जीएसटी का दर्द किससे बयां करें व्यापारी, डर लगता है तो मुझसे करें: रवीश कुमार

प्रथमत: हिन्दी में इस लेख को लिखने के लिए कई घंटे की मेहनत की है और लेख लंबा है, इसलिए पढ़ने में वक्त लग सकता है। पढ़ेंगे तो आपको काफी कुछ समझने का मौका मिलेगा और अपनी तरफ से जानकारी भी कमेंट में जोड़ सकेंगे। व्यापारी भाई , सीए बहन और टैक्स वकील दोस्त पता नहीं नहीं मेरे पेज पर सदस्य हैं या नहीं, उनकी राय मिले तो और भी अच्छा। आगे पढ़िए, देखिए कि आपके हिन्दी अख़बारो में जीएसटी को लेकर किस स्तर के विश्लेषण या रिपोर्ट छप रहे हैं।

जीएसटी की मार व्यापारियों पर इस तरह पड़ रही है कि वे उफ्फ़ तो कर रहे हैं मगर आह नहीं कर रहे। टैक्स प्रशासन के भय के कारण वे खुलकर बोल नहीं पा रहे हैं। वित्त मंत्री ने कहा कि जुलाई में जीएसटी से 95,000 करोड़ आ गया। कर देने वाले व्यापारियों में से 70 फीसदी ने टैक्स भर दिया है। गोदी मीडिया ने इसे वाहवाही का सुर दे दिया। लेकिन अब जीएसटी के भीतर के तनाव सतह पर उभर कर सामने आ रहे हैं। कई व्यापारियों और वकीलों से जीएसटी को लेकर बात कर रहा था। जितना समझा है, उसे लिखना चाहता हूं।

इन दिनों आप ख़बरें देख रहे होंगे कि जीएसटी के तहत व्यापारियों ने इनपुट क्रेडिट का क्लेम लिया है। इसे TRAN-1 कहते हैं। इसके तहत 30 जून के पहले के स्टाक और उस पर दिए गए टैक्स का हिसाब देना होता है। मान लीजिए पुराने स्टाक के हिसाब से जुलाई में आपके यहां रखे माल का आउटपुट 1000 रुपया बनता है। चूंकि आपने ये स्टाक 800 रुपये में जीएसटी लागू होने से पहले ख़रीदा था, और उस वक्त 200 रुपये टैक्स भी दे दिया है। अब इसी स्टाक पर जीएसटी के कारण मान लीजिए 100 रुपया और टैक्स देना है तो कायदे से आपको 100 ही देना चाहिए मगर हिसाब किताब करने की वक्त की कमी के कारण आपको 300 टैक्स देने की छूट दी गई है।
कहा गया कि आप पहले जमा कर दो, बाद में 200 रुपया वापस ले लेना।

यही हुआ व्यापारियों ने अपने पहले दिए हुए टैक्स की राशि को वापस लेने का क्लेम किया तो सरकार के कान खड़े हो गए। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार TRAN-1 के तहत क्लेम की राशि 65000 करोड़ रुपये तक पहुंच गई है। जमा हुआ था 95,000 करोड़ इसमें से 65000 रुपये वापस लेने पर दावा ठोंक दिया। जीएसटी के लिए काम करने वाले चार्टेड अकाउंटेंट और टैक्स वकील मानते हैं कि अभी 15 फीसदी व्यापारियों ने भी अपना क्लेम नहीं किया है। जीएसटीएन की दिक्कतों के कारण इसलिए सरकार ने ट्रांस वन भरने की तारीख 31 अक्तूबर तक बढ़ा दी है। जब सभी भर लेंगे तो पता चलेगा कि व्यापारियों ने 1 लाख करोड़ से अधिक का दावा कर दिया है।

65000 करोड़ की ये राशि सरकार के खाते में दोबारा आ गई। व्यापारियों को दो दो बार टैक्स देना पड़ गया। उनके पास से करीब एक लाख करोड़ रुपया सरकार के यहां अटक गया क्योंकि क्लेम की राशि मिल नहीं रही है। उसमें भी कई तरह की दिक्कतें आ रही हैं। जब व्यापारियों का पैसा कहीं अटक जाएगा तो क्या होगा। व्यापार मंदा होगा। निवेश कम होगा।

