शादी ब्याह के रस्म व रिवाज

इंसान की जिंदगी के मराहिल में एक अहम मरहला शादी-ब्याह का है। इस्लाम ने इसे सादगी से अंजाम देने की तरगीब दी है। कुरआन मजीद में अल्लाह तआला फरमाता है : जो औरतें तुमको पसंद आएं उनमें से दो-दो, तीन-तीन, चार-चार से निकाह कर लो। लेकिन अगर तुम्हें अंदेशा हो कि उनके साथ इंसाफ न कर सकोगे तो फिर एक ही बीवी को रखो।’’ निकाह की अहम बात मेहर की अदाएगी है। इसके बगैर निकाह नहीं है। हजरत अली (रजि0) का निकाह जब फातिमा (रजि0) से करने का नबी करीम (स0अ0व0) ने इरादा किया तो हजरत अली (रजि0) से कहा कि तुम्हारें पास मेहर में देने के लिए कुछ है तो उन्होंने कहा कि जर्रे के इलावा मेरे पास कुछ नहीं है। फिर अल्लाह के रसूल (स०अ०व०) ने उस जर्रे को फरोख्त करके मेहर की अदाएगी और कुछ जरूरी सामान की फराहमी की हिदायत की।
कुरआने हकीम में अल्लाह तआला फरमाता है -‘‘और औरतों के मेहर खुशदिली के साथ (फर्ज जानते हुए) अदा करो। अलबत्ता अगर वह खुद अपनी खुशी से मेहर का कोई हिस्सा तुम्हें माफ कर दें तो उसे मजे से खा सकते हो।’’(4-4)
बर्रे सगीर में आमतौर पर इस्लाम के मिजाज के खिलाफ अमल हो रहा है। जब इस्लाम यहां आया तो बहुत से लोग इस्लाम में दाखिल हुए लेकिन यहां के रस्म व रिवाज का लिबादा मुकम्मल तौर से उतार न सके। बल्कि इस्लाम में भी उन रस्मों को जगह दे दी। इसलिए शादी ब्याह की नामाकूल और खिलाफे शरअ रस्मों के इर्तिकाब में बड़े-बड़े दीनदार लोगों को कोई हर्ज नहीं होता। नबी करीम (स०अ०व०) का इरशाद है – तुम में से जो किसी बुराई को देखे तो उसे चाहिए कि वह उसको अपने हाथ से रोक दे।

अगर इसकी ताकत न हो तो जबान से उसको रोके, अगर इसकी भी ताकत न हो तो दिल से उसको बुरा समझे और यह ईमान का कमजोर तरीन दर्जा है।

आदमी फितरी तौर पर अपने घर का सरबराह है और सरबराह की जिम्मेदारी है कि वह घर के लोगों को सीधे रास्ते पर रखे और उससे उनको भटकने ना दे। इस मुकाम पर फायज मर्द के यह कौल शायाने शान नहीं है कि शादी की रस्मों में बीवी मेरी बात नहीं मानती, बच्चे नहीं मानते। यह उसके शिवा-ए-मर्दानगी के भी खिलाफ है। क्योंकि कुरआन मजीद में अल्लाह तआला फरमाता है – मर्द औरतों पर कवाम है इस बिना पर कि अल्लाह ने उनमें से एक को दूसरे पर फजीलत दी है और इस बिना पर कि मर्द अपने माल खर्च करते हैं। इसलिए जो सालेह औरतें हैं वह इताअत शिआर होती हैं और मर्दों के पीछे अल्लाह की हिफाजत व निगरानी में उनके हुकूक की हिफाजत करती हैं। (4-34)

मजकूरा हिदायात की रौशनी में सोंचना चाहिए कि मुनकरात से समझौता ईमान को किस पस्ती में धकेल रहा है। हजरत इब्ने उमर (रजि0) की रिवायत कर्दा हदीस में है – खबरदार! तुम सब के सब निगरां और जिम्मेदार हो और तुम सबसे अपनी-अपनी रियाया के बारे में पूछ होगी। हाकिमे वक्त लोगों पर हुक्मरां व जिम्मेदार और निगरां है। और उससे उसकी रईयत (मुल्क के अवाम) की बावत पूछ होगी।

