मुस्लिम महिलाओं ने ठाना, बनारसी साड़ी को नहीं होने देंगी खत्म, खुद बनाने का कर रही हैं काम!

हर महिला की पहली पसंद होती है बनारसी साड़ी दूरदराज के गांवों में चलने वाले करघों की खटर पटर बंद हो गई। इसे चलाने का बीड़ा।
उठाया है वाराणसी की मुस्लिम महिलाओं ने। देश विदेश से लेकर भारत में हर शुभ काम के दौरान हर महिला की पहली पसंद होती है बनारसी साड़ी।

यही वजह है कि फिल्मी हस्तियां भी बनारसी साड़ियों की कद्रदान हैं, लेकिन तेजी से बदल रहे फैशन और बनारसी साड़ी बनाने वाले कारीगरों की कमी ने हथकरघा पर तैयार होने वाली इन बनारसी साड़ियों के उत्पादन को काफी कम कर दिया।

जिसकी वजह से बनारस की शान कही जाने वाली यह साड़ियां और इन्हें तैयार करने के लिए घनी बस्तियों के साथ दूरदराज के गांवों में चलने वाले करघों की खटर पटर बंद हो गई। लेकिन इसे चलाने का बीड़ा उठाया है वाराणसी की मुस्लिम महिलाओं ने।

जो कारीगरी दम तोड़ चुकी थी, बुनकरों ने पुश्तैनी काम छोड़ कर नौकरी का रास्ता तलाशना शुरू कर दिया था। अब उन्हीं के घरों की महिलाएं आगे आई हैं। उन्होंनें शुरू किया है उस टूटे हुए ताने-बाने को फिर से जोड़ने का काम।

अब वे पारंपरिक बनारसी साड़ी के साथ साथ आधुनिक फैशन के मुताबिक भी परिधान बनाने लगी हैं ताकि बनारस की लुप्त होती इस परंपरा को पुनर्जीवित कर सकें और बनारसी साड़ी के परचम को फिर से अंतर्राष्ट्रीय बाजार दे सकें।

वाराणसी में बनारसी साड़ी उद्योग में इन दिनों महिलाओं का बोलबाला है और हथकरघा पर इन साड़ियों को तैयार करने का काम पुरुष नहीं यह महिलाएं ही कर रही हैं।

वाराणसी में बौद्धिक संपदा अधिकार और जीआई विशेषज्ञ एवं ह्यूमन वेलफेयर एसोसिएशन के निदेशक डॉ रजनीकांत का कहना है कि सितंबर 2009 में बनारसी साड़ी को जीआई का प्रमाणपत्र मिलने के बाद हथकरघा की बनारसी साड़ी एवं हथकरघा वस्त्र की मांग बढ़ी लेकिन उस दौर में इस काम से दूर हो चुके बुनकरों के कारण इनकी तादाद में कमी आने से समय से प्रोडक्ट तैयार नहीं हो पा रहा था।

इस कमी को पूरा करने एवं महिला बुनकरों को प्रतिस्थापित करने, प्रशिक्षित कर उन्हें सीधे बाजार से जोडने के लिए होटल ताज समूह व वाराणसी के गेटवे ताज होटल के सहयोग से ह्यूमन वेलफेयर एसोसिएशन ने वाराणसी के सजोई गांव से मुस्लिम परिवार की 16 युवतियों को पूर्णरूप से बुनकर के रूप में तैयार करने एवं रोजगार दिलाने की योजना पर काम किया।

युवतियां बुनकरी प्रशिक्षण के साथ पढ़ाई भी कर रही हैं। इनमें से कुछ युवतियां आठवीं कक्षा से लेकर स्नातक एवं एमए की पढ़ाई भी कर रही हैं। इस बारे में काशी विद्यापीठ में एमए कर रही फिजा बानो का कहना है की अगर पढाई के साथ अपने पुस्तैनी काम को करते हुए रोज 300-400 रुपये रोज साड़ी बुनने पर मिलता है तो हमारे लिए खराब क्या है। इस बारे में ह्यूमन वेलफेयर एसोसिएशन से जुड़े जलालुद्दीन अंसारी का कहना है कि बुनकरों की घटती संख्या की वजह से बनारसी साड़ी उद्योग को बड़ा नुकसान हो रहा था।

लेकिन जब इन 16 युवतियों ने बुनकरी की शुरुआत की तो इन्हें देखकर और युवतियां और महिलाएं भी इस पेशे से जुड़ गईं। जिसकी वजह से आज अकेले बनारस में 100 से ज्यादा युवतियां और महिलाएं साड़ी बुनाई का काम कर रही है और इनकी तैयार साड़ियों की डिमांड विदेशों से लेकर कई बड़े होटल ग्रुप और बड़े शोरूम में रहती है।

जिसका सीधा फायदा इन्हें मिलता है और इस काम के बल पर यह अपने और अपने परिवार की जिंदगी भी सुधार रही हैं।