रोहिंग्या नरसंहार के बाद से म्यांमार की इज्जत को नहीं बचा पा रही हैं आंग सान सू ची!

विश्व स्तर पर भारी आलोचना और लगातार राजनयिक दबाव के बाद म्यांमार में दो पत्रकारों को रिहा कर दिया गया. लेकिन इन पत्रकारों को माफी देकर क्या म्यांमार की नेता आंग सान सू ची ने अपनी गिरती साख को बचाने की कोशिश की है?

समाचार एजेंसी रॉयटर्स के लिए काम करने वाले इन पत्रकारों को रखाइन प्रांत में रोहिंग्या मुसलमानों पर सेना के अत्याचारों की रिपोर्टिंग के लिए जेल में डाला गया था. डेढ़ साल पहले जब से इन पत्रकारों को हिरासत में लिया गया, तभी से इस मुद्दे को लेकर म्यांमार की सरकार पर चौतरफा दबाव था.

पर्यवेक्षकों का कहना है कि अचानक से पत्रकारों की रिहाई एक राजनीतिक फैसला है जिसका मकसद म्यांमार की असैनिक नेता आंग सान सू ची की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गिरती साख को बचाना है. इन पत्रकारों की वजह से म्यांमार की खासी बदनामी हो चुकी है.

अमल क्लूनी जैसी नामी वकील जहां इन पत्रकारों की कानूनी टीम में शामिल हुईं, वहीं अमेरिकी पत्रिका टाइम ने उन्हें अपने कवर पर जगह दी. प्रतिष्ठित पुलित्जर सम्मान समेत इन पत्रकारों को ढेरों अवॉर्ड भी मिले.

राष्ट्रपति की तरफ से मिले क्षमादान की वजह से 33 साल के वा लोन और 29 साल के क्वा सोए ओओ को जेल से रिहा कर दिया गया. उनकी रिहाई पर व्हाइट हाउस से लेकर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंटोनियो गुटेरेश तक की तरफ से बधाई संदेश आए.

ये दोनों पत्रकार पांच सौ दिन से ज्यादा समय तक जेल में रहे. उन्हें औपनिवेशिक दौर के राष्ट्रीय गोपनीयता कानून के तहत दोषी ठहरा कर जेल भेजा गया था. वे रखाइन में सैन्य अभियान के दौरान 10 रोहिंग्या लोगों की हत्या से जुड़े मामले की पड़ताल कर रहे थे.

एक स्वतंत्र विश्लेषक रिचर्ड होर्स्ले कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पत्रकारों के मामले को जितनी तवज्जो मिली, उससे म्यांमार की छवि को और ज्यादा नुकसान हुआ.

रोहिंग्या लोगों के दमन और उत्पीड़न पर शांति नोबेल पुरस्कार विजेता सू ची को पहले ही बहुत खरी खोटी सुननी पड़ी है. बहुत से लोग उन्हें इस पूरे मामले में एक भागीदार के तौर पर देखते हैं. कई लोगों ने उनसे नोबेल पुरस्कार तक वापस लेने की बात कही.

ऐसे में, पत्रकारों की अचानक हुई रिहाई पर सरकारी प्रवक्ता झा ह्ते कहते हैं कि देश के ‘दीर्घकालीन हितों’ को देखते हुए यह फैसला किया गया. पूर्व थाई राजनयिक और सू ची की सरकार में सलाहकार रह चुके कोबसाक चुतीकुल कहते हैं कि वरिष्ठ अधिकारी जानते थे कि किसी ना किसी वक्त तो पत्रकारों को माफी देनी ही पड़ेगी, लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा था कि यह मामला सू ची पर इतना भारी पड़ सकता है.

पर्यवेक्षक की राय में इस फैसले की एक राजनीतिक वजह भी है. कोबसाक कहते हैं कि अगले साल म्यांमार में चुनाव होने वाले हैं और चुनावों पर इस मुद्दे का असर ना पड़े, इसलिए अभी यह फैसला किया गया.

लेकिन पत्रकारों की रिहाई में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली कड़ी निंदाओं और पिछले दरवाजे से होने वाली कूटनीतिक कोशिशों का भी बड़ा योगदान है. इसी के चलते सू ची पत्रकारों की रिहाई के लिए तैयार हो पाईं.

दोनों पत्रकारों को पिछले साल सितंबर में दोषी करार दिया गया था. यांगोन की हाई कोर्ट के साथ साथ देश की सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले पर मुहर लगाई. रॉयटर्स का कहना है कि इन पत्रकारों को उनकी खोजी पत्रकारिता के लिए दंडित किया गया. वहीं कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि उनके मुकदमे में शुरू से ही कई तरह की खामियां थीं.

इन पत्रकारों की रिहाई के बावजूद पर्यवेक्षक चेतावनी देते हैं कि म्यांमार में प्रेस की आजादी के लिए चुनौतियां लगातार जस की तस बनी हुई हैं. एक सामाजिक कार्यकर्ता चीकी जाहाउ का कहना है, “इन पत्रकारों की माफी से वे हालात नहीं बदलेंगे जिनमें आम तौर पर पत्रकारों को यहां काम करना पड़ता है.”

साभार- डी डब्ल्यू हिन्दी