बिकाऊ मीडिया का घिनौना चेहरा बेनक़ाब

मीडिया लोकतंत्र का एक बेहद अहम स्तंभ और संस्था है, खासकर हमारे देश में लोकतंत्र की तरक्की और कामियाबी बहुत हद तक मीडिया की मजबूती, निष्पक्षता और आज़ादी से मीडिया के साइज़ में बेहद बढ़ोतरी हुआ है।

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हजारों अख़बार और सैंकड़ों टेलीविजन चैनल मौजूद हैं, जो विभिन्न क्षेत्रीय भाषों में दिन रात खबरें और आंकलन पेश करते रहते हैं। मीडिया की निष्पक्षता और आज़ादी की अहमियत और जरूरत भी पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा बढ़ गई है। लेकिन बदकिस्मती से कुछ को छोड़कर मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अब किसी बड़े करोबारी घराने की मिल्कियत बन चूका है या किसी खास राजनीतिक समूह के दबदबे में आ गया है या सरकार के कंट्रोल में जा चूका है और जिसके भी अधीन है उसकी करता रहता है, उनकी खामियों को छूपा लेता है और जिन इशुज़ से उन्हें फायदा पहुंचता है, उन्हें संतुलित तरीके उछलता रहता है।

नतीजा यह है कि जो असल इशुज़ हैं, उन्हें जगह नहीं मिल पाती। जनता के मुद्दे जूं के तूं रहते हैं और लोकतंत्र, जनता के हितों की सुरक्षा और पोषण की जो असल ज़िम्मेदारी है, उन्हें मीडिया पूरी नहीं कर पाता। इन हालात में जिसने पत्रकारिता मूल्यों का दामन थामे रखा है, उसपर दबाव डाला जाता है, उसे इनकम टैक्स और दूसरी सरकारी एजेंसियों की जांच में उलझाकर परेशान कर दिया जाता है, उसको धमकियां दी जाती हैं, गाली गलोज से नवाज़ा जाता है, जान का खतरा हो जाता है आदि।

कड़वी सच्चाई यह है कि कुछ सालों में बहुत से बेबाक पत्रकारों को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा है, नौकरी गंवानी पड़ी हैं, चैनलों के खिलाफ कार्रवाइयां हुई हैं और राजनीतिक व कारोबारी समूह की नजर में आपत्तिजनक और न पसंदीदा विषय को इलेक्ट्रॉनिक लेखों से हटाना पड़ा है।