मीर-तकी-मीर: वह शायर, जिसे मिर्ज़ा ग़ालिब ने उस्ताद माना

रेखता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब,
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था

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यह वह शायरी है जिसे उस दौर के महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब ने मीर तकी मीर की शान में लिखा था। मीर तकी मीर का असल नाम मीर मोहम्मद तकी था। वे मुगल शासक में उर्दू के महान शायरों में से एक थे। मीर उनका तखल्लुस था। उर्दू शायरी में मीर का मक़ाम बहुत ऊँचा है। उन्हें आलचकों और शायरों ने खुदा ए सुखन का ख़िताब दिया था। वह अपने जमाने के एक अद्वितीय शायर थे।

मीर तक़ी मीर ने जब लिखना शुरू किया तो बस लिखते रहे। उनकी क़लम उनकी सांस थमने के साथ ही रुकी। तक़रीबन ढाई हज़ार ग़ज़लें और उनमें से निकले शेर उम्दा पाय के साबित हुए।

उनका जन्म फ़रवरी 1722 में आगरा में हुआ, उनके पिता का नाम मोहम्मद अली था, लेकिन वह मुत्तकी के नाम से मशहूर थे। जबकि उनकी मौत आज ही के दिन 20 सितम्बर 1810 को लखनऊ में हुआ। उनकी शायरी का विषय मोहब्बत और फलसफा था।

मीर का दौर फितना फसाद का दौर था, वह सुकून की तलाश में लखनऊ रवाना हुए। वह बहुत सी मुश्किलों का सामना करते हुए लखनऊ पहुंचे, वहां उनकी शायरी की धूम मच गई। नवाब वासिफ उद दौला उन्हें 3 सो रूपये वजीफे के तौर पर देते थे। मीर वहां आराम से जिंदगी बसर करने लगे। लेकिन किसी बात पर नाराज़ हो कर दरबार से अलग हो गए।

आखरी तीन सालों में जवान बेटी और बीवी की मौत ने उन्हें बहुत सदमा पहुंचाया। आखिरकार उसी सदमे की वजह से शायर के शहंशाह 87 की उम्र पा कर 20 सितम्बर 1810 में लखनऊ की आगोश में हमेशा के लिए सो गए।