हल्दी से छाती के सरतान का ईलाज मुम्किन

हल्दी सालों से हमारे रिवायती खानों का हिस्सा रही है। पुराने ज़माने में हल्दी महज़ मसाले का एक जुज़ु नहीं थी बल्कि उसे बहुत सी जिस्मानी तकालीफ़ के ईलाज के लिए इस्तिमाल किया जाता था। आज भी बहुत से घरानों में हल्दी से जिस्म की अंदरोनी और बैरूनी ज़ख्मों का ईलाज किया जाता है।

साइंसदानों के मुशाहिदे में ये बात बहुत अर्से से है कि हल्दी में क़ुदरती तौर पर पाए जाने वाले कीमयाई माद्दे करकेवमणि में कैंसर ज़दा ख़लयात का ईलाज करने की सलाहियत पाई जाती है। वो कहते हैं कि किस्म किस्म का हल्दी वाला सालन अपनी ग़िज़ा में शामिल करने से हल्दी के फ़वाइद को हासिल नहीं किया जा सकता क्योंकि इस तरह ज़्यादा तर मसाले हमारे पैन में मौजूद इंतिहाई ताक़तवर हाईड्रो कलोरिक एसिड की वजह से टूट फूट जाते हैं।

कैंसर प्रीवेंशन जर्नल में शाय होने वाली तहक़ीक़ में साइंसदानों ने टयूमर ज़दा चूहों पर तजुर्बा किया। एक ग्रुप के चूहों के जिस्म में हर रोज़ हल्दी से तैयार शूदा दो कैप्सूल दाख़िल किए गए जबकि दूसरे ग्रुप के चूहों को रोज़मर्रा के हल्दी वाले खाने खिलाए गए। चार माह तक उन चूहों में टयूमर का साइज़ बढ़ने की रफ़्तार का मुआइना किया जाता रहा । नतीजे से मालूम हुआ कि ग़िज़ा ने टयूमर पर कोई असर नहीं दिखाया लेकिन हल्दी से तैयार करदा कैप्सूल लेने वाले चूहों की रसूलियों का साइज़ सिकुड़ कर एक तिहाई कम हो गया और सरतान के ख़ल्यात बनने का अमल भी बहुत सुस्त पड़ गया।

नताइज पर मुबनी रिपोर्ट में मुहक़्क़िक़ीन ने बताया कि करकेव मणि को बड़े पैमाने पर इसके ऐन्टी आक्सीडंट और ऐन्टी सोज़िश ख़ुसूसियात की वजह से जाना जाता है लेकिन तजुर्बे में करकेव मणि को जिस्म में दाख़िल करने से टयूमर का साइज़ छोटा हो गया बल्कि तेज़ी से फैलने वाले सरतान के ख़ल्यात की शरह भी सुस्त पड़ गई लेकिन ग़िज़ाई अजज़ा में करकेव मणि का इस्तिमाल ग़ैर मूसिर रहा।