मोबाइल की लत बच्‍चों के मानसिक और शारीरिक स्‍वास्‍थ्‍य पर पड़ रहा है बुरा असर, निजात पाने के टिप्स

तकनीक की दुनिया के सबसे कामयाब नामों में शुमार बिल गेट्स से लेकर स्टीव जॉब्स तक ने कम उम्र में अपने बच्चों को गैजट्स से दूर रखा। दूसरी ओर, हमारे बच्चों को स्क्रीन की लत लग गई है। डब्ल्यूएचओ की सलाह है कि छोटे बच्चों को एक घंटे से ज्यादा स्क्रीन न देखने दें। एक्सपर्ट्स से पूछकर स्क्रीन, खासकर मोबाइल की लत से निजात पाने के टिप्स दे रही हैं प्रियंका सिंह…

बच्चों का मोबाइल से चिपके रहना घर-घर की समस्या बन गई है। आज बच्चे बहुत ज्यादा वक्त मोबाइल, टैबलेट, लैपटॉप, टीवी आदि पर बिता रहे हैं जोकि उनके शारीरिक और मानसिक विकास से लेकर परिवार के ताने-बाने तक के लिए खतरे की घंटी है। अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन की रिपोर्ट के अनुसार, 2 साल की उम्र तक के बच्चे भी रोजाना 3 घंटे तक मोबाइल पर बिता रहे हैं। इंग्लैंड की नैशनल हैंडराइटिंग असोसिएशन की एक रिसर्च का निष्कर्ष है कि 2 साल से कम उम्र के 58% बच्चे मोबाइल से खेलते हैं। ऐसे बच्चे पेंसिल पकड़ने, लिखने और ड्रॉइंग करने में कमजोर हो रहे हैं। इससे उनका हैंडराइटिंग का हुनर देर से विकसित हो रहा है। मोबाइल के ज्यादा इस्तेमाल से उनके हाथों की मांसपेशियां कमजोर हो रही हैं। हाल ही में डब्ल्यूएचओ ने पैरंट्स को सलाह दी है कि 2 से 5 साल तक के बच्चों को एक घंटे से ज्यादा टीवी, मोबाइल या कंप्यूटर न देखने दें। वैसे बेहतर यह है कि इस उम्र के बच्चों को मोबाइल से पूरी तरह दूर ही रखा जाए।

अब सवाल उठता है कि आखिर बच्चों को मोबाइल के जाल से कैसे बाहर निकालें? एक्सपर्ट्स की मानें तो थोड़ी कोशिशों से ऐसा करना मुमकिन है। जरूरी नहीं कि हर मामले में साइकॉलजिस्ट या काउंसलर की जरूरत पड़े, लेकिन पैरंट्स को जरूर वक्त रहते बच्चों पर ध्यान देना चाहिए ताकि वे मोबाइल की लत से बच सकें। परेशानी की बात यह भी है कि बच्चों को टीवी या मोबाइल से जो मानसिक खुराक मिल रही है, उससे वे ज्यादा हिंसक और असंवेदनशील हो रहे हैं। वे इंसानों के मुकाबले गैजट्स के साथ ज्यादा सुकून महसूस करते हैं। यह परिवार और रिश्तों के ताने-बाने के लिए सही नहीं है।

शौक से लत तक
बच्चे जब छोटे होते हैं तो अक्सर पैरंट्स खुद ही उनके हाथ में मोबाइल थमा देते हैं, कभी खाना खिलाने के लालच में तो कभी अपना काम पूरा करने के लिए तो कभी बच्चों को कविता, डांस आदि सिखाने के लिए। इस तरह धीरे-धीरे उन्हें मोबाइल देखने में मजा आने लगता है और वे इसका आदी हो जाते हैं। शुरुआती शौक कब लत या अडिक्शन में तब्दील हो जाता है, पता ही नहीं चलता। दरअसल, स्क्रीन अडिक्शन भी वैसी ही लत है जैसे किसी नशे की लत होती है। एक्सपर्ट्स इसे भी ड्रग्स, अल्कोहल, जुआ आदि की तरह ही क्लिनिकल इंपल्सिव डिसऑर्डर मानते हैं यानी किसी काम को करने से खुद को नहीं रोक पाना। जब मोबाइल या टीवी पर लगे रहना बच्चे के रुटीन कामों, मसलन नींद, भूख, होमवर्क, सेहत आदि पर असर डालने लगे और आप चाहकर भी स्थिति को बेहतर नहीं कर पाएं तो समझ जाइए कि खतरे की घंटी बज चुकी है। ऐसे में फौरन एक्सपर्ट यानी काउंसलर या साइकॉलजिस्ट की मदद लें।

