अब विपक्ष के सामने खुद का अस्तित्व बचाने की कोशिश!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एकतरफा जीत ने विपक्ष को गहरा आघात दिया है. दुर्बल विपक्ष के सामने अपना वजूद ही नहीं देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को बचाने की भी सघन चुनौती है. वह आखिर किस बूते खुद को बदलेगा?

सभी विपक्षी दलों को नई संसद में सत्ताधारी एनडीए गठबंधन से करीब आधी सीटें ही मिल पाई हैं. कांग्रेस की 52 सीटें हैं और वाम की पांच. पुराने क्षेत्रीय दलों में डीएमके ही अपना असर बचा पाई. नए में जगन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस उभर कर आई है.

बीजू जनता दल को छोड़ आरजेडी, सपा, बसपा, तृणमूल, एनसीपी आदि पुराने क्षेत्रीय दल ढह गए. एक ओर अधिकांश क्षेत्रीय ताकतों का दमखम कम हुआ तो दूसरी ओर नई क्षेत्रीय ताकतों के उभार ने यह संकेत भी दिया कि भारत में अब भी क्षेत्रीय राजनीति की स्पेस कम नहीं हुई है. ये बात अलग है कि केंद्र की सत्ता बनाने या बिगाड़ने में उनकी भूमिका पहले से कम हुई है.

ज्यादातर पार्टियां पारिवारिक दायरे या उत्तराधिकार या एक व्यक्ति की छत्रछाया में चल रही हैं. 2019 के चुनावों में बेशक कई राज्यों में क्षेत्रीय दल बीजेपी और नरेंद्र मोदी के सामने टिक नहीं पाए लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि बीजेपी को हिंदी पट्टी के अधिकतर राज्य, बंगाल और कर्नाटक छोड़ दें तो कुछ वैसी स्थितियों में भी लाभ हुआ है, जहां उसने क्षेत्रीय दलों से गठबंधन किए हैं जैसे बिहार और महाराष्ट्र.

असल में इन चुनावों में ये तो और अधिक साफ हुआ है कि परिवारवाद के खोल से बाहर आए बगैर राजनीतिक दल बने नहीं रह पाएंगें. जयललिता के निधन के बाद एआईएडीएमके की स्थिति देखी जा सकती है. टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडु भी परिवार के मोह से नहीं निकल पाए.

जेल की सजा काट रहे आरजेडी संस्थापक लालूप्रसाद यादव जैसे प्रखर नेता के बिना पार्टी में आज जो सन्नाटा पसरा हुआ है, वह दरअसल परिणति की तरह है- काश लालू भी इसे समझते और पार्टी की कमान यादव परिवार के बाहर किसी नेता को सौंप पाते.

या यूपी में सपा जिस स्थिति से गुजर रही है, वो मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे अखिलेश और अब तक सांसद बनते आ रहे उनके परिवार के अन्य लोगों के लिए इतनी स्तब्धकारी न होती. बसपा और तृणमूल जैसे दलों की सेकंड लाइन कहां हैं, कोई नहीं जानता.

नरेंद्र मोदी ने इन दलों की इस कमजोर नस पर जोर से हाथ रखा है. इस मामले में कांग्रेस जैसा राष्ट्रीय दल भी नहीं बच पाया जिस पर गांधी परिवार की मिल्कियत होने का आरोप ठप्पे की तरह लगा है.

हां, वामदल जरूर ऐसे आरोपों की आंधी से बचकर खड़े रह सकते थे लेकिन शायद वे यही क्या किसी भी तरह की आंधी से लड़ने की तैयारी में भी नहीं थे, वरना नैतिक तौर पर बीजेपी जैसे दल को सबसे सशक्त चुनौती देने में आगे रह सकते थे.

हालांकि ये सवाल भी अपनी जगह है कि क्या आज कोई पार्टी, समस्त संसाधनों से संपन्न और आर्थिक रूप से सबसे सशक्त और मीडिया और प्रचार में समस्त ताकत झोंक देने वाली पार्टी का मुकाबला अपने सीमित और निरीह संसाधनों से कर सके.

अभिभूत होकर जिसे आज प्रधानमंत्री का बड़ा करिश्मा बताया जा रहा है, उस माहौल में हमें ये बात भी याद रखनी चाहिए. दूसरी ओर, राजनीति में वंशवाद से सत्ताधारी एनडीए को परहेज रहा हो- ऐसा नहीं है वरना लोजपा नेता रामविलास पासवान और उनके बेटे आज बीजेपी लहर पर सवार न हुए होते या महाराष्ट्र में बीजेपी शिवसेना के साथ और पंजाब में अकाली दल के साथ न होती.

साभार- डी डब्ल्यू हिन्दी