सरकार क्यों नहीं तुरंत का तुरंत 65000 करोड़ लौटा देना चाहती है, दावा तो यही था कि इस हाथ से दीजिए, और उस हाथ से लीजिए। Central Board of Excise and Customs (CBEC) ने सभी टैक्स अधिकारियों को पत्र लिखा है कि वे 162 कंपनियों द्वारा 1 करोड़ से अधिक के दावे की जांच करें। फील्ड अधिकारियों से कहा गया है कि वे मौके पर जाकर देखें कि जो स्टाक है और जो क्लेम दावा किया गया है उसमें मिलान होता है या नहीं।

इससे व्यापारियों का पैसा भी रूक गया है और उनके सामने टैक्स अधिकारी फिर खड़े हो गए। जिसके लिए उन्हें टैक्स वकील हायर करना पड़ेगा। ख़र्च बढ़ा? उनका काम बढ़ा? बिजनेस पर ये बोझ किसने डाला? कई व्यापारियों की शिकायत है कि जीएसटीएन नेटवर्क भी ठीक से काम नहीं कर रहा है। कुछ लोग दबी ज़ुबान में कहते हैं कि दिसंबर तक इसके दुरुस्त होने की कोई उम्मीद नहीं है। जीएसटी काउंसिल ने इससे जुड़ी शिकायतों पर नज़र रखने के लिए मंत्रियों का एक समूह भी बनाया है।

सुशील कुमार मोदी के नेतृत्व में बने इस समूह ने जीएसटीएन को लेकर 25 प्रकार की शिकायतों की सूची बनाई है। समय पर जीएसटी न भर पाने के कारण व्यापारी परेशान हैं। सज़ा भी सख़्त है क्योंकि जीएसटी का कानून कहता है कि GSTR-1 दस अगस्त तक भर देना है। इसलिए कई हाईकोर्ट में व्यापारियों ने याचिका भी दायर की है। इसमें जीएसटीन को लेकर तमाम तरह की शिकायतें हैं। Central Board of Excise and Customs (CBEC) ने निर्देश जारी किया है कि हाईकोर्ट में पूरा विरोध करना है। इस तनातनी में जीएसटी को लेकर मुकदमेबाज़ी बढ़ सकती है। व्यापारी और परेशान हो सकता है। मुकदमें का ख़र्च भी जोड़ते चलिए।

जीएसटी से जुड़े एक अनुभवी टैक्स वकील ने कहा कि सरकार को इसे पूरी तैयारी और सरलता से लांच करना चाहिए था। लेकिन 2019 से पहले इसकी दिक्कतों से बचने के लिए इसका बोझ व्यापारियों पर डाल दिया गया। जिसका ख़र्चा व्यापारी उठा रहे हैं। जीएसटी सरल टैक्स नहीं है जैसा कि दावा किया जा रहा है। इसकी जटिलता जब व्यापारियों को समझ आएगी तब पता चलेगा। टैक्स वकीलों को भी एक घंटे की बजाए जीएसटी भरने में चार चार घंटे लगाने पड़ रहे हैं। ज़ाहिर है शहीर और वकील की क्षमता के अनुसार फीस भी होगी जिसका बोझ व्यापारियों पर डाला गया है। व्यापारियों का कोई न कोई टैक्स वकीलों और सीए के दफ्तर में हमेशा बैठा होता है। टैक्स वसूलने को लेकर सरकार और व्यापारियों के बीच एक तरह की जंग चल रही है। व्यापारी डर के मारे बोल नहीं पा रहे हैं।

बिजनेस स्टैंडर्ड में दिलीप झा की एक रिपोर्ट देखी। देश में 2000 आटा मिले हैं। 600 ब्रांड आटा की मिले हैं जिन पर 5 परसेंट जीएसटी है। टैक्स से बचने के लिए ब्रांड का लाइसेंस सरेंडर करने लगे तो जीएसटी काउंसिल ने नियम बना दिया कि बिना ब्रांड वाले भी जीएसटी देंगे और अब ब्रांड वाले लाइसेंस जमा नहीं कर पाएंगे। अब हुआ यह है कि बिना ब्रांड वाले या लोकल ब्रांड वाली आटा मिलें जिनकी संख्या 1400 है, उनका कहना है कि बंद होने के कगार पर पहुंच गई हैं। क्योंकि अब उन्हें भी बैक डेट से जीएसटी देनी होगी। जो आटा बिना जीएसटी के बिक चुका है, उसका खरीदने वाले का हिस्सा कैसे लेंगे। हो सकता है उन्हें अपनी जेब से जीएसटी देनी पड़े।