आप सिगल नहीं जानते हैं?- रवीश कुमार

देखना जब तक पूरा नहीं होता है, तब तक देखने की क़शिश बनी रहती है। उसमें कशिश थी या मेरी तलब थी,इस ख़्याल में उलझने का वक्त ही नहीं मिला। जैसे पहली बार किसी की नरम हथेली की तरह मेरे हाथ में आ गई। मैं उसे वहीं रखकर लोगों से उलझ गया और उलझा रह गया पहली बार का वो स्पर्श। कमरे में जाते ही ख़्याल आया कि जो छोड़ आए हो उसे एक बार फिर से देखो। मैंने कहा था या उसने बुलाया मुझे !!

सीढ़ियों से भागता वापस पहुँचा तो फिर से उस हथेली को अपनी हथेली में थाम लिया। किसका हाथ होगा! क्या पहले भी कभी देखा है? क्यों ऐसा लग रहा है कि अब तक के देखे हुए सारे अहसास पुराने और रंगहीन हो चुके हैं? ज़माने बाद महसूस भी तो हुआ था वरना अब सब जानना हो गया है। जानते हुए भी जानने में अब जानना नहीं रहा, हम जान लेने को ही पूरा समझने लगते हैं। देखना पूरा करते ही नहीं हैं।

कई बार गया वहाँ। हर बार का स्पर्श पहले की अनुभूतियों से बेहतर हो जाता। कभी रंग, कभी रेखाएँ, कभी चित्र तो कभी शब्द। सफेद पन्नों पर शांति पसरी हुई लगी। कहीं रंगों के हल्के छींटे तो कहीं शब्द के पहले अक्षर के किनारे एक बूँद रंग का छिपा मिलना। रंग भी सुस्ताते हैं! अचानक कहीं दिख जाते तो कभी उड़ते नज़र आते जैसे हथेली में आसमान हो।

भीतर के कई पन्नों पर शब्द टाइप की मार से चिपकाए नहीं गए थे बल्कि चुपचाप किसी रात वहाँ आकर ठहर गए थे। सबने सबके लिए पर्याप्त जगह छोड़ी थी। उन शब्दों को देखना पहली बार का देखना लग रहा था जबकि रोज़ असंख्य शब्दों से गुज़रता हूँ। ध्यान आया कि कितने रोज़ से शब्दों को नहीं देखा है।

मैं जितनी बार देखता, उतनी बार कुछ न कुछ साथ ले आता। सीढ़ियाँ चढ़ता, कमरे में रखता और कहीं और जाने के लिए निकलता कि फिर वहीं पहुँच जाता। किसी से फोन पर कहने लगा, इस शहर में कोई है जिसकी आँखों में सपनों की जगह शब्द तैरते होंगे। जो शब्दों को देखते ही हिमालय की तरफ उड़ जाता होगा या फिर साइबेरियन क्रेन की तरह वापस चला जाता होगा। कोई तो है जो इस बाज़ार में होते हुए भी बचे रहने के ज़िद पर अड़ा है। कौन हो सकता है? कौन है जो किताब को किताब से ज़्यादा समझता है? इस बार हथेली पलट दी और नीचे की रेखाओं को पढ़ने के लिए चश्मे को नाक पर ठीक से सेट कर लिया।

आप सिगल नहीं जानते हैं? नहीं। सही में नाम नहीं सुने हैं? नहीं। उसके दफ्तर चले जाइयेगा। इतनी सी बात के बाद फोन नेटवर्क से बाहर हो गया। सीगल! मैं नहीं जानने को लेकर कभी शर्मिंदा नहीं होता क्योंकि मुझे पता है पहली बार जानने का सुख।

मैं एक बार फिर से छोटे से काउंटर पर लौट आया। अब मेरी हथेली में हथेलियाँ बदलने लगीं। उँगलियों के स्पर्श से कवर को महसूस करने लगा। पहली बार कोई किताब लेखक के नाम और रूतबे से अलग होकर किताब होने का दावा कर रही थी।

किताब सिर्फ लेखक की नहीं होती हैं। प्रकाशक की भी नहीं और कई बार संपादक की भी नहीं। लेखक किताब के भीतर होता है। किताब के भीतर से किताब निकाल लाने वाला ज़रूर कोई बगुला होता होगा जो घंटों ध्यान लगाए पानी की गहराई नापता रहता होगा और झट से मछली पकड़ कर उड़ चलता होग। कोई भी किताब पहले कवर पर होती है। भीतर से पहले बाहर होती है।

