस्सा यही मानेगा कि ओवैसी गुप्त रूप से भाजपा को फायदा पहुंचाते हैं।

 

मूल लेख twocircles.net पर प्रकाशित हुआ है। सिआसत के लिए इसका हिंदी अनुवाद किया गया है।