वर्चस्व का औज़ार बना इस्लामोफोबिया

11 सितंबर, 2001 के हमलों को 15 साल से अधिक हो गए हैं, लेकिन सही मायने में पश्चिमी समाज में इस्लामोफोबिया अब फलफूल रहा है. पिछले दो साल की राजनीतिक घटनाओं ने इन सबमें बड़ी भूमिका निभाई है. हाल की घटनाओं ने दुनिया के मुसलमानों में ये एहसास ताजा कर दिया है कि इस्लाम का डर बढ़ चुका है. ये मसला महज नस्लपरस्तों और अल्पसंख्यकों का ही नहीं बल्कि समाज की एक तल्ख हकीकत भी है.

न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में पिछले दिनों हुये आतंकी हमले से ज़हीर है की यूरोप-अमेरिका में उभरे धूर दक्षिणपंथ का संक्रामण अब औस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड तक हो चुका है। क्राइस्टचर्च की दो मस्जिदों पर हमला करने वाला मुख्य हमलावर ब्रेटन टैरेंट इस्लामोफोबिया का शिकार है और विशुद्ध श्वेतवाद को पुनर्स्थापित करना चाहता है। उसका रास्ता भले ही आतंक का हो, पर वह वही सब बोल रहा है जो पिछले यूरोप में कुछ सालों में उभरे राष्ट्रवादी कर रहे थे और अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प दोहरा रहे हैं। और इसी लिए शायद टैरेंट अपना आदर्श ट्रम्प को मानता है। अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प तो पिछले साल से ही इस्लाम विरोधी बातें और काम कर रहे हैं।

ब्रिटेन में दो राजनीतिक घटनाएं महत्वपूर्ण हैं, जो दोनों साल 2016 में हुईं. लंदन के मेयर का चुनाव और यूरोप से निकलने के सवाल पर ब्रिटेन में जनमत संग्रह. लंदन के मेयर के चुनाव में मुस्लिम उम्मीदवार (लेबर पार्टी) के खिलाफ जिस तरह से ब्रिटिश प्रधानमंत्री तक ने ‘इस्लामोफोबिया’ का इस्तेमाल किया है, उसकी शायद ही कोई और मिसाल मिलती हो. चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने सदन में सादिक खान का चरमपंथी तत्वों से संबंध जोड़ा और कहा कि ‘लेबर पार्टी के उम्मीदवार चरमपंथियों के साथ एक ही मंच पर बैठ चुके हैं और मुझे उनके बारे में बहुत चिंता है.’

ये शब्द किसी अति दक्षिणपंथी या अतिवादी आंदोलन के नेता नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री के थे और उन्हीं की पार्टी के उम्मीदवार जैक गोल्डस्मिथ ने इसी इस्लामोफ़ोबिया को अपनी चुनावी मुहिम का केंद्रबिंदु बनाया. बार-बार मुस्लिम उम्मीदवार सादिक खान का संबंध इस्लामी चरमपंथियों से जोड़कर मतदाताओं को डराया गया और हिंदू-सिख मतदाताओं को ख़ास तौर से डराते रहे कि मुस्लिम मेयर का होना उनके लिए अच्छा नहीं होगा.

फिर आई जनमत संग्रह की बारी. मुख्यधारा की राजनीति में मुस्लिम विरोधी भावनाएं आप्रवासी विरोधी भावनाओं के साथ घुलमिल गई और बाहर वालों ‘या आप्रवासी लोगों को कोसने या उन्हें बुरा-भुरा कहना एक तरह से स्वीकार्य हो गया. इसमें भी राजनेताओं और सत्ताधारी दल के लोगों का एक बड़ा और बुरा किरदार था. जैसे यूरोप में होता है, वैसे ही ब्रिटेन की धुर दक्षिणपंथी पार्टियां, जिन्हें हम कम ही चुनते रहे हैं, सालों से ऐसी बातें करती रही हैं.

हेट क्राइम के मामलों की जानकारी इकट्ठा करने वाली संस्था ‘टेल मामा’ के अनुसार जनमत संग्रह के बाद नफरत की वजह से होने वाली घटनाओं में काफी वृद्धि हुई है. एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार कई साल के बाद फिर ‘पाकी’ को बतौर उपहास इस्तेमाल किया गया और हिजाब पहनने वाली महिलाओं को भी विभिन्न घटनाओं में निशाना बनाया गया.

11 सितंबर के बाद की अवधि में यह सोच तो बढ़ रही थी कि मुसलमान पश्चिमी समाज के लिए एक समस्या है और उनकी सोच और धर्म का पश्चिमी समाज के मूल्यों से तालमेल नहीं है. लेकिन इस ख्याल को मुख्यधारा में लाने से स्थिति और बिगड़ गई है. लंदन में फिंसबरी पार्क मस्जिद के पास हमले में प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि हमलावर ने मुसलमानों से नफरत का इजहार किया और गाड़ी लोगों पर चढ़ा दी. इससे पहले वेस्टमिंस्टर, मैनचेस्टर एरीना और लंदन ब्रिज के पास होने वाले हमलों के बाद लोगों ने खुलेआम मुसलमानों को कसूरवार ठहराना शुरू कर दिया. पुलिस के अनुसार मैनचेस्टर हमले के बाद मुसलमानों के खिलाफ नफरत की वजह से होने वाले हमलों में पांच गुना वृद्धि देखने को मिली.