मर्द घर वालों पर निगरां है और उससे उनकी बावत पूछा जाएगा। औरत अपने खाविंद के घर और उसके बच्चों की निगरां है और उससे उनकी बाबत पूछ होगी। गुलाम अपने आका के माल का निगरां है और उससे उसकी बाबत पूछा जाएगा। अच्छी तरह सुन लो तुम सब निगरां और जिम्मेदार हो और तुम सबसे अपने-अपने मातहतों के बारे में पूछा जाएगा।

इस हदीस की रौशनी में जायजा लिया जाए कि शादी ब्याह में होने वाली खिलाफे शरह रस्म व खुराफात से अपने मातहतों को बचाने में क्या किरदार हमने अदा किया है। हर शख्स आखिरत की पूछ को सामने रखे हमारी शादी ब्याहों की बेश्तर रस्मों नक्काली पर मबनी हैं या मगरिब की तहजीब और जाहिलियत के जमाने की खुराफात से माखूज हैं।

कदीम व जदीद जाहिलियत का मजमूई मिजाज और इस्लामी तालीमात से यकसर बेएतनाई का नमूना है। ऐसी शादी में जौक व शौक से शरीक होकर हौसलाअफजाई जाहिली तारीकों को फरोग देना है। आखिरत में हर शख्स का वह मकाम वाजेह होकर सामने आएगा जिसका हेवली उसने अपने अमल व किरादार से तैयार किया होगा। अल्लाह के नापसंदीदा शख्स का जो मकाम होगा उसका अंदाजा जाहिलियत के रस्मों के दिलदादा हर मर्द और औरत को कर लेना चाहिए।

हजरत जरीर (रजि0) से रिवायत है नबी करीम (स०अ०व०) ने फरमाया – जिसने इस्लाम में कोई अच्छा तरीका ईजाद किया तो उसको खुद उसपर अमल करने का अज्र भी मिलेगा और उनका भी अज्र मिलेगा जो उसके बाद उस पर अमल करेंगे बगैर इसके कि उनके अज्रों में कुछ कमी हो और जिसने इस्लाम में कोई बुरा तरीका ईजाद किया उस पर (उसके अपने अमल का भी) बोझ होगा और उन सबके गुनाहों का भी बोझ होगा जो उसके बाद उस बुराई पर अमल करेंगे बगैर इसके कि उनके बोझो में कोई कमी हो। (मुस्लिम)

इस हदीस की रौशनी में शादी ब्याह की जाहिलाना रस्मों पर मबनी भारी भरकम अखराजात का मकाम बुरे तरीके का है। किसी खानदान में सादगी से निकाह करने का रिवाज था। रस्मों से बचा जाता था। लेकिन अगर उस खानदान के किसी फर्द ने नामाकूल रस्मों का आगाज किया तो उसके बाद उसके खानदान में जितने लोग भी इसमें मुलव्विस होंगे उन सबके गुनाहों का बोझ उस पहल करने वाले को भी मिलेगा। इसी तरह शादी ब्याह में सादगी, पर्दे की पाबंदी, भारी भरकम खर्च से बचना ऐसी खूबियां अच्छे तरीके की सिफत में आती हैं। जो शख्स अपने खानदान में अच्छे तरीके से शादी करने में पहल करेगा और बाद में उसकी पैरवी करते हुए खुराफात और रस्मों से बचकर शादियां करेंगे तो पहल करने वाले को इन सबकी नेकियों का अज्र भी मिलेगा।

एक अहम मामला लिबास का है इस सिलसिले में हदीस में क्या हुक्म है इसको देंखे। हजरत अब्दुल्लाह बिन उमर (रजि0) से मरवी है कि नबी करीम (स०अ०व०) ने फरमाया – जिसने दुनिया में शोहरत का लिबास पहना अल्लाह तआला उसको कयामत के दिन जिल्लत का लिबास पहनाएगा फिर उसमें जहन्नुम की आग भड़काएगा। (इब्ने माजा, अबू दाऊद)