रोजाना कितनी देर मोबाइल?
यह कहना बहुत मुश्किल है कि बच्चे रोजाना कितनी देर तक मोबाइल का इस्तेमाल कर सकते हैं। कोशिश करें कि 3-4 साल तक बच्चों को मोबाइल से दूर ही रखें। ऐसा करना मुमकिन न हो पा रहा हो तो भी इस उम्र के बच्चों को 30-60 मिनट से ज्यादा मोबाइल इस्तेमाल न करने दें। इसके अलावा, 5 साल से 12 साल तक के बच्चे को भी 90 मिनट से ज्यादा स्क्रीन नहीं देखना चाहिए। यह अवधि टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर सब मिलाकर है। इससे बड़े बच्चों (12 से 17 साल) के लिए जरूरी होने पर यह वक्त थोड़ा बढ़ा सकते हैं, लेकिन यह किसी भी कीमत पर दो घंटे से ज्यादा न हो।

स्क्रीन की लत के लक्षण
बर्ताव में बदलाव
– हमेशा मोबाइल से चिपके रहना
– मोबाइल मांगने पर बहाने बनाना या गुस्सा करना
– दूसरों के घर जाकर भी मोबाइल पर ही लगे रहना
– दूसरों से कटे-कटे रहना
– टॉइलट में मोबाइल लेकर जाना
– बेड में साइड पर मोबाइल रखकर सोना
– खेल के मैदान भी मोबाइल साथ ले जाना
– पढ़ाई और खेलकूद में मन न लगना
– पढ़ाई में नंबर कम आना
– ऑनलाइन फ्रेंड्स ज्यादा होना
– नहाने, खाने में बहानेबाजी करना

शारीरिक परेशानी
– नींद पूरी न होना
– वजन बढ़ना
– सिरदर्द होना
– भूख न लगना
– साफ न दिखना
– आंखों में दर्द रहना
– उंगलियों और गर्दन में दर्द होना

मानसिक समस्याएं
– ज्यादा संवेदनशील होना
– काम की जिम्मेदारी न लेना
– हिंसक होना
– डिप्रेशन और चिड़चिड़ापन होना

नोट: ये लक्षण दूसरी बीमारियों के भी हो सकते हैं। ऐसे में बर्ताव में बदलाव के साथ यह देखना भी जरूरी है कि बच्चा कितना वक्त मोबाइल पर बिताता है और क्या वाकई उसका असर बच्चे पर नजर आ रहा है?

बच्चों को कैसे बचाएं लत से
1. खुद बनें उदाहरण
बच्चे हमेशा वही सीखते हैं जो देखते हैं। ऐसे में आपको बच्चों के सामने रोल मॉडल बनना होगा। बच्चों के सामने मोबाइल, लैपटॉप या टीवी का कम-से-कम इस्तेमाल करें। अगर मां या पिता ने एक हाथ में बच्चा पकड़ा है और दूसरे में मोबाइल पर बात कर रहे हैं तो बच्चे को यही लगेगा कि मोबाइल और वह (बच्चा) बराबर अहमियत रखते हैं। ऐसा करने से बचें। अगर मदर होममेकर हैं तो कोशिश करें कि मोबाइल पर बातचीत या चैटिंग आदि तभी ज्यादा करें जब बच्चे घर पर न हों। सोशल मीडिया के लिए भी एक सीमा और वक्त तय कर लें। वर्किंग हैं तो घर पहुंचने के बाद बहुत जरूरी हो तभी मोबाइल देखें या फिर कोई कॉल आ रही हो तो उसे पिक करें। सुबह उठकर पहले बच्चों और खुद पर ध्यान दें, फिर मोबाइल देखें। अक्सर पैरंट्स अपना काम निपटाने के लिए बच्चों को मोबाइल थमा देते हैं। यह तरीका भी सही नहीं है। ऐसा कर आप अपने लिए फौरी राहत तो पा लेते हैं, लेकिन बच्चे को गैजट की ओर धकेल रहे होते हैं।

