रवीश कुमार: शाहरूख़ ख़ान और गौरी से इतर नताशा और अफ़ज़ल की कहानी के बिना हिन्दुस्तान अधूरा है!

“Love jihadis are sneaky. They are experts at love. They can adore you even if you insist on hating them”

My Daughter’s Mum: Essays की यह पंक्ति जैसे ही आप पेज नंबर 216 पर पढ़ते हैं, उसके 37 पन्नों बाद ख़त्म हो जाने से पहले यह किताब फिर से आपकी आंखों के सामने घूम जाती है। 1947 के बंटवारे के बाद लाहौर से आई नानी की नातिन दिल्ली में 1984 के दंगों के दौरान पड़ोस में जले मकान की दबी हुई स्मृतियों से तब टकराती है जब वह 2002 के गुजरात दंगों में एक जले मकान को शूट कर रही होती है। वही साल था जब दिल्ली की नताशा बधवार और जौनपुर के तिलक धारी सिंह छत्री इंटर कालेज के अफ़ज़ल शादी करने का फ़ैसला करते हैं। 2017 में नताशा बधवार लिखती हैं कि लव जिहादी प्यार के प्रोफेसर होते हैं। जब आप उनसे नफ़रत कर रहे होते हैं, तब भी वे आपको प्यार कर सकते हैं। नताशा लिखती हैं कि प्यार से नफ़रत की जाने लगी है और नफ़रत से मोहब्बत।

Simon & Schuster India की यह 350 की किताब आपको इंटरनेट से लेकर किसी भी दुकान में मिल जाएगी। बचपन में डांट की वजह से लिखना छोड़ चुकी नताशा बधवार जब अपनी दूसरी बेटी के जन्म के बाद गुमनाम ब्लॉग लिखना शुरू करती हैं, तब वह अपनी आत्महत्या की नाकाम कोशिश को भी दुनिया के सामने रख पाने का साहस जुटा पाती हैं। अपनी पहली कोशिश में नताशा कहीं का होने और समझे जाने की चाहत में लिखती हैं। दूसरी कोशिश में वे मोहब्बत की जगह आबाद करने के लिए लिखती हैं। ख़ुद को अंधेरी सुरंग में देखने के लिए लिखती हैं, छोटा-बड़ा के फर्क को मिटाने के लिए लिखती हैं, सबके भीतर के बचपन को उभारने के लिए लिखती हैं।

आलीज़ा, सहर और नसीम इन तीन बेटियों के साथ ख़ुद को नए सिरे से समझने की यात्रा है यह किताब। यह यात्रा बग़ैर हिन्दुस्तान की तारीख़ के पूरी नहीं हो सकती। गूगल सर्च कर बच्चों को बड़ा करने वाले, बाथरूम से लेकर क्लासरूम तक सीसीटीवी निगरानी में बच्चों को रखने वाले माता पिता के लिए यह किताब किसी काम की नहीं है। गूगल सर्च हर मां-बाप को सीसीटीवी कैमरा बना देता है। जिसमें सबकुछ सुरक्षित तरीके से आता जाता दिखाई तो देता है मगर कुछ सुनाई नहीं देता है। लेकिन ऐसे मां-बाप जब इस किताब को पढ़ेंगे तो उनके लिए एक नया मौक़ा भी खुलेगा। वे जब दादा दादी या नाना-नानी बनेंगे तो अपने बचपन को फिर से जी सकेंगे। किसी और का बचपन बेहतर कर सकेंगे। आलीज़ा, सहर और नसीम का बचपन सिर्फ सुनने का नहीं है, कहने का भी है। अपनी बेटी को डांटते वाली उस आंटी को समझने का भी है जो आलीज़ा को प्यार जताते हुए अच्छी बनती हैं।

एक मां अपनी बेटी से बात कर रही है कि कैसे उसने संस्कृत के इम्तहान के लिए चोरी की योजना बनाई थी मगर पूरे समय यही सोचती रही कि अब पुलिस पकड़ लेगी, कोई पकड़ लेगा। मां जान जाएगी। बेटी भी हामी भरती है कि वो भी यही सोचती है कि मां क्या सोचेगी। कितनी आसानी से नताशा ने ख़ुद को अपराध बोध से मुक्त भी कर लिया और बेटी को अपराध न करने का सबक सीखा दिया। बच्चे को पालना एक खेल के समान है। नताशा लिखती हैं। क्योंकि यह आपको भी खेलने के लिए प्रेरित करता है।