इसमें कोई शक नहीं कि अल्लाह तआला ने असबाब व वसायल से नवाजा हो तो उम्दा लिबास पहनना जायज ही नहीं अहसन भी है। इस हदीस में जिस लिबास को ममनूअ करार दिया गया है उसकी चंद सूरते हैं एक तो यह है कि इंसान इस नियत से लिबास पहने कि लोगों में उसके लिबास की उम्मदगी और शान और शौकत का चर्चा हो, दूसरा यह कि समाज के आम उर्फ के खिलाफ फैशन आमेज लिबास पहने ताकि शोहरत हो।

तीसरा यह कि इंसान असबाब व वसायल होने के बावजूद दिखावे के तौर पर मसाकीन के तर्ज का लिबास पहने। ताकि लोग उसे पारसा, मुत्तकी और परहेजगार समझें। चैथा यह कि नमूद व नुमाइश की नियत से किसी मखसूस किस्म का लिबास अख्तियार किया जाए। आजकल शादी ब्याह में कभी-कभी ऐसे लिबास का इंतखाब किया जाता है जिसको फिल्मों में काम करने वाले हया बाख्ता लोग पहनते हैं। पांचवा यह कि ऐसा लिबास पहना जाए जिसको पहनने के बावजूद जिस्म दिखे। शादी ब्याह में हमारी औरतों का लिबास आमतौर पर इन बेएतदालियों का मजहर होता है। हैरत तो इस बात पर है कि आज माएं अपनी बच्चियों को तीन चार साल की उम्र ही से अधनंगा लिबास पहनाती है गोया कि वह उनके मुस्तकबिल को ही तारीक करना चाहती है और घर के बाशरअ लोग इस पर कम ही ध्यान देते हैं।

तीन रोजा दावत अखबार के पच्चीस अप्रैल 2013 के शुमारे में खबर व नजर के कालम में असम के एक वाक्ए का जिक्र किया गया है। एक चार साल की बच्ची फातिमा नर्सरी में पढ़ती है। नन्ही सी बच्ची के स्कार्फ पर उसके वाल्दैन को इस कदर इसरार है कि इसके लिए वह हाईकोर्ट तक जाने को तैयार हो गए। क्योंकि आजकल मुस्लिम शहरियों के लिए मसायल पैदा किए जा रहे हैं। बच्ची के स्कार्फ पहनने पर स्कूल इंतजामिया को एतराज था कि बच्ची स्कार्फ पहन कर स्कूल आती है जो ईसाई स्कूल के जाब्ता-ए-लिबास कोड के खिलाफ है। इस वाक्ए से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज भी मुस्लिम समाज में ऐसे जीशऊर लोग मौजूद है जो इस्लामी पहचान को बरकरार रखें हुए हैं।

शादी ब्याह में झूटे वकार का भी आमतौर पर मुजाहिरा किया जाता है मसलन किसी खातून के पास जेवर नहीं होता है तो वह शादी में शिरकत करने के लिए मांगे के जेवर पहनकर झूटे वकार का इजहार करती है। यहां तक कि कभी-कभी दुल्हन को भी मांगे के जेवर पहनाकर गलत तास्सुर दिया जाता है। कुछ दिन बाद वह जेवर दुल्हन से लेकर अस्ल मालिकों को दे दिया जाता है। यह झूटी कार्रवाई फसाद व बिगाड़ का सबब भी बनती है। अब सोने के बजाए मसनूई जेवरात कसरत से बाजार में आ रहे हैं जो देखने में बिल्कुल सोने के मालूम होते हैं मगर उनकी मालियत महज चंद सौ रूपए होती है।

