उर्दू के शायर एवं इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी के पूर्व अध्यक्ष यूनुस देहलवी नहीं रहे, याद आएंगे शमा और सुषमा के संपादक

नई दिल्ली : मोहम्मद यूनुस देहलवी नहीं रहे। वो 89 साल के थे। वो 60 से 90 के दौर की बेहद लोकप्रिय फिल्मी पत्रिकाओं शमा और सुषमा के संपादक और प्रकाशक थे। ये दोनों लाखों की तादाद में बिकती थीं। उर्दू के शायर एवं इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी के पूर्व अध्यक्ष एम यूनुस देहलवी का सुपुर्द-ए-खाक दिल्ली के करोल बाग स्थित कब्रिस्तान में किया गया। अंजुमन ट्रस्ट के चेयरमैन मोहम्मद असलम ने बताया कि 89 वर्षीय देहलवी लंबे समय से बीमार चल रहे थे, उन्होंने अंतिम सांस डीएलएफ स्थित निवास पर लिया। देहलवी उर्दू के कई मैगजीन में सेवाएं देने के साथ ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन के चेयरमैन और इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ न्यूजपेपर एंड जर्नल के सदस्य एवं इंस्टिट्यूट ऑफ मार्केटिंग एंड मैनेजमेंट के चेयरमैन भी रहे थे। अंतिम समय में भी वह अंजुमन ट्रस्ट के चीफ पैट्रन की भूमिका में थे। देहलवी साहब की बेटी सादिया देहलवी प्रख्यात लेखिका हैं और पुत्र वसीम फिल्म प्रोड्यूसर हैं।

देहलवी साहब ने अपनी पत्रिकाओ को सिर्फ फिल्मी ही नहीं बनाकर रखा था। उसमें वो किश्न चंदर, इस्मत चुगताई और राजिन्दर सिंह बेदी जैसे उम्दा कहानीकारों को नियमित रूप से छापते थे। वरिष्ठ लेखिका, इतिहासकार और अनुवादक रक्षंदा जलील बताती हैं कि नरगिस और मीना कुमारी भी शमा-सुषमा के लिए बीच-बीच लिखा करती थीं। हालांकि ये बात समझ से परे है कि इतनी सफल पत्रिकाओं को निकालने वाला प्रकाशन समूह धीरे-धीरे नेपथ्य में कैसे चला गया?

दरअसल शमा प्रकाशन नाम के पौधे को यूसुफ देहलवी ने लगाया था, उसे घना दरख्त बनाया उनके पुत्र मोहम्मद यूनुस देहलवी ने। उन्होंने शमा प्रकाशन को एक साम्राज्य बनाया। एक दौर में इसका आसिफ अली रोड पर स्थित दफ्तर गुलजार रहा करता था। वहां पर मशहूर फिल्मी सितारे यूनुस साहब से मुलाकात के लिए पहुंचते थे ताकि उनका इंटरव्यू शमा और सुषमा में छप जाए। हालांकि बाद में धीरे-धीरे शमा और सुषमा दोनों अपनी पकड़ खोती चली गईं।

मोहम्मद यूनुस देहलवी साहब के पॉश सरदार पटेल मार्ग के बंगले ‘शमा घर’ में लगातार मुशायरें और दूसरी साहित्यिक महफिलें होती थीं। उधर आने वालों की बेहतरीन तरीके से मेहमान नवाजी होती थी। उस घर को बाद में बसपा नेता मायावती ने खरीद लिया था। देहलवी साहब के गुजरे 50 साल से दोस्त रहे नवाब जफर जंग बताते हैं कि यूनुस भाई बहुत शालीन और सुसंस्कृत इंसान थे। वे अपने पुराने यारों को भूलते नहीं थे। पुरानी दिल्ली से सरदार पटेल मार्ग शिफ्ट कर लेने के बाद भी उन्होंने अपने पुराने यारों को भुलाया नहीं था। वे उनकी आड़े वक्त में मदद करने से कभी पीछे नहीं हटते थे। उन्होंने ये भी बताया कि देहलवी साहब के परिवार के बुजुर्गों ने देश के बंटवारे के वक्त पाकिस्तान जाने से इंकार कर दिया था।

मोहम्मद यूनुस देहलवी को अंतिम विदाई देने वालों में उनकी पंजाबी मुसलमान बिरादरी भारी संख्या में कब्रिस्तान में पहुंची थी। ये कब्रिस्तान पंजाबी मुसलमानों का ही है। वे अपनी बिरादरी के बुजुर्ग और संरक्षक थे। सबके सुख-दुख में शामिल होते थे। इसलिए सबकी आंखें नम थीं। दिल्ली के पंजाबी मुसलमानों को सौदागरान भी कहा जाता है। ये अधिकतर कारोबारी हैं। इनमें से कई अपने पुराने सरनेम जैसे वालिया, चावला, सेठ भी अपने नाम के साथ लगाते हैं।