बदकारी का मुर्तक़िब शैतान का दोस्त है

इरशाद ए बारी तआलाली कि ए औलाद-ए-आदम! मैंने तुम को ना कहा था कि ना इबादत करो तुम शैतान की, वो बेशक तुम्हारा खुला दुश्मन है और इबादत करो मेरी ये है सीधी राह और वो बहका ले गया तुम में से बहुत ख़लक़त को फिर क्या तुम में समझ ना थी। (सूरा यसीन। ६० ता ६२)

बदकारी करने से इंसान, शैतान का साथी बन जाता है, जबकि परहेज़गारी से इंसान अल्लाह का दोस्त बनता है। हर शख़्स को इस बात पर ग़ौर करना चाहीए कि अगर हम कल क़यामत के दिन इबादुर्रहमन में शामिल होना चाहते हैं तो हमें बदकारी से बचना चाहीए। ऐसा ना हो कि बदकारी की वजह से अल्लाह तआला अपने दरबार से हमें धुतकार दे।

इरशाद बारी तआला है: क्या तुम बनाते हो उसको और उसकी औलाद को दोस्त मेरे सिवा हालाँकि वो तुम्हारे दुश्मन हैं, ज़ालिमों के लिए बुरा बदला है (सूरा अल कहफ़। ५०) अगर कल क़यामत के दिन बदकार से ये कह दिया गया कि तुम ने मुझे छोड़कर शैतान की पैरवी की थी, लिहाज़ा इसी के साथ जहन्नुम में जाओ तो फिर उस वक़्त क्या होगा?। इस आयत के मफ़हूम पर ग़ौर करने और इसको अक्सर-ओ-बेशतर पढ़ते रहने से शहवत का ज़ोर टूट जाता है।

अल्लाह तआला ने इंसान का रिज़्क मुतय्यन कर दिया है। इरशाद बारी तआला है: और हर चीज़ के खज़ाने हैं हमारे पास और हम उसे एक मुतय्यन अंदाज़े से ही उतारते हैं (सूरतुल हिज्र।२१) हर चीज़ की एक मिक़दार मुतय्यन है, इंसान को दुनिया में कितने दिन ज़िंदा रहना है, कितने सांस लेने हैं या कितनी बार शहवत की लज़्ज़त से लुत्फ़ अंदोज़ होना है।

अगर बिलफ़र्ज़ एक शख़्स की ज़िंदगी ६५ साल है और इसे पंद्रह साल की उम्र में बालिग़ होना है तो बक़ीया ५० साल में उसे छः हज़ार मर्तबा शहवत की लज़्ज़त पानी है। अगर ये नौजवान इफ़्फ़त-ओ-पाकदामनी की ज़िंदगी गुज़ारेगा तो ये लज़्ज़त अपनी बीवी से कामिल तौर पर हासिल करेगा।

अगर शहवत से मग़्लूब होकर अपने हाथ या बदकारी के ज़रीया पूरी करेगा तो इसका इतना कोटा घट जाएगा। इसीलिए जो नौजवान किसी तरह बदकारी का शिकार होते हैं, उनकी अज़दवाजी ज़िंदगी की लज़्ज़तें या तो अधूरी रह जाती हैं, या ना होने के बराबर रह जाती हैं।

कई मर्तबा ऐसा होता है कि अगर किसी लड़की ने अपना कोटा शादी से पहले ज़ाए कर दिया तो इसका ख़ावंद किसी दूसरी लड़की से शादी करके अपना कोटा पूरा करेगा और अगर शादी ना की तो बदकारी का रास्ता अपनाएगा। इसी तरह अगर लड़के ने शादी से पहले अपना कोटा ज़ाए कर दिया तो उसकी बीवी छुपी आश्नाई के ज़रीया अपनी मस्तियां उड़ाएगी।

लिहाज़ा ग़लत तरीक़े से शहवत पूरी करके इंसान अपना ही नुक़्सान करता है। ज़रा सब्र से काम ले तो हराम की बजाय हलाल तरीक़े से सब कुछ मिल जाएगा। मियां बीवी में प्यार-ओ-मुहब्बत की ज़िंदगी होगी, एक दूसरे पर जान छिड़केंगे, लोग उन्हें मिसाली जोड़ा कहेंगे, मर्द मिसाली ख़ावंद कहलाएगा और औरत मिसाली बीवी कहलाएगी।

नसीब अपना अपना होता है, मगर जल्दबाज़ी से हराम काम होगा और सब्र कर लेने से हलाल बन जाएगा। अगर हमारे नौजवान इस नुक्ते पर ग़ौर करें तो शहवत पर क़ाबू पाना आसान हो जाएगा।

क़ुरआन मजीद में ज़िना का तज़किरा करते हुए फ़रमाया अज़्ज़ानियतु वज़्ज़ानी (ज़ानिया औरत और ज़ानी मर्द) इस आयत में औरत का तज़किरा पहले किया गया, जबकि मर्द का तज़किरा बाद में किया गया है। मुफ़स्सिरीन ने इसकी एक हिक्मत ये भी बयान की है कि बदकारी की इब्तिदा औरत से शुरू होती है, मसलन औरत ने पर्दा करने में बे एहतियाती की और मर्द ने देख लिया तो मुआमला आगे बढ़ा।

औरत ने मर्द से बात करते हुए नर्म लहजा इख्तेयार किया तो मर्द को बात से बात बढ़ाने का मौक़ा मिल गया। औरत बेवक्त बगै़र महरम के घर से निकली तो मर्द को ज़ना बिलजब्र का मौक़ा मिल गया। औरत ने मर्द की नीयत में फ़ुतूर महसूस करने के बावजूद अहल-ए-ख़ाना को ना बताया तो मर्द को वरग़लाने का मौक़ा मिल गया।

औरत ने मर्द का रुका पढ़ कर, टेलीफ़ोन सुन कर या पैग़ाम वसूल करके सख़्ती का रवैय्या ना इख्तेयार किया तो इसका नतीजा ज़िना तक जा पहुंचा। कोई मर्द किसी औरत से ज़िना करने में उस वक़्त तक कामयाब हो ही नहीं सकता, जब तक कि औरत ख़ुद आमादा ना हो।

इसीलिए क़ुरआन मजीद ने ज़िना के अमल में औरत को पहले कुसूरवार ठहराया है। लिहाज़ा ख़वातीन को चाहीए कि अपनी इफ़्फ़त-ओ-इस्मत की हिफ़ाज़त में कोई कमी ना होने दें। शरा शरीफ़ ने जिस तरह जिहाद करने वाले मर्द को मुजाहिद की फ़ज़ीलत से नवाज़ा है, इसी तरह एक पाकदामन औरत घर की चार दीवारी में रहते हुए अल्लाह के दफ़्तर में मुजाहिदा लिखी जाती है।

इसीलिए क़यामत के होलनाक दिन उसे अर्श का साया अता किया जाएगा।