जबकि सोने के अस्ल जेवरात की मालियत अब लाखों में है। धोका देही की यह सूरत अब अख्तियार की जाने लगी है। कहा जाता है कि यह सोने के जेवरात हैं बाद में जब हकीकत सामने आती है तो फसाद का बाइस बनती है। यह सब तरीके नाजायज और ममनूअ हैं और फसाद और बिगाड़ का बाइस हैं। मक्र और फरेब की यह जरूरत इसलिए पेश आती है कि दीगर बहुत सी खुराफात के साथ सोने के जेवरात को भी शादी का एक लाजिमी हिस्सा बना दिया गया है जबकि शरीयत ने ऐसी कोई हिदायत नहीं की। एक हदीस में आता है जो हजरत ओसामा बिन जैद (रजि0) से मरवी है नबी करीम (स०अ०व०) ने फरमाया – मैंने अपने बाद ऐसा कोई फितना नहीं छोड़ा जो औरतों के फितने से ज्यादा मर्दों के लिए नुक्सानदेह हो। (बुखारी) यानि मर्दों के लिए सबसे बड़ा फितना औरतों का फितना होगा जो मेरे बाद पेश आएगा। हालांकि असलन औरत का वजूद इंसान के लिए राहत व आसाइश और अम्न व सकून का बाइस है। अल्लाह तआला फरमाता है – अल्लाह की निशानियों में से यह भी है कि उसने तुम्हारे लिए तुम्हारे ही नफ्से जिंस से बीवियां पैदा कि ताकि तुम उनसे सुकून हासिल करो और उसने तुम्हारंे बीच मोहब्बत व रहमत पैदा कर दी। (रोम-21)

औरत का वजूद मर्द के लिए नागुजीर है। वह इंसानी जिंदगी के दो पहियों में से एक पहिया है इसके बावजूद इसको मर्द के लिए फितना क्यों करार दिया गया है। इसकी वजह मर्द की यह आम कमजोरी है कि अगर कवामियत का मकाम अल्लाह तआला ने मर्द को अता किया है लेकिन उसने औरत को दीनी तालीम और तर्बियत से आरास्ता नहीं किया, रस्म व रिवाज की पैरवी में अपनी कवानियत औरत के सुपुर्द करके खुद महकूमियत का दर्जा अपने लिए पसंद कर लिया। खासकर शादी ब्याह के इस बेएतदाली का रस्म व रिवाज मजहर हैं। इन तमाम मामलात में मर्दों ने पिस्पाई अख्तियार कर ली है और अपने मर्दाना अख्तियारात औरत को दे दिए हैं बिगड़े हुए समाज में शादी ब्याह में वही होगा जो शरीयत से बेनियाज औरत कहेगी और करेगी। मर्द का काम सिर्फ उसके हुक्म की बजा आवरी है यहां तक कि औरत के मतालबात पूरे करने के लिए उसके पास अगर वसायल नहीं है तो वह रिश्वत लेगा, आमदनी के हराम जराए अख्तियार करेगा, कर्ज लेगा यहां तक कि सूदी कर्ज लेने से भी गुरेज नहीं करेगा। फिर सारी उम्र कर्ज के बोझ तले कराहता रहेगा। होने वाले दामाद को सोने की अगूंठी पहनाकर अपनी और उसकी आखिरत की बर्बादी का सामान किया जाएगा। शादी के पूरे हफ्ते नाच गाने वगैरह के जरिए मोहल्ले वालों की नींद खराब की जाती रहेगी।

