श्रीलंका या क्राइस्टचर्च: आतंकवाद इंसानियत का सबसे बड़ा दुश्मन है!

इक़बाल रज़ा, कोलकाता। ऐसे पवित्र दिन ‘Easter Sunday’ पर हिंसा के ऐसे कार्य सभी विश्वासों और संप्रदायों के खिलाफ हिंसा के कार्य हैं, और उन सभी के खिलाफ हैं जो धर्म की स्वतंत्रता और पूजा की पद्धति को महत्व देते हैं। ऐसे पवित्र दिन के मौके पर श्रीलंका की दुःखद घटना ने यह साबित कर दिया कि आतंकवाद इंसानियत का सबसे बड़ा दुश्मन है।

इस बार इंसानियत के दुश्मन, श्रीलंका को निशाना बनाते हुए क़रीब 300 बेक़सूर लोगों की जानें ले लीं तथा 500 से अधिक लोगों को ज़ख़्मी कर दिया।

श्रीलंका में क़रीब 70%बौद्ध, 12% हिंदू, 10% मुसलमान और 7% ईसाई हैं जो इंगित करता है कि सबसे कम आबादी वाले ईसाई समुदाय को निशाना बनाया गया और इसके बाद अनेक जगहों से हर रोज़ मुसलमानों के मस्जिदों, रिहाइशी इलाक़ों व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर लगातार हमलों की ख़बरें आ रही हैं जिससे मुस्लिम समुदाय काफी भयभीत है।

श्रीलंका के मुस्लिम हिंसा से हमेशा दूर रहे हैं और ऐसे तत्वों से पीड़ित रहे हैं जिससे ज़ाहिर है कि आम मुसलमान का ऐसे अमानवीय घटना से कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता बल्कि ऐसे तत्वों का उद्देश्य देश को गृहयुद्ध में घसीटना है।

इस्लामोफोबिया के नाम पर दुनियाभर में निर्दोष मुसलमानों को लक्ष्य बनाया जा रहा है। न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में, शुक्रवार की नमाज़ अदा करते वक्त ऐसे ही अमानविक हमले में क़रीब 50 लोग मारे गए थे और अनेक लोग ज़ख़्मी हो गए थे।

सबसे चौंकाने वाली बात दोनों हमले की समानता है जहाँ एक ओर मुस्लिम समुदाय मस्जिद में नमाज़ अदा कर रहे थे वहीँ दूसरी ओर ईसाई समुदाय चर्च में प्रार्थना में भाग ले रहे थे जिससे साफ ज़ाहिर है कि हमलावर इंसानियत के दुश्मन हैं और अपने आकाओं के स्वार्थ पूर्ति हेतु दुनिया का सर्वनाश करने पर आमादा हैं।

कैंसररूपी इस आतंक का शिकार लगभग पूरा विश्व है और इसके खिलाफ लड़ाई आसान नहीं है। विश्व की महाशक्तियों और संघो द्वारा अपने स्वार्थतार्थ कुछ आतंकवादी संगठनों को “दुश्मन” व कुछ को “दोस्त” के रूप में पेश किया जाता है – यही दोहरी नीति आतंकवाद को रोकने के प्रयासों में सबसे बड़ी बाधा है और श्रीलंका या क्राइस्टचर्च इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

ईमानदारी से आतंकवादी संगठनों तथा आतंकवादियों से लड़ने वाले देशों व संगठनों का समर्थन किया जाना चाहिए। आतंकवादी हमले के बाद महज “आतंक की निंदा” करने से यह ख़त्म होने वाला नहीं है।

लेखक: इक़बाल रज़ा