जब हिन्दू दोस्त को बचाने के लिए वीर अब्दुल हमीद ने ज़मींदार के 50 लठैतों को अकेले मार भगाया

कारें और जीपें तो हज़ार देखी होगी आपने, पर ये जीप नही देखी होगी। कभी नही देखी होगी। लेकिन ठीक है, नही देखी तो नही देखी, ऐसा क्या खास है इस जीप मे ! खास है साहब, बहुत खास है। आज हमारे जिले मे तो इस जीप को देखने के लिए लोगो का ताँता लगा हुआ है। मुझे खुशी इस बात की है आज मेरी इस पोस्ट के बहाने ये जीप मेरा देश भी देखेगा। आज मेरे गांव की तरफ महोत्सव मन रहा है। जिसको देखो वही बस एक ही दिशा मे भागा जा रहा है  जीप देखने।

जी हां, धामूपुर, हमारे शहीद का गांव… अब्दुल हमीद का गांव। आज के महोत्सव का केन्द्र। याद कीजिये कुछ। 10 सितम्बर 1965। पश्चिमी सीमा का खेमकरन क्षेत्र। भारत की ओर से मोर्चे पर अपनी जीप पर सवार परमवीर कंपनी क्वार्टर मास्टर हवलदार अब्दुल हमीद। आज दस सितम्बर है। आज धामूपुर मे महा महोत्सव है। गांव के इतिहास मे पहली बार शहीद की चौखट पर सिर नवाने आर्मी चीफ आये है। और अपने साथ लाये है वह जीप जिसपर चढकर अब्दुल हमीद ने अमेरिका मे बने पाकिस्तानी पैटन टैंकों के धुर्रे बिखेर दिये थे। लाखो लोग उमड़े है। आज धामूपुर पहली बार ये जीप देख रहा है। आज गाजीपुर पहली बार इस जीप को देखकर रोमांचित है। हम चाहते है आज देश भी ये जीप देखे जो आर्मी हेडक्वार्टर से पहली ही बार निकाली गयी है और धामूपुर के शहीद स्मारक पर स्थापित की गयी है। जनरल विपिन रावत यूँ तो वापस जा चुके है पर धामूपुर और गाजीपुर वालों की ये लाडली जीप उनके पास हमेशा के लिए छोड़ गये है। आज शहीद की शहादत का दिन है। आइये अब्दुल हमीद के जीवन की एक यात्रा करे।

बाबा बताते थे कि हमीद गदहिया गोल में आया तभी से गदहा था.पढ़ाई लिखाई में पूरी तरह जीरो बटा सन्नाटा. किताबों से उसको बैर था और स्कूल से नफरत. बहुत बार तो उस्मान चा पीठ पर लाद कर जबरन स्कूल पहुंचा जाते. अब आधा टाइम तो वो स्कूल में भी रोता ही रहता और जब चुप होता तो कुछ न कुछ ऐसा कर देता कि हेडमास्टर मुंशी जी उसको ठोंक देते. होता ये कि रोने घिघियाने के बाद जबरन स्कूल पहुंचाए जाने की खुन्नस में वो स्कूल में किसी न किसी से झगडा फानता और किसी न किसी को पीट देता. शरीर से मजबूत था.अजीब दुस्साहसी था, बाप की मार खा कर स्कूल आता, बदले में किसी न किसी को पीटता और बाद में मुंशी जी की छड़ी खाता. इतना उसका रोज का नही तो साप्ताहिक धंधा तो था ही.उसका मन तीन कामों में खूब लगता–किसी से कुश्ती लड़नी हो…गुलेल चलानी हो…या मंगई नदी में तैरना हो…..लेकिन ये तीनों काम किस काम के, अगर पढ़ाई ही नही हो रही है तो ?

