रोजा का मकसद तकवा

(मौलाना मोहम्मद अमजद कासमी)अल्लाह तआला ने जितने भी एहकामात इंसानों को दिए हैं हर हुक्म में कोई न कोई मसलेहत है। कोई फायदा या कोई न कोई मकसद जरूर इसमें पोशीदा है। यह और बात है कि कुछ मसलेहत फायदा मकसद साफ जाहिर और वाजेह होता है। इसको मालूम करने के लिए गोताजनी की जरूरत नहीं पड़ती बल्कि हुक्म पढते ही मकसद साफ तौर पर मालूम हो जाता है।

जैसे रोजा अल्लाह ने फर्ज फरमाया और इसका मकसद साफ तौर पर बता दिया तकवा कि यह रोजे इसलिए फर्ज हुए हैं ताकि अल्लाह के बंदों में तकवा, खुदा का खौफ और डर पैदा हो जाए जिस तरह रोजे की हालत में आदमी को सख्त भूक लगी हो या सख्त प्यास लगी हो, रूम में तनहा है कोई उसे देखने वाला नहीं है और वहां खाने पीने की हर चीज मौजूद है यह चाहे तो खाकर भूक मिटा सकता है, पानी पीकर प्यास बुझा सकता है और बाहर आकर लोगों में किसी के पूछने पर कि रोजा हो, शौक से अलहम्दोलिल्लाह कह सकता है।

इसलिए कि रोजा रखने न रखने से चेहरे पर कोई ऐसा निशान जाहिर नहीं होता, कोई ऐसी अलामत जाहिर नहीं होती जिसे देखकर आदमी यकीन के साथ कह दे कि यह रोजा से है या रोजे से नहीं है। लेकिन इसके बावजूद भी कोई भी अल्लाह का बंदा ऐसा नहीं करता कि तनहाई में खा पी कर लोगों में अपने आप को रोजेदार बतलाए।

इसलिए कि रोजा की हालत में हर रोजेदार के जेहन मे यह चीज रची और बसी है कि मैंने रोजा जिसके लिए रखा है वह अल्लाह मुझे देख रहा है जिसकी बुनियाद पर हाथ खाने और पानी की तरफ नहीं बढता और इंसानी ख्वाहिशात व ख्यालात अपनी मंकूहा बीवी से भी मबाशरत की तरफ मायल नहीं होते।

जबकि खाना हलाल पानी हलाल मंकूहा बीवी हलाल मगर चूंकि अल्लाह का हुक्म आ गया कि सुबह सादिक से सूरज डूबने तक उनका इस्तेमाल नहीं करना है तो बंदा उससे रूक जाता है जो चीजें पहले से हराम हैं उनकी हुरमत नसे कतई से साबित है जैसे शराब जिना सूद रिश्वत झूट गीबत धोका और जुआ नाप तौल में कमी मामलात में अदम सफाई लड़ाई झगड़ा बदकलामी और बोहतान इन तमाम चीजों से हर मुमकिन बचना चाहिए और जिस तरह रोजे की हालत में इस्तेहजारे खुदावंदी है कि मेरा खुदा मुझे देख रहा है उसी तरह इन कामों के मौकों पर भी उस आला जात का इस्तेहजार होना चाहिए कि जिस खुदा ने इन कामों को हराम करार दिया है वह खुदा मुझे देख रहा और जब हर काम में उस जात का इस्तेहजार होगा तो आदमी के लिए हर बुरे काम से बचना आसान होगा,

तकवा की सिफत पैदा हो जाएगी अल्लाह का खौफ व डर हर बुरे काम के करने में पैदा हो जाएगा और बंदे से बुराइयां खत्म होती चली जाएंगी। अल्लाह ने अपने अबदी कलाम में ही रोजा का मकसद बताया है।

फरमाया कि ऐ ईमान वालो! तुम पर रमजान के रोजे फर्ज किए गए जैसे तुम से पहली उम्मतों पर रोजे फर्ज थे ताकि तुम मुत्तकी व परहेजगार बन जाओ।

रोजा ऐसी इबादत है कि इसमें रिया का, नमूद का,शोहरत व दिखावे का शायबा भी नहीं होता। यह खालिस अल्लाह के लिए ही होता है।

इसलिए अल्लाह ने फरमाया हदीस कुदसी है कि रोजा मेरे लिए है और मैं ही इसका बदला दूंगा और जिस अमल के बदले में खुदा खुद मिल जाए उस अमल की शान क्या होगी। जिसे खुदा मिल जाएं तो फिर पूरी कायनात उसकी है।

इसलिए इस मुबारक महीने की सही कद्र कीमत हर मोमिन का फरीजा है कि इसके एक एक लम्हे की कद्र की जाए और जो भी नाफरमानी के काम हैं उनसे मुकम्मल तौर पर परहेज किया जाए। इसलिए कि रोजा रहकर अगर इन कामों से न बचा जाए तो हदीस में अल्लाह की तरफ से नबी की जबानी सख्त बेनियाजी व वार्निंग दी गई है। जो कोई बेहूदा बकवास और गलत काम रोजे की हालत में तर्क नहीं करता तो उसके लिए कोई जरूरत नहीं है कि वह खाना पीना छोड़े।

यह बात भी जेहन नशीन रहे कि जिस तरह अल्लाह इस मुबारक महीने में नेक कामों की नेकियों की रफ्तार को बढा देता है कि नफिल पढो फर्ज का सवाब लो और फर्ज पढो सत्तर फर्ज का सवाब लो।

इसी तरह कोई इस मुबारक महीने में गुनाह करता है अल्लाह के हुक्म के खिलाफ चलता है तो अल्लाह की तरफ से गिरफ्त भी बहुत सख्त होती है।

इसलिए अपने आप को गुनाहों से बचाना बहुत जरूरी है कि नमाज छूटने न पाए झूट का कलमा जबान से निकलने न पाए किसी की चुगली न होने पाए और अपने आप को पूरे तौर से मकसदे तखलीक, जो इबादत है, की तरफ मुतवज्जो कर लें। रोजे रखें, नमाजें पढें, तरावीह पढें, लोगों के साथ एहसान व भलाई का मामला करें अपने मालों की पूरे हिसाब से जकात निकालें। चूंकि नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) की सखावत इस महीने में तेज हवा के साथ चलती थी।

उम्मीद है कि अल्लाह तआला तकवा की सिफत हमारे अंदर पैदा फरमाएंगे।

बशुक्रिया: जदीद मरकज़