साहिर की ग़ज़ल: “ख़ुद्दारियों के ख़ून को अर्ज़ां ना कर सके”

ख़ुद्दारियों के ख़ून को अर्ज़ां ना कर सके
हम अपने जौहरों को नुमायाँ ना कर सके

होकर ख़राब-ए-मै तेरे ग़म तो भुला दिए
लेकिन ग़म-ए-हयात को दरमाँ ना कर सके

टूटा तिलिस्म-ए-अहद-ए-मोहब्बत कुछ इस तरह
फिर आरज़ू की शम्म’आ फ़रोज़ाँ ना कर सके

हर शै क़रीब आके कशिश अपनी खो गयी
वो भी इलाज-ए-शौक़-ए-गुरेज़ाँ ना कर सके

किस दर्जा दिलशिकन थे मोहब्बत के हादसे
हम ज़िन्दगी में फिर कोई अरमां ना कर सके

मायूसियों ने छीन लिए दिल के वलवले
वो भी निशात-ए-रूह का सामाँ ना कर सके

(साहिर लुधियानवी)