दीन की राह में कॉन्वेंट तालीम रुकावट साबित हो तो तालीम भी तर्क कर दूंगी: नौ मुस्लिम तालिबा

हैदराबाद। 31 जनवरी- मुहम्मद मुबश्शिर उद्दीन ख़ुर्रम- क़ुरआन एक मुकम्मल ज़ाबता-ए-हयात है और एहसास अदम तहफ़्फ़ुज़ को दूर करने में दीन इस्लाम सब से ज़्यादा मुआविन साबित हुआ है।मेरे ज़हन में वजूद कायनात के मुताल्लिक़ कई उभरने वाले सवालात के क़ुरआन मजीद में मौजूद तश्फ़ी बख़श जवाबात ने मेरी फ़िक्र को वुसअत अता की जस के सबब में अपने शौहर और बच्चों के हमराह हलक़ा बगोश इस्लाम होगई। इस्लाम के गोशा-ए-आफ़ियत में दाख़िल होने वाली एक ख़ातून ने अपनी शनाख़्त मख़फ़ी रखने की ख़ाहिश करते हुए एक ख़ुसूसी मुलाक़ात के दौरान किया जिस में उन्हों ने बताया कि क़बूल इस्लाम के बाद किन हालात से उन्हें दो-चार होना पड़ा और उन के दीगर अरकान ख़ानदान ने कैसे इस्लाम की हक़्क़ानियत को तस्लीम किया।

माँ की हैसियत से उन्हों ने जो क़ुर्बानियां दी हैं, इन का तज़किरा करते हुए इस ख़ातून ने बताया कि इन के दाख़ेल इस्लाम होने की वजह इन का फ़र्ज़ंद बना है जिसे उन्हों ने मुस्लिम इंतिज़ामीया वाले एक स्कूल में दाख़िला दिलवाया था जहां से बच्चे में दीनी तालीम के हुसूल का रुजहान बढ़ता गया। जिस के नतीजा में मासूम बच्चे की ज़िद ने उसे दीनी मदर्सा पहुंचा दिया। शहर की एक मारूफ़ दीनी दरसगाह में तालीम के हुसूल के बाद बच्चा ने इस्लाम के दामन में पनाह हासिल करने का इरादा ज़ाहिर किया जिस पर मुंतज़मीन ने बच्चे की कमसिनी को मद्द-ए-नज़र रखते हुए इनकार करदिया और सन् बलूग़त को पहुंचने के बाद इस्लाम क़बूल करने का मश्वरा दिया।

बच्चे की तालीम के दौरान मेरे ज़हन में जो सवालात उभर रहे थे, उन के जवाब केलिए मैंने ना सिर्फ अपने साबिक़ा मज़हब (हिन्दू धर्म) की तालीमात में तलाश किया बल्कि अदम इतमीनान के बाद बाइबल के औराक़ भी पढ़ डाले मगर क़लब मुतमइन नहीं हुआ। जब क़ुरआन हकीम की तालीमात का मुताला मैंने शुरू किया तो मुझे अंदाज़ा हुआ कि आख़िर दुनिया में आने का मक़सद किया है, और दुनिया के बाद की ज़िंदगी जो कि दाइमी है, इस के लिए किया तैय्यारीयां की जानी चाहीए। इस नौ मुस्लिम बहन ने अपने इज़हार-ए-ख़्याल के दौरान बताया कि वो इबतदा-ए-से ही इस सोच में मुबतला थी कि आख़िर एक सूरज , एक आसमान से बरसने वाला पानी, एक ज़मीन से उगने वाली ग़िज़ा सब के इस्तिमाल में आने के बावजूद हम मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब में क्यों मुनक़सिम हैं।

उन्हों ने बताया कि वो अक्सर ये सोचा करती थी कि मैं सूर्य नमस्कार करती हूँ, मगर सूरज की रोशनी सब को मिलती है, मैं ज़मीन की पूजा करती हूँ मगर ज़मीन सब केलिए है। हिन्दू धर्म की मानने वाली की हैसियत से में हर उस शए की पूजा करती जिस से फ़ायदा या नुक़्सान का एहतिमाल होता, लेकिन क़लब मुतमइन नहीं था। मेरे फ़र्ज़ंद ने जब अपनी तालीमात को मेरे सामने पेश करना शुरू किया जो वो मुदर्रिसा से हासिल कररहा था , इन तालीमात ने मेरे ज़हन की गिरहें खोलनी शुरू करदी और साल 2008-ए-में मैंने अपने शौहर और बच्चों के साथ इस्लाम क़बूल करलिया।

क़बूल इस्लाम के बाद होने वाली तकालीफ़ और रिश्तेदारों से क़ता तअल्लुक़ के मुताल्लिक़ इस बहन ने बताया कि जब क़बूल इस्लाम के बाद एक साल तक उन्हों ने चोरी छिपे नमाज़ों की अदायगी और फ़राइज़ की तकमील की तो वो आख़िर में ऊब गईं और ये फ़ैसला करलिया कि जब हक़ हासिल होचुका है और इस बात का यक़ीन है कि अल्लाह तबारक-ओ-ताला हर क़दम पर उन की मदद फ़रमाने वाले हैं तो उन्हों ने बाज़ाबता दीगर रिश्तेदारों में भी तब्लीग़ का काम शुरू करदिया जिस के इबतदा-ए-में अच्छे नताइज बरामद हुए लेकिन बाद अज़ां बाअज़ लोगों की मजबूरीयों ने उन्हें अपने साबिक़ा मज़हब की तरफ़ लौटा दिया। जिस में ख़ुद मेरे शौहर भी शामिल थे, जिन्हें इस बात का शदीद अफ़सोस था कि वो अपने रिश्तेदारों से अलहदा होचुके हैं।