मोदी सरकार की गलत नीतियों की वजह से सुकमा में जवान शहीद हुए: रवीश कुमार

इराक़ युद्ध में शामिल होने का तत्कालिन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर का फ़ैसला ग़लत था। इराक़ युद्ध ग़ैर कानूनी युद्ध था। दोषपूर्ण ख़ुफ़िया जानकारी के आधार पर टोनी ब्लेयर ने युद्ध में शामिल होने का फैला किया और सभी विकल्पों की तलाश नहीं की गई। यह कथन उस कमेटी का है जिसे इराक युद्ध में ब्रिटेन के शामिल होने के निर्णयों की जांच करनी थी। ब्रिटेन में ही ऐसा हो सकता है, भारत में ऐसी बात हो जाए तो बहुत से राष्ट्रवादी मूर्ख झांव झांव करने लगेंगे कि सेना पर कौन है जो उंगली उठा रहा है, इससे देश की सुरक्षा को ख़तरा है। पिछले साल यह रिपोर्ट आई थी, मेरे ख़्याल से ब्रिटेन की सुरक्षा को इस कारण से कोई ख़तरा नहीं उठाना पड़ा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि ब्लेयर के निर्णय से सबक सीखे जाने चाहिए ताकि सुनिश्चित हो सके कि युद्ध हमेशा अंतिम उपाय होता है।

इसे चिल्काट कमेटी की रिपोर्ट कहते हैं। 2003-2009 के बीच इराक में ब्रिटेन के मात्र 180 सैनिक मारे गए थे। इस बात पर जांच हो गई कि इतने सैनिकों की मौत क्या जायज़ थी। 12 खंडों में यह रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। जिस दिन यह रिपोर्ट पेश की गई वहां शहीद सैनिकों के परिजन भी मौजूद थे। उन्होंने टोनी ब्लेयर को आतंकवादी कहा था और अगले दिन कई पत्रिकाओं या अख़बारों के कवर पर यही हेडलाइन थी कि टोली ब्लेयर आतंकवादी है।

भारत में मोर्चे पर मारे जा रहे जवानों और अफ़सरों की जान की कीमत इतनी ही है कि शहीद शहीद करने का एक ढोंग सा होता जा रहा है। मंत्री जाते हैं, सम्मान राशि दी जाती है और टीवी पर कवर होता है। ये तो होना ही चाहिए बल्कि इससे भी ज़्यादा होना चाहिए। मगर शहादत के सम्मान का यह मतलब नहीं कि हम नीतियों पर सवाल न उठायें। उनकी मौत किसकी ग़लती से हुई, उस पर सवाल न करें। कई बार लगता है कि ये शहीद शहीद इसलिए भी होता है ताकि नीतियों और ग़लत नीतियों पर सवाल न उठे।

“केंद्र सरकार की ख़राब पालिसी की वजह से मेरा बेटा मरा है। अगर वह सीमा पर लड़कर शहीद होता तो ज़रा भी दुख नहीं होता। जम्मू कश्मीर में हालात ऐसे बने हुए हैं जिस पर सरकार ध्यान ही नहीं देती है”

यह बयान उस पिता का है जिसका बेटा शहीद हुआ है। 26 अप्रैल को कुपवाड़ा में सेना के एक शिविर पर आतंकवादियों ने हमला कर दिया। इस हमले में 26 साल के कैप्टन आयुष यादव शहीद हो गए। उनके पिता कानपुर के जाजमऊ के रहने वाले हैं और पुलिस में सब इंस्पेक्टर हैं। आयुष के चाचा और ताऊ भी सेना में सेवा दे चुके हैं। पिता अरुण कांत यादव ने जो सवाल किया है उसका भी जवाब देना शहीद का सम्मान करना है। सरकार को बकायदा लिखित रूप में जवाब देना चाहिए। शहादत पर गर्व करने के साथ-साथ हमें यह पूछना ही चाहिए कि नौबत कैसे आई। कैसे आतंकवादी बार बार सैन्य शिविरों पर हमला कर जाते हैं। पठानकोट, उड़ी से लेकर तमाम ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं।