इस किताब का एक एक चैप्टर को आपको भीतर से खोल देता है। माता पिता का खेल बहुत ही जटिल जाल है। आप अपने बच्चे को कैसा बनाना चाहते हैं, इसका नक्शा आपके गहरे अवचेतन से आता है। हम अपने बचपन को फिर से दोहराने लगते हैं। थोपने लगते हैं। अमरीका आई चीनी मां चाहती है कि उसकी बेटी संगीत और पढ़ाई दोनों में शानदार करे। वो एक प्रवासी परिवार की है चाहती है कि अमरीका में वो अच्छा करे। फेल होने की कोई गुज़ाइश ही न हो। पास होने के जुनून में टाइगर मॉम खेल और उसके लुत्फ़ की कीमत जान ही न सकी।

नताशा का परिवार भी इसी तरह के माहौल का था। बच्चों को सफल होना था। रीडर डाइजेस्ट से पन्ने फाड़ने की अनुमति नहीं मिली तो नताशा ने अपनी डायरी में लिखा था The greatest gift you can give your child: self esteem ! एक पल में यह किताब मां की बन जाती है, एक पल में उसकी तीन बेटियों की। कई तरह के बचपन इसके आंगन में खेल रहे होते हैं। ऐसी ही एक दुपहरी को कराची, दिल्ली और लखनऊ के बच्चे गाज़ीपुर के एक गांव में गांधी फिल्म देख रहे होते हैं। कराची वाली लड़की जिन्ना को देखकर उत्साहित हो रही है, दिल्ली वाली गांधी को। बंटवारे की हिंसा के सीन को देखते हुए बचपन के साथ एक मां अपने भीतर इतिहास के पन्नों को पलट रही है। वो दरअसल मां नहीं है। पेशे से कैमरामैन है इसलिए लेंस सेट कर साफ साफ देखती है। वैसा ही जैसा कैमरे से दिखता है। यह प्रसंग इस बात पर ख़त्म होता है कि मां इस दुनिया में कितनी दुनिया है। इंडिया, अमरीका और पाकिस्तान लेकिन जब जगह एक ही आसमान है।

“I am a Muslim, a Hindu, an Indian and I love Harry Potter” सहर ने कभी अपनी डायरी में लिखा था। नाई ने जब आलिज़ा से पूछा कि तुम मुसलमान हो तो उसने हां कह दिया। उसकी छोटी बहन नसीम ने थोड़ा सा और जोड़ दिया कि हम हिन्दू भी हैं, मुसलमान भी हैं। नाई कहता है कि दोनों नहीं हो सकते। नताशा कहती हैं कि आपके परिवार में नहीं होता होगा, हमारे परिवार में दोनों हो सकते हैं।

लेकिन दादरी की घटना का समाचार जब कांता बाई लेकर आती हैं तो ठीक वहां से दस किमी की दूरी पर रहने ली नताशा इस ख़्याल से टकराने लगती हैं कि क्या उनके परिवार के साथ भी ऐसा हो सकता है। उन्हें इन बातों पर शर्म भी आती है मगर उनका दिमाग़ योजनाएं बनाने लगता है। जब भीड़ आएगी तब किसे फोन करेंगे। कैसे बचेंगे। नताशा सोचती हैं कि बच्चों के साथ साझा करते हैं फिर लिखती हैं कि शुक्र है अफ़ज़ल उस वक्त घर से बाहर थे। हम दोनों अपनी अपनी बेचैनियों को अलग अलग स्पेस में समझ सकते थे। मगर यह सिर्फ भीड़ की हिंसा भर नहीं थी। एक राष्ट्र के रूप में हम मलबों के बीच में खड़े थे।

‘Papa As the Nation I know’ नताशा अपने पति के पिता को याद करती हुई लिखती हैं कि जब शादी हुई थी तब उन्होंने तीन भाषाओं में कार्ड छपवाया था। हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी। कार्ड पर हिन्दू समधी समधन का भी नाम था। जब वो काफी बीमार हो गए थे तब नताशा भी उनकी तीमारदारी कर रही थीं। जो लिखा है आप भी पढ़िये।

“This man, lying sick in bed, is the India I was born in. He is the India that I care to live in- an India that honours my choices and meets me where I am; that listens to each opinion; that reinvents itself to make place for my children”

इस किताब को आप आज के समय के बग़ैर पढ़ नहीं सकते। ये बच्चों को बड़ा करने की कोई गाइड बुक नहीं है बल्कि समय के साथ एक मुल्क को बड़ा करने की किताब है। आप नताशा की हल्की और ख़ूबसूरत पंक्तियों की क्यारी से गुज़रेंगे तो बहुत से फूलों से टकराएंगे। जहां तल्ख़ सवाल भी आपको धक्का नहीं देते हैं बल्कि बग़ैर किसी ख़रोंच के आपको झकझोंर जाते हैं। जो लोग बच्चों को पालने के दस टिप्स खोज रहे हैं उनके लिए तो और भी बेहतर जगह है यह किताब। हां उस दस टिप्स से उनके भीतर सौ दरवाज़ें खुल गए तो इसमें किताब वाली का कोई कसूर नहीं होगा।