मैंने सबको सीगल बुक्स कहते सुना। वहाँ जो भी ख़रीदार था, किसी लेखक को नहीं ख़रीद रहा था, सीगल बुक्स ख़रीद रहा था। कोई भी एक किताब नहीं ख़रीद रहा था। सब एक से ज़्यादा के फ़िराक़ में थे। कई ख़रीदारों का तो लेखक से परिचय भी नहीं था। किताब के किताब होने से था। वरना आप किसी जर्मन, किसी फ्रेंच,किसी स्पेनिश कवि और लेखक को यूं ही नहीं ख़रीद लेंगे। एक बार छू देने और देख लेने भर से कोई किताब आपके साथ हो सकती है,मैंने अपने साथ होते देख रहा था। किताबों को ख़रीदने,सराहने का सारा अनुभव बदल चुका था। पहले का देखा अब कमतर लग रहा था।

सुनंदिनी नाम है उनका। उन्हीं का कमाल है। ये सारा,ये भी,ये रंग भी,ये नोट्स भी,ये सब सुनंदिनी के हैं। वो यहीं हैं? नहीं वो यहाँ नहीं आई हैं। किससे बात हो रही थी,याद नहीं। इतनी सारी किताबों की पहचान में सुनंदिनी हैं! दिल्ली की हैं? नहीं,वो हमारे साथ काम करती हैं। यहीं कोलकाता में।

ब्रीफ़केस में जगह कम होती जा रही थी। फिर भी एक और बार के लिए पैसा बढ़ा दिया। ये भी दे ही दीजिए। काउंटर पर बैठी दीदी समझ गईं थीं कि हीरे ने ख़रीदार की आँखों में चमक पैदा कर दी है। सेमिनार में दूसरों को सुनने का मन ही नहीं किया। हर बार किताबों को उठाकर देर तक छूता रहा। दीदी ने कहा कि आप हमारे ऑफ़िस जा सकते हैं। मैंने ना कह दिया। लगा कि किताबें तो देख ही लीं, बहुत सी ख़रीदी भी तो अब क्या जाना। वैसे देखने पर पहरा नहीं लगाना चाहिए। देखते रहना चाहिए। पर फिर भी…

अचानक नवीन किशोर ने कहा, आइये सीगल चलते हैं। थोड़ी देर बाद उनकी कार में। दो दिन बाद ख़्याल आया कि जिसके बुलावे पर कोलकाता आया हूँ वो नवीन किशोर ही हैं। सीगल के संस्थापक। शहर में नाटक और फिल्म की दुनिया अड्डा बनाया था कभी। बाद में प्रकाशक बन गए। सीगल उन्हीं की कल्पना है जिसमें सुनंदिनी के पर लग गए हैं।

भवानीपुर थाने के सामने इंदिरा सिनेमा है। सिंगल थियेटर। वहीं पर है सीगल का ऑफ़िस। सॉरी ऑफ़िस भी नहीं और दुकान भी नहीं। एक ख़ूबसूरत घोंसला कह सकते हैं। अब यहाँ से देखने का सारा अनुभव फिर बदलने लगता है। किताबें बिकने के लिए कम हमेशा के लिए किसी फ्रेम में बंद ज़्यादा लग रही थीं। सायोनी एक एक किताब दिखाने लगीं। कभी बात कवर की तो कभी आकार की तो कभी अक्षरों तो कभी रेखाओं की होने लगी।

सुनंदिनी से मिला। देखा। बात नहीं हुई। ज़रूरत भी नहीं थी। उनके काम से बात हो चुकी थी। हो रही थी। नवीन किशोर का सीगल दुनिया भर में उड़ रहा है। दिल्ली के दबाव से मुक्त होकर यूरोप,अरब, अमरीका,अफ़्रीकी लेखकों की दुनिया को समेट कर भारत ले आए और यहाँ से सबको छाप कर अलग अलग दिशाओं में भेजना शुरू किया। सीगल का अपना स्कूल ऑफ़ पब्लिशिंग भी है। जो इस काम में श्रेष्ठ होना चाहते हैं उनके लिए बेहतर जगह होगी। कई देशों के छात्र वहाँ पढ़ने आते हैं।

आप कोलकाता जाएँ तो सीगल के घोंसले में ज़रूर जाएँ बल्कि सीगल के लिए ही कोलकाता जाएं। आपके भीतर देखने का सुकून फिर से लौटेगा। आप पहले से बेहतर महसूस करेंगे।आपको किताब ख़रीदने की ज़रूरत ही नहीं होगी, किताब ही आपको ख़रीद लेगी।