थोडा बड़ा हुआ तो उस्मान चा उसे पुश्तैनी दुकान पर बैठाने लगे लेकिन वहीँ कौन सा उसका मन लगता था. बाप दिन भर सिलाई करता और ये दिन भर गुलेल चलाता. एकाध बार यहाँ भी ठोंका जाता. उस्मान चा उसे पकड़ के लाते और अपने सामने स्टूल पे बैठा देते. डांट के कहते-बैठ के देख कैसे सिलाई होती है. तब हमीद का कोई बस नही चलता.  चुप-चाप माधो की मूरत बना मशीन की खट खट खट खट सुनता रहता. चौदह-पंद्रह साल के किशोर हमीद के मन में पलटनिया सिपाही बनने का ख़्वाब पलने लगा था. सिलाई मशीन की खट खट खट खट जैसे-जैसे तेज़ होती, वैसे-वैसे उसके अन्दर मशीन गनों की दग दग दग दग तेज़ होने लगती. देश अभी आज़ाद हुआ ही था और उन दिनों सेना समेत तमाम सरकारी विभाग लोगों को पकड़ पकड़ कर नौकरियों पे रख लेते थे. सेना में जाने से लोगबाग अपनों को रोकते थे,  बचाते थे. बाबा बताते थे कि पलटनियाँ वाले अफसर किसी भी हट्टे-कट्टे नौजवान को देखते तो उसे सेना में ले लेते. परिवार वाले सुनते तो सिर धुनते क्योंकि तब सेना में जाने का मतलब सीमा पर लड़ना और मरना ही होता था. ऐसी हालत में हमीद के लिए बहुत मुश्किल था कि वो अपना सपना माँ-बाप को बताए…

 

मजबूत कसे हुए फौलादी जिस्म के कारण सत्रह अट्ठारह का होने तक हमीद आस-पास के गाँवो में प्रसिद्ध हो चला था. इलाके में होने वाला ऐसा कोई दंगल नही था जिसमे हमीद ने दो-चार कुश्तियां न मारी हों…ये वो दौर था जब अखाड़े गावों की शान हुआ करते थे. इसलिए हमीद लोकप्रिय तो हो रहा था लेकिन कुश्ती के आलावा लोगबाग उसे मूरख ही समझते थे. गदहा तो वो था ही. बाबा बताते थे कि मेरे साथ ही पढता था हमीद. उसके सेना में जाने वाली बात की भनक उस्मान चा को लगी तो उन्होंने बुद्ध का बुद्धत्व रोकने की गरज से चट-पट उसका ब्याह कर दिया. शादी के बाद हमीद भरमाया तो सही लेकिन एक दिन अचानक जैसे उसके पुरुषार्थ की पहली आग ही फूट पड़ी हो. धामुपुर में उस दिन कुछ दबंग लोग गुंडई पर उतर आये.एक गरीब हिन्दू परिवार की फसल जबरन काटने के लिए जमींदार साहब के करीब 50  लठैत आ धमके. ऐसे मौकों पर आम तौर पर गाँव का गाँव तब अपने अपने घरों में घुस जाता था. हमीद ने सुना तो भुजाएं फड़फड़ाने लगीं. घर भर रोकता ही रह गया लेकिन लाठी लिए हमीद दोस्त के खेत में उतर आया. बाबा कहते थे कि हमीद के लिए दोस्ती बड़ी बात थी और दोस्त के हिन्दू होने से कोई फर्क नही पड़ता था. यह बताते हुए बाबा की आखें चौड़ी हो जाती थीं कि 50 लट्ठबाजों को अकेले हमीद ने घंटों लड़ाया और अंततः मार भगाया.

ये 1954  का साल था. ज़मींदारों की पेशाब से तब गांवो में चिराग जला करते थे.क्या मजाल कि कोई चूं भी कर दे. हमीद की खोज होने लगी.करीब-करीब यही वह समय था जब हमीद ने रेल में भारती होने का बहाना करके आधी रात को गाँव छोड़ दिया और घर वालों की चोरी सेना में भारती हो गया.उ न दिनों कश्मीर में आतंकवाद तो नही था, लेकिन कबीलाई हुआ करते थे.जो भारत में घुस कर लूट-पाट और हत्याएं किया करते थे. ऐसे ही एक कुख्यात पाकिस्तानी डाकू इनायत का खौफ पूरे कश्मीर पर था. नये-नये रंगरूट हमीद ने इनायत को जिंदा धर दबोचा और उसकी वीरता की धमक 1960 में ही पूरे देश ने सुनी.

962 की हार ने उसमे जैसे एक पागलपन भर दिया था.1965 का युद्ध जब शुरू हुआ तो हमीद छुट्टियों में गाँव आया हुआ था. घर के सामने वाले पेड़ पर ‘मर्खौकिया’ चिरई बोलने लगी थी. इसका बोलना अशुभ का संकेत होता है.लेकिन इसको कोई मारता नही है. भगा देते हैं लोग..लेकिन हमीद को कौन समझाए…! उसके हाथ में उसकी गुलेल मचल उठी. अँधेरी रात….मरर्खौकिया की आवाज़…मुआ मुआ मुआ….गुलेल की गोली आवाज़ पर छूटी ….सटाआआआक……मरर्खौकिया चिरई नीचे….शब्दभेदी गोली….शब्दबेधी निशाना…!!

