‘सेहरी में जगने’ की परंपरा और ‘सेहरी तक जागने’ का नया रुझान

खूब याद है कि हमारे बचपन में सेहरी के समय जगने का कितना एहतमाम किया जाता था। गाँव के मियां जी होते थे जो रोज़े का महिना शुरू होते ही रात में बेहद खुशदिली के साथ रोजेदारों को जगाने के लिए निकल पड़ते थे। उनके जगाने का तरीका बेहद दिलचस्प था।

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एक हाथ में लालटेन और दुसरे में बड़ा सा डंडा होता था। काली रातों में लालटेन और जमीन पर पटखने से उठती डंडे की वह अजीब सी आवाज़ सुनाई पड़ना एक अजीब सी कैफियत पैदा कर देती थी। आमतौर पर नात पढ़ने और मोहम्मद मुस्तफा PBUH का वास्ता देते हुए आवाज़ लगाते चले जाते थे।
जिनके यहाँ सेहरी बन जाती थी और उन्हें सेहरी देते थे, लेकिन वह किसी दरवाजे पर नहीं चढ़ते थे। ऐसा कम ही होता था कि हम उनकी आवाज़ पर जग जाएँ। लेकिन अगर कभी भी हम उनकी आवाज़ सुनकर जग जाते तो दोड़कर उन्हें देखने जाते थे और बड़ी आस्था के साथ उन्हें सलाम करते थे।

इसके अलावा गाँव की मस्जिद से भी ऐलान होने लगता था। रोज़े के मसले बयान किये जाते थे। हालाँकि उस समय भी अलार्म घड़ियाँ मौजूद थीं, लेकिन पूरे महीने उसकी जरूरत नहीं पडती थी। उक्त दृश्य और आज के दृश्य में काफी हद तक बदलाव आ चूका है। जैसे हमारे बचपन में सेहरी के समय जगने का खास एहतमाम किया जाता था। मुख्तसर सेहरी की जाती थी।

और सेहरी में वही चीज़ें होती थीं जो सिहत के लिए मुनासिब होती थीं। लोग खाने पीने से भी मुनासिब ज्यादा इबादत और ज़िक्र में व्यस्त रहते थे। इफ्तार में जो भी रुखा सुखा होता था उसमें से लोग अपने बच्चों के हाथों अपने आस पड़ोस में भेजा करते थे।

लेकिन इसके इतर आग लोग सेहरी तक जगने का एहतमाम करते हैं जैसे कभी सेहरी में जगने का एहतमाम किया जाता था। तरावीह होने के बाद ही कई तरह की मश्गुलियत चल निकलती हैं जो सेहरी से कुछ मिनट पहले तक जारी रहती हैं, और फिर सेहरी के बाद नमाज़े जुहर तक ठाट से सोने का एहतमाम किया जाता है।