2. बनाएं गैजट-फ्री जोन
घर में एक एरिया ऐसा हो जहां गैजट लेकर जाने की इजाजत किसी को न हो। यह डाइनिंग या स्टडी एरिया हो सकता है। डिनर, लंच या ब्रेकफास्ट का वक्त पूरी तरह से फैमिली टाइम होना चाहिए। खाने के वक्त अक्सर पैरंट्स बच्चों के लिए टीवी ऑन कर देते हैं या मोबाइल दे देते हैं। यह गलत है। इससे बच्चे का ध्यान बंटता है और खाने का पोषण पूरा नहीं मिल पाता। साथ ही, उसका कंसंट्रेशन भी कमजोर होता है। इसी तरह, सोने से कम-से-कम एक घंटा पहले घर में डिजिटल कर्फ्यू लगा दें, मतलब मोबाइल और टैब्लेट जैसी चीजों से खुद भी दूर रहें और बच्चों को भी दूर रखें। बच्चा जब यह देखेगा तो वह खुद भी मोबाइल का इस्तेमाल जरूरत पड़ने पर ही करेगा।

3. बच्चों के साथी बनें
आजकल बहुत-से घरों में सिंगल चाइल्ड का चलन है। ऐसे में बच्चा अकेलापन बांटने के लिए मोबाइल या टैबलेट आदि का इस्तेमाल करने लगता है जोकि धीरे-धीरे लत बन जाती है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए आप घर में बच्चे के साथ क्वॉलिटी टाइम बिताएं। उसके साथ कैरम, लूडो, ब्लॉक्स, अंत्याक्षरी, पजल्स जैसे खेल खेलें। बच्चे को जितना मुमकिन हो, गले लगाएं ताकि उसे फिजिकल टच की अहमियत पता हो और वह महसूस कर सके कि किसी करीबी के छूने में जो गर्माहट है वह सोशल मीडिया की दोस्ती में नहीं। जब बच्चा स्कूल से घर आए तो उससे स्कूल की बातें सुनें, उसकी पसंद-नापसंद के बारे में जानें, उसके दोस्तों के बारे में बातें करें। हो सके तो बीच-बीच में उसके दोस्तों को घर पर बुलाएं। इस तरह की चीजों से बच्चे और पैरंट्स के बीच का रिश्ता बेहतर होता है और वह मोबाइल के बजाय सकारात्मक चीजों से जुड़ता है।

4. लालच न दें
अक्सर पहली बार पैरंट्स ही बच्चे को फोन पकड़ाते हैं और यह देखकर खुश होते हैं कि हमारा बच्चा कितना स्मार्ट है। लेकिन यही छोटी-सी गलती आगे जाकर बुरी आदत बन जाती है। इसके अलावा, कई बार पैरंट्स बच्चों से कहते हैं कि फटाफट होमवर्क कर लो तो फिर मोबाइल मिल जाएगा या खाना खाओगे तो मोबाइल देखने को मिलेगा। इस तरह की शर्तें बच्चों के सामने नहीं रखनी चाहिए। इससे बच्चे लालच में फटाफट काम तो निपटा लेते हैं, लेकिन उनका सारा ध्यान मोबाइल पर ही लगा रहता है। उन्हें ब्लैकमेलिंग की आदत भी पड़ती है कि फलां काम करने पर फलां चीज मिलेगी। वे खुद भी इस ट्रिक को दूसरों पर इस्तेमाल करने लगते हैं। अगर बाद में पैरंट्स मोबाइल न दें तो बच्चे को मां-बाप पर गुस्सा आने लगता है।

5. आउटडोर गेम्स में लगाएं
बच्चों के साथ मिलकर वॉक करें, योग करें या दौड़ लगाएं। बच्चों को रोजाना कम-से-कम एक घंटे के लिए पार्क ले जाएं। वहां उन्हें दौड़ने, फुटबॉल, बैडमिंटन आदि फिजिकल गेम्स खेलने के लिए प्रेरित करें। पैरंट्स खुद भी उनके साथ गेम्स खेलें। टग ऑफ वॉर, आंख मिचौली जैसे गेम भी खेल सकते हैं, जिन्हें खेलने के लिए ज्यादा कोशिश भी नहीं करनी पड़ती। यों भी विशेषज्ञों का कहना है कि अगर बच्चे रोजाना दो घंटे सूरज की रोशनी में खेलते हैं तो उनकी आंखें कमजोर होने से बच सकती हैं। इसके अलावा, मुमकिन हो तो बच्चे को उसकी पसंद के किसी खेल (क्रिकेट, फुटबॉल, टेनिस, बैडमिंटन आदि) की कोचिंग दिलाएं। इससे वह फिजिकली ज्यादा ऐक्टिव होगा और मोबाइल से भी दूर रहेगा।