शादी के रायज रस्मों में खुशी के शादियाने और बाजे भी हैं। शादी से पहले कई दिन तक नौजवान लड़कियां शादी वाले घर में रातों को घंटो तक गाना बजाती और गाती हैं। मोहल्ले वालों की नींद खराब होती है। बारात के साथ बैण्ड बाजे का एहतमाम किया जाता हैं। जिनमें फिल्मी गानों की धुनों पर साज व आवाज का जादू जगाया जाता है और अब मंगनी के मौके पर भी ऐसा किया जाने लगा है। शादी वाले घर के सामने गली में बहुत से लोग म्यूजिकल शो का एहतमाम करते हैं जिसमें नौजवान हिस्सा लेते हैं। बेहयाई पर मबनी हरकतों से लोगों के ईमान व अखलाक को बर्बाद किया जाता है। शादी हाल निकाह व वलीमे की तकरीबात अव्वल से आखिर तक म्यूजिक की धुनों से गूूंजता रहता है और इस तरह निकाह और वलीमे की बाबरकत तकरीबात भी शैतान की आमाजगाह बनी रहती है। कुछ लोग इन तमाम खुराफात और शैतानी रस्मों रिवाज के जवाज के लिए उन हदीस से इस्तदलाल करते हैं जिनमें शादी और ईद यानी खुशी के मौके पर छोटी बच्चियों को डफ बजाने और नगमें और तराने गाने की इजाजत दी गई है।
मोहम्मद बिन हातिब (रजि0) से मरवी है नबी करीम (स०अ०व०) ने फरमाया – हराम और हलाल के बीच फर्क करने वाली चीज डफ बजाना और निकाह में आवाज बुलंद करना है। (निसाई)

इससे सिर्फ यह नतीजा निकलता है कि खास मौकों पर डफ बजाया जा सकता है और गीत गाया जा सकता है जिसका मकसद निकाह का एलान करना और खुशी का इजहार करना है ताकि शादी खुफिया न रहे। इसलिए हुक्म भी दिया गया है ‘‘निकाह का एलान करो’’। यानि एलानिया निकाह करो खुफिया न करो। इस हुक्म से मकसूद खुफिया निकाहों को रोकना है। आजकल वली की इजाजत के बगैर खुफिया निकाह बसूरत लव मैरिज, सीक्रेट मैरिज और कोर्ट मैरिज हो रही हैं। अदालतें इनको सनद जवाज दे रहे हैं। हालांकि यह निकाह बातिल हैं मुनअकिद ही नहीं होते। बहरहाल डफ बजाने का काम सिर्फ छोटी यानि नाबालिग बच्चियां कर सकती है। बालिग औरतों को इसकी इजाजत नहीं है और ना मर्दों को इसकी इजाजत है। फिर यह काम महदूद पैमाने पर होना चाहिए। मोहल्ले की या खानदान या कबीले की बच्चियों को जमा न किया जाए। मौजूदा हालात में इजहारे मसर्रत के रायज तरीके नाजायज हैं। शादी ब्याह के मौकों पर लोग अल्लाह व रसूल के एहकाम को पीछे छोड़ देते हैं। मेंहदी की रस्म और इसमें नौजवान बच्चियों का सरेआम नाचना गाना वीडियों और फिल्में बनाना बेपर्दगी और बेहयाई का इर्तिकाब बैण्ड बाजे, म्यूजिकल धुने और म्यूजिकल शो, आतिशबाजी वगैरह यह सब गैरों की नक्काली है और इस्लामी तहजीब और रिवायतों के बिल्कुल खिलाफ है। इस्लाम से इसका ना कोई ताल्लुक है और न हो सकता है।
रायज जहेज एक लानत है इसके बाइस सिर्फ खानदान तबाह व बर्बाद हो रहे हैं। आपस में नफरत, दुश्मनी और आपसी रंजिश की बुनियादें पड़ रही हैं। मौलाना सैयद अबुल हसन अली नदवी की किताब का एक हिस्सा गौर फरमाएं – लड़की वालों से किसी रकम या खास चीज का मतालबा या मनमानी फरमाइश और माली व एक्तेसादी मुनाफे के हुसूल की शर्त जिसको कुछ इलाकों में तिल बाज मकामात पर घोड़ा जोड़ा कुछ जगह जहेज के तौर पर जानते हैं। रहते सहते या माल व दौलत की इस बढ़ी हुई हिर्स और लालच की वजह से इस मुस्लिम समाज के लिए इस माहौल में जिसमें दीनी तर्बियत और तालीम की कमी है इस शरई और फितरी शरीफाना व तमद्दुनी जरूरत की तकमील को पहाड़ काटने से कम दुश्वार नहीं बना दिया है। दरअस्ल यह गैर फितरी चलन हिन्दू रस्म रिवाज का नतीजा है जिसके बुरे असरात से मुस्लिम समाज भी महफूज नहीं रह सका है। हिन्दू समाज में मां-बाप के तर्के में लड़कियों को कोई हिस्सा नहीं मिलता। इसलिए वह शादी के मौके पर लड़की को जहेज की शक्ल में माल व दौलत देते हैं। पहले यह रस्म हिन्दुओं में ऊंचे तबके तक महदूद थी लेकिन आज इसकी जड़े पिछड़े तबकों तक पहुंच चुकी हैं। अब यह मरज मुस्लिम समाज को भी अपनी लपेट में ले चुका है। आज का हिन्दुस्तानी समाज और लालची और हरीस बन गया है। जिसका खामियाजा हव्वा की बेटी को भी भुगनता पड़ रहा है। औरतों को खुदकुशी के लिए मजबूर किया जा रहा है क्योंकि वाल्दैन के पास जहेज में देने के लिए माल व असबाब नहीं है। आज मुस्लिम समाज में जहेज का जवाज निकालने की कोशिश की जा रही है। कुरआन में अल्लाह तआला फरमाता है- ऐ ईमान वालो ! आपस में एक दूसरे का माल नाहक मत खाओ। (निसा-29)