मुझे भी गुगल ने पिता नहीं बनाया है। मैंने कभी गूगल सर्च नहीं किया। आप भी मत कीजिए। टीवी ने मुझे बहुत कुछ छीन लिया। नताशा की किताब पढ़कर समझ गया कि क्या क्या छीन लिया। बताने की ज़रूरत नहीं। आज ही छुटंकी से बात कर रहा था. बोली कि तुम बुद्धू हो। मैंने कहा कि मैं ब्रिलिएंट हूं। तो उसने चंद सवाल पूछे। बताओ जापान में नोबिते को क्या होमवर्क मिलता है? मैंने दिमाग़ लगाया, जापान है तो कुछ गैजेट का ही होमवर्क होगा। जवाब दिया कि हेलिकाप्टर उड़ना। हंस दी बोली कि कुछ नहीं पता। चलो एक और सवाल। नोबिता को क्लास में कितने नंबर आते हैं? मैंने कहा कि दस में दस। छुटंकी कहती है कि ज़ीरो आता है नोबिता का। कुछ पता नहीं तुमको। बुद्धू हो। इसीलिए मैं कहती हूं, किताब मत पढ़ा करो, कार्टून देखा करो।

प्लीज़ इस किताब में जावेद अख़्तरीय मां नहीं है। जो ममता और आंसुओं से भरी हुई है। त्याग की देवी है। अफ़ज़ल कहते हैं कि नताशा तुम इस घर की पति हो। हा हा। सुपर मॉम बनने की तलाश में पढ़ने वाली मांओं को निराशा हाथ लग सकती है। बच्चे भी बहुत होशियार नहीं हैं। इन्हें देखकर नहीं लगेगा कि आई आई टी की तैयारी के लिए किसी कोचिंग सेंटर में पल रहे हैं। नताशा एक ‘नागरिक स्पेस’ में ख़ुद को और बेटियों को बड़ा कर रही हैं जिसकी कल्पना हमारे ख़ूबसूरत संविधान में है।

इस किताब की खूबसूरती इसके वाक्य हैं। बच्चों की तरह कई छोटे छोटे वाक्य खेलते हुए मिलते हैं। जैसे लगते हैं जैसे कोई बच्चा चार कदम भाग कर रूक गया हो। वाक्यों का बचपन दिखता है इसमें। “WE WERE ONE. ALIZA WAS BORN.WE WERE FREE. WORLD-VIEW THINGS. I CONSOLED HER.ALIZA WAS UNCONVINCED.EARS ARE USEFUL.LOVE IS HATED. HATE IS LOVED.

मैं सारे छोटे वाक्यों का सैंपल यहां नहीं जमा करना चाहता। बस मज़ा आया तो मिसाल के तौर पर आपके लिए यहां पेश कर दिया। ताकि हिन्दी के पाठक यह सीख सकें कि बग़ैर बड़े बड़े वाक्यों के अंग्रेज़ी लिखी जा सकती है। आज की राजनीति ने हमारी अभिव्यक्तियों को उलझा दिया है, नताशा की यह किताब हमें सरल बनाने के काम आ सकती है।

आलीज़ा, सहर और नसीम। गांधी को दुनिया सुनती थी इसलिए वे सादे लिबास में होते थे। आज के कई नेताओं के लिबास वैसे ही हो गए हैं न भी सुने तो कोई नहीं, कम से कम देख तो ले। आलीजा को जब मां नहीं सुनती है तो परियों की तरह सजने लगती है। जब सुनने लगती है तो वह सादे लिबास में हो जाती है।

अगर आप यह सोच रहे हैं कि यह किसी शाहरूख़ ख़ान और गौरी ख़ान जैसे अतिकुलीन लोगों के पारिवारिक अनुभव का मामला है, जहाँ कुछ भी हो सकता है तो आप ख़ुद को इस ग़लत सोच के लिए माफ नहीं कर पाएँगे। नताशा और अफ़ज़ल के अनुभव संसार में गाँव भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना दिल्ली। आप इस पंक्ति के बारे में विचार कीजिए। बच्चों को बड़ा करने के दस टिप्स बेचने वालों के यहाँ ये पंक्ति नहीं मिलेगी।

” It does take a village to raise a child. To raise your inner child. Choose your village.”