मेरी कलम के साथ ही शुरू होती है मेरी सोच: गुलज़ार

कोलकाता: गुजश्ता पचास 50 सालो से भी ज्यादा शायरी और फिल्मी गीत लिख रहे गुलज़ार वैसे तो जदीद नस्ल के साथ तालमेल बैठाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन उनका कहना है कि वह कलम से कागज पर लिखने की अपनी पुरानी आदत को नहीं बदल सकते.

गुलज़ार से जब पूछा गया कि क्या उन्होंने कंप्यूटर और टैबलेट पर लिखना शुरू किया है, तो उन्होंने बताया, ‘‘मेरी सोच मेरी कलम के साथ ही शुरू होती है. इसलिए दूसरे लोगों से पीछे छूटे बिना, मैं कागज-कलम वाले अपने तरीके का ही इस्तेमाल करता हूं.’’ कोलकाता के दौरे के दौरान अपने हाथों से लिखी नोटबुक दिखाते हुए 80 साला गुलज़ार ने कहा कि, ‘‘मैं उर्दू में लिखता हूं और सबकुछ मेरे अपने हाथ का लिखा है. आप लोग कंप्यूटर पर लिखते हो . मैं उसका एहतेराम करता हूं.’’

संपूर्ण सिंह कालरा के तौर पर उभरे गुलज़ार ने 60 के दहा में एक हिंदी फिल्म के नगमा निग़ार के तौर पर अपने करियर की शुरूआत किये थे . वक्त गुजरता गया लेकिन नई नस्ल के लोगों के जज़्बातो पर उनकी पकड़ मजबूत बनी रही. यहां तक कि उन्होंने बॉलीवुड के लिए ‘कजरारे’ और ‘बीड़ी जलाई ले’ जैसे आइटम नंबर भी लिखे. हॉलीवुड की फिल्म ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ के लिए उनके लिखे गीत ‘जय हो’ ने उन्हें और ए आर रहमान को ऑस्कर और ग्रैमी एवार्ड दिलवाया. गुलजार कहते हैं, ‘‘मैं इस नस्ल के साथ चल रहा हूं और इस नस्ल के साथ मेरा एक ताल्लुक है. मैं गुजरे दौर में नहीं जीता.’’

हालांकि गुलज़ार ने अपनी तख्लीकी को ज़ाहिर करने के लिए कभी डिजीटल आलात के इस्तेमाल की कोशिश नहीं की लेकिन वह टेक्नालोजी की शक्ल से बिल्कुल ही गैर फआल किसी दूसरे बुजुर्ग शख्स की बराबरी में कहीं आगे हैं.

गुलज़ार कहते हैं, ‘‘मिसाल के तौर पर, चिट्ठी-पत्र का जो काम आप कंप्यूटर पर करते हैं, मैं उसे जानता हूं. मैं अपने ईमेल पढ़ता हूं और उनका जवाब भी देता हूं. मैं जो कुछ कर सकता हूं, वो मैं करता हूं. कंप्यूटर के वजूद से मुझे इंकार नहीं है.’’

जब पढ़ने की बात आती है, तब भी गुलजार असल किताब (ई-बुक नहीं) को ही पढ़ना पसंद करते हैं. वह कहते हैं, ‘‘मैं किताबें पढ़ता हूं, असल किताबें. मैं उनके साथ सहज महसूस करता हूं. मैं उन्हें अपने साथ रख सकता हूं. यह मेरी आदत है. मैं आपसे यह उम्मीद नहीं कर रहा कि आप भी ऐसा ही करें.

मुझे इसकी :ई-बुक पढ़ने की: आदत नहीं है लेकिन यह शायद ज्यादा आसान है.’’ ‘आंधी’, ‘खुशबू’, ‘मौसम’ और ‘अंगूर’ जैसी हिंदी फिल्मों का डायरेक्शन कर चुके गुलज़ार बदलते दौर के साथ हमेशा बने रहने के लिए नौजवान नस्ल पीढ़ी का हाथ थामते हैं और अमल करते हैं.

वह बताते हैं कि उन्होंने किस तरह अपने पोते से मोबाइल फोन का इस्तेमाल करना सीखा. गुलज़ार कहते हैं, ‘‘युवा नस्ल मेरी कियादत कर रही है. एक वक्त था, जब मैं उनका हाथ पकड़ता था, आज वे लोग मेरा हाथ थाम रहे हैं.’’ साल 1934 में झेलम :अब पाकिस्तान: में पैदा हुए गुलज़ार का खानदान बंटवारे के बाद हिंदुस्तान आ गया था.

बीते दौर की यादें सोच पर हावी होने की बात पूछे जाने पर गुलज़ार ने कहा कि, ‘‘बंटवारा मेरी जिंदगी में हुआ लेकिन क्या आपको लगता है कि मुझे बंटवारे के दौर में ही जीते रहना चाहिए? मैंने उसे देखा है लेकिन चूंकि हिंदुस्तान आगे बढ़ गया है, एक पूरी नस्ल आगे बढ़ गई है, मैं भी आगे बढ़ रहा हूं. मेरे गुजरे दौर में जीते रहने का कोई मतलब नहीं है लेकिन उस बीते दौर से इंकार भी नहीं किया जा सकता.’’

अंत में विदा लेते हुए गुलज़ार कहते हैं, ‘‘आप अपने बीते दौर को अपने साथ रखते हैं क्योंकि आपका मौजूदा दौर बीते दौर से आता है लेकिन आप उस बीते दौर के साथ जी नहीं सकते.’’