सुकमा में सीआरपीएफ के 26 जवानों मारे गए। यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि कैसे तीन सौ की संख्या में आकर नक्सली करीब 100 हथियारबंद जवानों को घेर लेते हैं। भोजन करने के कारण बेख़बर रहने की बात जंचती नहीं है, तब भी बंदूक तो पास ही होगी। जवानों को भी पता है कि सब बंदूक रखकर खाने लगेंगे तो ख़तरा आ सकता है। यह कैसे हुआ कि इतनी आसानी से नक्सली हमारे जवानों को मार गए, हथियार भी लूट गए। नक्सलियों के मारे जाने की बात तो हो रही है मगर मीडिया में उनके शव बरामद की चर्चा कहीं नज़र नहीं आती है।

हमारी सहयोगी नीता शर्मा की रिपोर्ट बताती है कि सीआरपीएफ ने अपनी एक रिपोर्ट गृहमंत्रालय को सौंपी है जिसमें कहा है कि सीआरपीएफ का बटालियन तय समय से भी दुगने समय तक वहां रूका रहा। कायदे से तीन साल में बटालियन का तबादला हो जाना चाहिए मगर पांच साल से तैनाती थी। हो सकता है इससे उनमें थकान और उदासीनता आ गई हो। सूत्रों के हवाले से ये बात सामने आई है। हम सिर्फ 25 जवानों की मौत पर शहीद शहीद कर रहे हैं, यह नहीं पूछ रहे कि चार महीने से सीआरपीएफ जैसी संस्था जो कश्मीर और छत्तीसगढ़ में आतंकवाद और नक्सलवाद से लोहा ले रही है उसका महानिदेशक क्यों नहीं था। अब जाकर जब सवाल उठा तो चुपके से नए महानिदेशक की तैनाती कर दी। क्या सीआरपीएफ की समस्याओं, जवानों की चुनौतियों पर बात करना, उस समस्या से लड़ने वालों की बात करना नहीं है, जिनकी शहादत पर हम एक ट्वीट करके देशभक्त हो जाते हैं।

शायद हम शहादत का सम्मान तो करते हैं मगर जान की कीमत नहीं समझते। जान की कीमत समझा ब्रिटेन ने जिसके मात्र 180 सैनिक मारे गए और वहां कमेटी बैठ गई कि इतने अधिक सैनिक कैसे मारे गए। यह रिपोर्ट वहां की संसद में पेश हुई है। भारत होता तो कहा जाने लगता कि युद्ध था, युद्ध के हिसाब से तो 180 बहुत कम मारे गए हैं और टीवी पर बैठकर लोग ताली बजाते। पिछली सरकार और इस सरकार में यही बदलाव आया है। कैसे किसी अधिकारी या जवान की शहादत हुई, क्या तैयारी है कि सैन्य शिविर पर हमला हो जाता है, अब यह नहीं पूछा जाता है। किसी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जाता है, इस्तीफा तो मांगना गुनाह है। इसकी जगह शहीद-शहीद का शोर इतना कर दिया जाता है कि बुनियादी सवाल पूछने की नौबत ही नहीं आती है।

