चमड़े की निर्यात में आई भारी गिरावट से भारत के मुस्लिम व्यापारियों में बढ़ी बेरोजगारी

शादाब हुसैन 23 साल के हैं. वे भारत के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े और पुराने औद्योगिक शहर कानपुर में रहते हैं. यही कोई 11 साल की उम्र रही होगी जब उन्होंने शहर की एक चमड़ा फैक्ट्री में काम करने के लिए स्कूल छोड़ दिया ताकि माता-पिता और चार भाई-बहनों के परिवार का सहारा बन सकें. उसके बाद आठ साल तक वे महीने में 9,000 रुपए पगार पर हर रोज आठ घंटे फैक्ट्री में काम करते रहे. इस बीच पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए लेकिन तस्वीरें देखकर नई डिजाइन के अच्छी फिटिंग वाले, मजबूत जूते बनाना जरूर सीख गए. लेकिन आज GST और नोटेबंदी के कारण बुरे से बुरा वक़्त गुजरने को मजबूर हो चुके हैं.

कमोबेश पूरा चमड़ा उद्योग तमाम कारणों से घुटने टेकने की कगार पर है. दुनिया में चमड़े के भारतीय उत्पादों की मांग कम हो रही है. वहीं राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) के चाबुक का डर इस उद्योग को हमेशा बना ही रहता है. बाकी कसर ‘गाय पर होने वाली राजनीति’ पूरी कर देती है.

देश में 15 से 34 साल के बीच का हर चौथा बेरोजगार युवक उत्तर प्रदेश से है. लेकिन अफसोस, इनकी कहानियां राज्य में जारी विधानसभा चुनाव के माहौल में भी किसी पार्टी या नेता की चिंता नहीं हैं. अलबत्ता, युवाओं की बेरोजगारी, सालों से चला आ रहा एक घिस चुका चुनावी मुद्दा जरूर है. यह स्थिति तब है, जबकि देश में सबसे ज्यादा युवाओं की तादाद इसी प्रदेश में है. एक जानकारी के मुताबिक, भारत से 2015-16 में चमड़ा उत्पादों के निर्यात में चार फीसदी की गिरावट दर्ज की गई जबकि इसी अवधि में कानपुर से होने वाले इस निर्यात में 11 फीसदी की गिरावट आई. जबकि मुस्लिम बहुल दाग़ों और मवेशियों के व्यापार पर सरकार की कार्रवाई में जून में 13 प्रतिशत से ज्यादा की चमड़ी के जूतों के निर्यात में गिरावट दर्ज की गई.

हालांकि इस मामले में विशेषज्ञों का कहना है कि केंद्र सरकार और नियम बनाने वाले अधिकारियों को यह समझना होगा कि जीविका के लिए पशु उठाने और देसी तरीके से चमड़ा तैयार करने में वो लोग लगे हुए हैं जो बहुत गरीब लोग हैं. उनके पास कोई और साधन नहीं है. उन्हें जीएसटी के बारे में पता नहीं है और अगर सरकार ने इसे तत्काल प्रभाव से वापस नहीं लिया तो इसे इस काम में लगे सैकडों लोगों के समक्ष भोजन का संकट उत्पन्न हो जाएगा.