फ्रांस हमले की नज़रियात ” अभिषेक उपाध्याय ” की कलम से

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अभिषेक उपाध्याय की कलम से

धुर इस्लाम विरोधी मानी जाने वाली महिला। फ्रांस की अगली राष्ट्रपति। सौ फीसदी इसी बात के चांस हैं। आईएसआईएस के “पेरिस अटैक” ने अपना काम कर दिया है। अब मरीन ले पेन को 2017 में फ्रांस का राष्ट्रपति होने से कोई ताकत नही रोक सकती है।

2012 के राष्ट्रपति चुनाव में तीसरे नंबर पर थी ले पेन। कुल वोटों का करीब 18 फीसदी हासिल किया था। ले पेन खुले तौर पर फ्रांस से “रैडिकल इस्लाम” को उखाड़ फेंकने की बात करती हैं। फ्रांस जो शरणार्थियों को आसरा देने के लिए मशहूर है। उसकी इमीग्रेशन पॉलिसी में आमूलचूल बदलाव की बात करती हैं। दोहरी नागरिकता वाले इस्लामिक अनुयायियों का तत्काल प्रभाव से पासपोर्ट रद्द करने की हिमायत करती हैं।

बार्डर कंट्रोल को बेहद ही सख्त करना उनका बड़ा एजेंडा है। उनकी “फ्रंट नेशनल पार्टी” हर ओपीनियन पोल में अव्वल साबित हो रही है। एकदम ताजा ओपीनियन पोल के नतीजों में वे टॉप पर थीं। ओपीनियन पोल में पूछा गया था कि अगर अगले रविवार फ्रांस में चुनाव हों, तो आप इनमें से किस उम्मीदवार को आप वोट देंगे? वे 28 से 31 फीसदी वोट हासिल करके शीर्ष पर रहीं। मौजूदा राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद और पूर्व राष्ट्रपति निकोलस सरकोज़ी इस हवा में कहीं पीछे छूट गए। ये पोल “पेरिस अटैक” की घटना से पहले का है। अगर इसे एक पैटर्न माने तो यकीन मानिए कि इस अटैक के बाद वे बहुत आगे होंगी। उनके प्रतिद्धियों का दूर तक कहीं अता-पता न होगा।

ले पेन अपने इंटरव्यूज में खुलकर कहती हैं कि इस्लामीकरण बेहद बड़ा खतरा है। फ्रांस में हो रहे इस्लामीकरण ने यहां की सभ्यता के वजूद को ही खतरे में डाल दिया है। ले पेन की पार्टी फिलवक्त फ्रांस की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है। टाइम मैगजीन ने उन्हें 2015 के विश्व के सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों की सूची में रखा है। फ्रांस की सड़कों पर मुस्लिमों की नमाज़ के बारे में उनकी ये राय है- “अगर आप दूसरे विश्वयुद्ध की बात करते हैं। और इसे Occupation यानि कब्जे से जोड़ते हैं।

तो सड़क पर मुस्लिमों का नमाज पढ़ना भी एक आक्यूपेशन ही है। ये “Occupation of territory” यानि क्षेत्र विशेष पर कब्जा है। हालांकि किसी टैंक का इस्तेमाल नही हुआ है। सैनिकों का भी इस्तेमाल नही हुआ है। फिर भी यह एक कब्जा है जो स्थानीय नागरिकों के खिलाफ जाता है।” ले पेन फ्री ट्रेड यानि मुक्त व्यापार के सख्त खिलाफ हैं। वे खुलेतौर पर संरक्षणवाद की हिमायत करती हैं।

फ्रांस के अखबार शार्ली हेब्दो पर हुए हमले के बाद उनकी लोकप्रियता में और भी इजाफा हुआ था। वे डेथ पेनाल्टी यानि मौत की सजा की खुलकर वकालत करती हैं। फ्रांस में साल 1981 में डेथ पेनाल्टी खत्म कर दी गई थी। फिलवक्त फ्रांस में करीब 50 से 60 लाख मुस्लिम रहते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि फ्रांस शरण देने के मामले में काफी उदार रहा है। अकेले पेरिस की आबादी का 40 फीसदी हिस्सा इमीग्रेंट्स यानि अप्रवासी या यूं कहें कि परदेसियों का है। फ्रांस की आबादी 6.5 करोड़ के करीब है। इसका करीब 10 फीसदी हिस्सा मुसलमानो का है। इसमें भी बड़ी संख्या बाहर से आए मुसलमानो की है।

ईरान के कट्टरपंथी धार्मिक नेता आयातुल्ला खुमैनी को भी फ्रांस ने शरण दी थी। खुमैनी ने यहीं रहकर ईरान के शाह का तख्ता पलटने की योजना तैयार की। उस पर अमल किया। फ्रांस ने खुमैनी को तब शरण दी जब उन्हें ईरान से निष्कासित कर दिया गया था। फ्रांस की खुली सोसायटी में जमकर लोकतांत्रिक अधिकार दिए गए हैं। हालांकि यहां हिजाब पर पाबंदी है। अहमद साहनोमी। आतंकवादियों की मदद के मामले में 7 साल का सज़ायाफ्ता। इसके पास दोहरी नागरिकता थी। मोरक्को की। और फ्रांस की भी। मोरक्को में ये शख्स वांछित है। मोरक्को अरसे से उसके प्रत्यपर्ण की मांग कर रहा है। मगर फ्रांस ने शरण दे रखी है।

हाल ही में फ्रांस की सर्वोच्च अदालत French Constitutional Council ने इसकी नागरिकता रद्द कर दी। फ्रांस में ऐसे एक नही, अनेक उदाहरण हैं। ऐसी घटनाएं ली पेन के आंदोलन को धार देती हैं। तो क्या माना जाए? क्या यही है वो सभ्यता का संघर्ष? Clash of civilization, जिसकी अमेरिकन राजनीति विज्ञानी सैमुअल हटिंगटन ने 90 के दशक में आशंका जताई थी।

यानि अगले युद्ध देशों के बीच नही होंगे। धार्मिक पहचानों की लड़ाई होगी। सांस्कृतिक वजूद की लड़ाई। एक सभ्यता का दूसरी सभ्यता के खिलाफ संघर्ष। अंतहीन संघर्ष शायद! अंतहीन रक्तपात भी शायद! क्या यही हमारी और आने वाली पीढ़ियों की नियति है???