पलटन से सन्देश आया–हाजिर हो…युद्ध शुरू हो गया है…जाते जाते रसूलन बीबी रो पड़ी थीं…मफलर लपेट दिया था शौहर के गले में, सो यादों में सफ़र देर तक मदमाता रहा…

10 सितम्बर 1965 का दिन..अमृतसर के पश्चिमी क्षेत्र कसूर पर पाकिस्तानी सेना ने पूरी तैयारी से हमला बोला था.हमीद खेमकरण में तैनात थे.पाकिस्तानी सेना के मुकाबले भारतीय सैनिक कम थे और उतने हथियार भी नही थे जिनसे मुकाबला बराबरी पर भी रोका जा सके..उनके पास अजेय अमेरिकी पैन्टन टैंकों का बेड़ा था..और हमीद के पास तोप से लैस केवल एक जीप थी,बस. हमीद को लगा कि ऐसे तो उन टैंकों पर एक खरोंच भी नही लायी जा सकेगी. सिर पर लेकिन खून सवार था.लक्ष्य तय किया और ज़िन्दगी का जुआ खेल गया हमीद. छिपते छिपाते पाकिस्तानी खेमे में घुसकर मिटटी के एक टीले के पीछे लगा दी जीप..और इसके बाद जो हुआ, वो सब इतिहास है..अमेरिका और पाकिस्तान का गुरूर चूर चूर होकर रणक्षेत्र में पड़ा था..पाकिस्तानी बंदूकों ने हमीद की ओर मुंह करके आग बरसानी शुरू कर दी..लेकिन हमीद का मोर्चा तब भी जारी था. गोलियों से छलनी शरीर लिए दगदगाती हुई अपनी मशीनगन का मुंह खोले हमीद पाकिस्तानी सेना पर चढ़ आया..तब तक न जाने कितनी गोलियों ने एक साथ हमीद को उसके घर को और मेरे गाँव को एक साथ छेद डाला था…वीरगति पाने से पहले सैकड़ों पाकिस्तानी सिपाहियों को जन्नत बख्श दी हमीद ने..बाबा बताते थे कि अपनी जान देकर गाजीपुर के हमीद ने अमृतसर को बचा लिया !

सरकार ने हमीद को परमवीर चक्र की घोषणा की और प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री धामुपुर आये..बाबा बताते थे कि उस्मान चा को बांहों में भरकर शास्त्री जी ने पूछा-आपके बेटे ने देश का मस्तक ऊंचा किया है , क्या चाहते हैं आप हमसे…? आप जो मांगें, सरकार अवश्य देगी..!. बाबा बताते थे कि उस दिन उस्मान चा चाँद भी मांग लेते तो शास्त्री जी चाँद तोड़ लाते…लेकिन मांगी दो चीजें…फफकते हुए उस्मान चा ने माँगा था–धामुपुर से गाजीपुर एक सड़क दे दो साहब….और गंगा पर एक पुल….!! दोनों बन गये…आज भी हैं…तबके मुसलमान भी काफिर होते थे क्या..? गंगा पर पुल मांग लिया…कोई मस्जिद ही मांग लेते !

बाबा बताते थे कि उस्मान चा अंतिम समय तक कपड़े ही सीते रहे..रोज चार किलोमीटर दूर दुल्लहपुर बाज़ार में स्थित अपनी दूकान पर पैदल ही जाते और पैदल ही लौटते…ईद आती तो उस्मान चा की दूकान ईदी से भर जाती और पचइयाँ आती तो इलाके भर के अखाडियों,पहलवानों के लिए उस्मान चा फ्री में लंगोट सिलते…..रसूलन बीबी आज करीब नब्बे साल की हैं….लेकिन आज भी खट खट खट खट चलती हैं…बिलकुल किसी मशीनगन की तरह….दग दग दग दग…क्या हिन्दू, क्या मुसलमान,.. रसूलन बीबी हम सभी की आजी हैं बस…और दिख गयीं तो पैर जरूर छूते हैं हम….!

  • प्रेम प्रकाश

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और सर्वोदय कार्यकर्ता हैं। वाराणसी में रहते हैं। )

साभार- मीडिया विजिल