6. हॉबी का सहारा लें
बच्चों की कई हॉबीज़ होती हैं जैसे कि पेंटिंग, डांस, म्यूजिक, रोबॉटिक्स, क्ले मॉडलिंग आदि। बच्चे की पसंद को देखते हुए हॉबी क्लास जॉइन करवाएं, खासकर अगर दोनों पैरंट्स वर्किंग हैं तो यह जरूरी है। इससे बच्चा घर में ज्यादा वक्त अकेला या मेड के साथ रहने को मजबूर नहीं होगा। क्लास में वह अपनी पसंद की चीज तो सीखेगा ही दूसरे बच्चों के साथ घुलने-मिलने से उसका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। यह भी मुमकिन है कि आगे जाकर वह अपनी हॉबी में भी बहुत अच्छा करने लगे और वह एक करियर ऑप्शन बन जाए।

7. घर के काम में हाथ बंटवाएं
घर के कामों में बच्चों की उनकी क्षमता के अनुसार मदद लें। इससे बच्चे आत्मनिर्भर बनेंगे और खाली समय मोबाइल पर बिताने के बजाय कुछ व्यावहारिक चीजें सीखेंगे। कपड़े फोल्ड करना, पानी की बोतल भरना, कमरा सेट करना, पौधों में पानी डालना, अलमारी लगाना जैसे काम बच्चे खुशी-खुशी कर सकते हैं। इन कामों में पैरंट्स बच्चों की मदद ले सकते हैं। इससे पैरंट्स पर काम का बोझ थोड़ा कम होगा और बच्चे आत्मनिर्भर भी बनेंगे।

8. किताबों से दोस्ती कराएं
बच्चों को फोन के बजाय किताबों की ओर ज्यादा ध्यान देने के लिए प्रेरित करें। उन्हें अच्छी स्टोरी बुक लाकर दें और उनसे कहानियां सुनें। जब बच्चों को स्टोरी बुक या कोई और बुक पढ़ने के लिए दें तो खुद भी कोई किताब पढ़ें। ऐसा न हो कि आप टीवी या लैपटॉप खोलकर बैठ जाएं या मोबाइल पर बातें करने लगें। आपको किताब के साथ देखकर उसका भी मन पढ़ाई में लगेगा। बच्चों को रात में सोने से पहले कुछ पॉजिटिव पढ़ने को कहें, फिर चाहे 2 पेज ही क्यों न हों। इससे नींद भी अच्छी आएगी।

9. पेट से कराएं दोस्ती
बच्चों को डॉग जैसा पालतू जानवर लाकर दें। इससे बच्चे केयर करना और दूसरों की भावनाओं को बेहतर तरीके से समझने लगते हैं। अगर ममा-पापा, दोनों वर्किंग हैं तो पेट बच्चे का अच्छा साथी साबित होता है। डॉग को खाना देना, उसकी साफ-सफाई का ध्यान रखना, उसे घुमाना जैसे काम करने से बच्चा बिजी तो रहता ही है, साथ ही उसे कई चीजों की प्रैक्टिकल जानकारी भी हो जाती है।

10. प्राथमिकताएं तय करें
अपनी और अपने परिवार की प्राथमिकताएं तय करें। जितने टाइम सेविंग डिवाइस आज हैं, उतना ही टाइम कम हो गया है लोगों के पास। इसकी वजह यही है कि हमने प्राथमिकताएं तय नहीं की हैं। आजकल अत्यावश्यक (अर्जेंट) और अहम (इम्पॉर्टेंट) के बीच फर्क खत्म हो गया है। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि सेहत अहम है, लेकिन अर्जेंट नहीं है इसलिए हम नजरअंदाज कर देते हैं। रिश्ते अहम हैं, लेकिन अर्जेंट नहीं हैं इसलिए पीछे छूट जाते हैं। ऐसे में प्राथमिकताएं तय करें और सेहत और रिश्तों को टॉप पर रखें। वैसे भी जिंदगी में बैलेंस बहुत जरूरी है। कोई भी चीज कितनी भी जरूरी क्यों न हो, अगर ज्यादा हो जाए तो वह नुकसान ही हो जाएगा। साथ ही, बच्चे के साथ मिलकर जिंदगी का लक्ष्य तय करें और वह लक्ष्य कुछ ऐसा हो जिसमें दूसरों के लिए भी कुछ करने का भाव हो। इससे बच्चा इधर-उधर वक्त बिताने के बजाय अपने लक्ष्य पर फोकस करता है।