शहीद कैप्टन आयुष यादव के पिता ने जो बात कही है वो देश के हित में ही है। अगर नीतियों और रणनीतियों की वजह से जवानों की जान जा रही है तो यह सवाल करना भी शहादत का सम्मान करना है। सरकार की यह भी ज़िम्मेदारी है कि वो देखे कि उसके सैनिकों का कम से कम नुकसान हो। सैनिक सिर्फ ताबूत में रखकर गिने जाने के लिए नहीं हैं। जीने के लिए भी हैं। वो जान देने को तत्पर रहते हैं, इसका मतलब नहीं कि हम ऐसी नौबत न आए, उसकी राजनीतिक या अन्य पहलन नहीं करेंगे। इन दिनों सोशल मीडिया पर एक गैंग तैयार है, उसका बस चले तो वे आयुष के पिता पर हमला ही कर देंगे कि बेटा शहीद हुआ है तो आप सरकार पर सवाल कैसे उठा सकते हैं। किसी और शहीद के पिता को सामने ले आएंगे और वो भी आयुष के पिता पर हमला करने लेंगे। यह सब पैटर्न फिक्स हो चुका है। बस किसी तरह हम सरकार पर सवाल न करें, सेना पर सवाल न करें, बल्कि ध्यान भटकाने के लिए ट्वीटर पर चार लोगों का नाम लेकर खोजें कि वो कहां हैं, वो निंदा क्यों नहीं कर रहे। अरे भाई निंदा उसकी होगी जिस पर नीतियों की ज़िम्मेदारी है या उसकी होगी जो ट्वीटर पर है। जवाब किसे देना है सरकार को या ट्वीटर पर सवाल करने वालों को। उड़ी के सेना बेस पर हमले के आठ माह बाद दोबारा हमला हुआ है और कोई चूं तक नहीं कर रहा। शायद यही सरकार के अच्छे दिन है, पूछा उससे जाना चाहिए तो लोग उनसे पूछ रहे हैं जो ट्वीटर पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं जैसे सरकार चलाने की ज़िम्मेदारी उन्हीं को मिली है।

द वायर नाम की एक वेबसाइट है। अच्छी साइट है और इस पर नियमित जा सकते हैं। इसकी एक रिपोर्ट से पता चला कि 2016 के साल में जम्मू कश्मीर में आतंकी हमलों में कुल 87 जवान शहीद हुए हैं। 2008 के बाद यह सबसे अधिक संख्या है। नोटबंदी को प्रचारित करने के लिए कहा गया कि आतंकवाद और नक्सलवाद की कमर टूट गई है। लोगों ने बिना दिमाग़ लगाए मान भी लिया। द वायर की रिपोर्ट में लिखा है कि 28-29 सितंबर की रात सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक की थी। उसके बाद से 15 फरवरी तक जम्मू कश्मीर में एक दर्जन आतंकी हमले हो चुके हैं। मोदी सरकार के कार्यकाल में दो साल के भीतर 156 जवान शहीद हो चुके हैं। कश्मीर में आतंकी हमलों की संख्या वाजपेयी और मनमोहन सिंह के कार्यकाल की तुलना में मोदी कार्यकाल में बढ़ी है।

ज़ाहिर है हम सब कुछ स्लोगन में बदल देने में यकीन रखते हैं। स्लोगन आ गया चलो मान लो काम हो गया। सिर्फ शहीद-शहीद करना शहादत का सम्मान नहीं है। कड़ी निंदा और कड़ी कार्रवाई से आगे बात होनी चाहिए। सिर्फ यह बोल देना या दिखाने के लिए दो चार साहसिक कार्रवाई कर देने से यह दावानल रूकने वाला नहीं है। अब सब कुछ टीवी के लिए हो रहा है। एकाध कार्रवाई ऐसी कर दी जाएगी जिसे लेकर देश झूम जाएगा, उसके बाद फिर वही स्थिति बन जाती है। सर्जिकल स्ट्राइक का कितना तमाशा बनाया गया, मिनट भर में इसे टीवी और रैलियों में ले जाया गया। अब कोई बात ही नहीं कर रहा है कि हमारी सीमा में सर्जिकल स्ट्राइक कैसे हो रही है। कैसे आतंकी सैन्य शिविरों पर या उसके आस-पास हमला कर दे रहे हैं। हमें पूछना चाहिए कि आखिर हमारे जवान शहीद क्यों हो रहे हैं। अफसर क्यों मारे जा रहे हैं। सवाल करने का मतलब यह नहीं कि आप सेना या सरकार को कमतर करते हैं, इससे तो सरकारों की जवाबदेही बेहतर होती है। आख़िर जिसका बेटा मारा गया है वो भी समझ रहा है कि क्या गड़बड़ी हो रही है।