नबी करीम (स०अ०व०) ने फरमाया- किसी औरत से निकाह चार बातों की वजह से किया जाता है माल की वजह से, खानदान की वजह से, खुबसूरती की वजह से या उसकी दीनदारी की वजह से। फिर फरमाया कि तुम दीनदार औरत से निकाह करो। इसकी मजीद शरह एक दूसरी हदीस में इस तरह है – तुम औरतों से उनके हुस्न की वजह से निकाह मत करो क्योंकि हो सकता है कि उनका हुस्न उन्हें तकव्वुर में मुब्तेला करके हलाक कर दे और उनसे माल व दौलत की बिना पर भी निकाह मत करो क्योंकि हो सकता है कि उनका माल व दौलत उन्हें सरकश बना दे। लेकिन तुम दीनदारी की बिना पर उनसे निकाह करो। (इब्ने माजा)

कहा जाता है कि नबी करीम (स०अ०व०) ने अपनी बेटी हजरत फातिमा (रजि0) को कुछ चीजे शादी के मौके पर अता फरमाई थी। मगर अस्ल वाक्या यह है कि हजरत फातिमा (रजि0) के मेहर की रकम से यह चीजें खरीदी गई थी। सीरत निगारों के बयान के मुताबिक हजरत अली (रजि0) के पास मेहर में देने के लिए सिर्फ एक जर्रा थी जो उन्होंने बतौर मेहर मोअज्जल दे दी थी। इसलिए नबी करीम (स०अ०व०) ने उसको फरोख्त करा दिया और उस रकम का इस्तेमाल बिस्तर, तकिया और कुछ चीजें मुहैया कराने में किया।

अगर जहजे की किस्म का कोई तसव्वुर होता तो नबी करीम (स०अ०व०) अपनी बकिया बेटियों के साथ भी ऐसा ही मामला फरमाते। लेकिन यह बात वाजेह है आप (स०अ०व०) ने सिवाए फातिमा के किसी दूसरी बेटी को कोई जहेज फराहम करने की सलाह नहीं दी। हजरत अली (रजि0) खुद नबी करीम (स०‍अ०व०) की किफालत में थे और आप (स०‍अ०व०) के पास रहा करते थे। हजरत अली (रजि0) के जर्रा को फरोख्त करके कुछ सामान मुहैया कराने में आप (स०‍अ०व०) हजरत अली के साथ शरीक

हुए। इसलिए इस खराबी के खिलाफ तहरीक चलाने की जरूरत है। इस मैदान में नौजवान तबके को आगे बढ़कर इस्लाही कदम उठाना होगा। (फलाहउद्दीन फलाही)

–बशुक्रिया: जदीद मरकज़