ये ऐप्स भी कारगर

Mama Bear (Spyware)
Norton Family parental control
mSpy
Quality Time
ये ऐप एंड्रॉयड और iOs, दोनों के लिए हैं। इस तरह के ऐप इस बात पर निगरानी रखते हैं कि बच्चा किस-किस वेबसाइट पर कितनी देर बिताता है तो Qustodio premier, Cracked Screen Prank जैसे ऐप एक तय टाइम पर मोबाइल की स्क्रीन में क्रैक जैसा लुक दे देता है। क्रैक्ड स्क्रीन देखकर अक्सर बच्चा मोबाइल छोड़ देता है। छोटे बच्चे पर इसे अपना सकते हैं।

डिजिटल डी-टॉक्सिफिकेशन जरूरी
अपने घर के लिए डिजिटल डी-टॉक्सिफिकेशन का नियम बनाएं। हर हफ्ते में एक दिन और महीने में कुल 4 दिन गैजट फ्री रहें। सुनने में यह मुश्किल जरूर लगता है, लेकिन ऐसा करना मुमकिन है। इस दौरान आप मोबाइल का स्विच ऑफ रखें या उसे फ्लाइट मोड पर रखें। इस दौरान साथ मिलकर ऐक्टिविटी करें। फैमिली के साथ मिलकर गेम्स खेलें। शुरुआत आप दो घंटे से कर सकते हैं। फिर धीरे-धीरे टाइम बढ़ा सकते हैं। इस दौरान जरूरी कॉल होगा तो लैंडलाइन पर आ जाएगा। अगर लैंडलाइन नहीं है तो मिस्ड कॉल का मेसेज मिल जाएगा। 2 घंटे बाद जाकर मोबाइल देखें और अगर कोई जरूरी कॉल लगे तो पलटकर फोन मिला लें। दरअसल, लोग अक्सर मन को बहलाने के लिए चैटिंग या सोशल मीडिया सर्फिंग शुरू कर देते हैं या टीवी देखने लगते हैं। इन सबमें मजा जरूर आ सकता है, लेकिन दिमाग को आराम नहीं मिलता बल्कि उसका और ज्यादा इस्तेमाल होने लगता है। आराम नहीं मिलने से दिमाग थक जाता है। इससे चिड़चिड़हाट होगी और कंसंट्रेशन नहीं होगा। गलतियां भी ज्यादा होंगी।

आज से आप भी अपने और अपने परिवार को हफ्ते में एक दिन डिजिटल डी-टॉक्सिफाई करना शुरू करें। आज आप इसके लिए 2 घंटे का वक्त तय कर सकते हैं। इस बीच टीवी, मोबाइल, लैपटॉप आदि गैजट के बजाय फैमिली के साथ फन टाइम बिताएं। आपने अपने परिवार के साथ कैसे वक्त बिताया, हमें लिखें sundaynbt@gmail.com पर। सब्जेक्ट में mobile लिखें। आप अपने परिवार के साथ फन टाइम के फोटो हमारे फेसबुक पेज Sundaynbt पर भी शेयर कर सकते हैं। साथ ही, हमें मेल पर या मोबाइल नंबर 89298-16941 पर बताएं कि डिजिटल डीटॉक्सिफिकेशन की हमारी मुहिम को आप सही मानते हैं या नहीं?

एक्सपर्ट्स की राय
‘बच्चों के दोस्त बनने की कोशिश न करें, बल्कि दोस्ताना रवैये वाले पैरंट्स बनें। दोस्त तो उनके पास काफी होंगे, लेकिन उन्हें सही दिशा देने वाले पैरंट्स आप ही हैं। आजकल पैरंट्स बच्चों की पसंद के खिलाफ कदम नहीं उठाना चाहते। पैरंट्स बच्चों से रोकटोक कर सिरदर्द नहीं लेना चाहते, लेकिन आगे जाकर इसी वजह से उनका दिल टूटता है।’
-शिव खेड़ा, मोटिवेशनल स्पीकर और लेखक

‘बच्चों के रोल मॉडल बनें। वे वही करते और सीखते हैं जो देखते हैं। अगर आप एक हाथ में मोबाइल और दूसरे में बच्चा पकड़े रहेंगे तो बच्चे को लगेगा कि मोबाइल भी इसके जितना ही अहम है। ऐसे में पैंरंट्स के लिए जरूरी है कि वे घर में मोबाइल का इस्तेमाल जरूरी होने पर ही करें।’
– डॉ. समीर पारिख, सीनियर सायकायट्रिस्ट