बावीसवां रोजा : अल्लाह तआला को पुकारने का तरीक़ा

हर मज़हब की इबादत का अपना ढंग होता है। इसके अलावा हर मज़हब में ऐसी कोई न कोई रात या कुछ ख़ास बातें इबादत के लिए मख़्सूस (विशिष्ट) होती हैं जिनकी अपनी अहमियत होती है।

मज़हब-ए-इस्लाम की इबादत की नींव(बुनियाद) एकेश्वरवाद (ला इलाहा इल्ललाह) पर मुश्तमिल (आधारित) है। हज़रत मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अल्लाह तआला तआला के रसूल यानी संदेशवाहक (मोहम्मदुर्रसूलल्लाह) है। ये यक़ीन और तस्दीक़ यानी अल्लाह तआला और उसके रसूल को स्वीकारना जरूरी है।

इसको यों कह सकते हैं कि अल्लाह तआला पर ईमान लाना और रसूलल्लाह(स) के अहकामात मानना (ये अहकामात ही दरअसल अहकामे-शरीअत है) ही मज़हबे इस्लाम की बुनियाद है।

माहे रमज़ान को मज़हबे-इस्लाम में ख़ास मुक़ाम हासिल है। पाकीज़गी (पवित्रता) और परहेज़गारी की पाबंदी के साथ रखा गया रोज़ा रोज़ेदार को इबादत की अलग ही लज़्ज़त देता है।

दरअसल दोज़ख़ की आग से निजात का यह अशरा (जिसमें रात में की गई इबादत की खास अहमियत है) इक्कीसवीं रात (जब बीसवां रोज़ा इफ्तार लिया जाता है) से ही शुरू हो जाता है। वैसे इस अशरे में जैसा कि पहले कहा जा चुका है दस रातें-दस दिन होते हैं, मगर उन्तीसवें रोज़े वाली शाम को ही चांद नजर आ जाए तो नौ रातें-नौ दिन होते हैं।

इस अशरे में इक्कीसवीं रात जिसे ताक़ (विषम) रात कहते हैं नमाज़ी (आराधक) एतेक़ाफ़ (मस्जिद में रहकर विशेष इबादत) करता है। मोहल्ले में एक शख्स भी एतेक़ाफ करता है तो ‘किफ़ाया’ की वजह से पूरे मोहल्ले का हक़ अदा हो जाता है। दरअसल अल्लाह तआला को पुकारने का तरीक़ा और आख़िरत को संवारने का सलीक़ा है रमजान।