नई दिल्ली : मंत्रियों से लेकर बीजेपी के सभी नेता-कार्यकर्ता अपने ट्विटर हैंडल प्रोफाइल में सभी #मैंभीचौकीदार जोड़ने लगे जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे पाने प्रोफ़ाइल में जोड़ा और यह सोशल मीडिया पर वायरल भी हो रहा है। दिन हो या रात, सर्दी हो या बारिश, अपनी जान जोखिम में डालकर आपकी हाउसिंग सोसाइटी, कॉलोनी, घर, ऑफिस की सुरक्षा का जिम्मा इन चौकीदारों यानी गार्ड्स पर काफी हद तक होता है लेकिन जब इनसे बात किया गया तो पता चला कि उनके लिए पूरा मेहनताना पाना तक एक चुनौती है। लोगों की खरी-खोटी बातों और अन्य हरकतों का भी इन्हें शिकार होना पड़ता है।
यूपी के फिरोजाबाद से दिल्ली आकर एक ऑफिस की चौकीदारी कर रहे महेंद्र पाल ने कहा कि बस किसी तरह जिंदगी कट रही है। न तो सम्मान है इसमें और न ही कोई भविष्य। आठ घंटे की लगातार ड्यूटी के बाद 12-14 हजार मिलते हैं। जो आता है गाली-गलौज कर जाता है। कुछ कहो तो बदतमीजी करते हैं। एक बार यहां कुछ लोगों ने दूसरे चौकीदार के साथ मारपीट कर दी थी, इसलिए डर भी लगा रहता है।
उन्होंने कहा कि ऐसा काम है कि आप सम्मान तो सोच ही नहीं सकते। कोई भी सुना कर चला जाता है। लोगों को ऐसा लगता है कि हम इंसान ही नहीं हैं। कुछ ऐसा ही कहना है नीतीश का, जो चार साल से कोटला के पास एक स्कूल की चौकीदारी में हैं। उन्होंने कहा कि सैलरी तो मिल जाती है, लेकिन सही से कोई हमसे बात नहीं करता। ठेकेदार के मन पर हमारी नौकरी है। वह कभी भी हमें नौकरी से बाहर कर दे, हम कुछ नहीं कर सकते। आज काम है, कल नहीं। हमारा भविष्य कुछ नहीं है।
चौकीदार का दर्द यही नहीं है। इसके पीछे का दर्द यह है कि उनसे ड्यूटी के बदले पैसे लिए जाते हैं। यानी- जितनी सैलरी पर बात होती है, उससे कम दी जाती है। ज्यादातर का पीएफ नहीं कटता। एक दिन भी छुट्टी नहीं होती। छुट्टी पर जाने का मतलब है सैलरी कटना। तबियत खराब हो या तूफान आ जाए, हर हाल में आठ घंटे की ड्यूटी करनी होती है। लाचारी और बेबसी का दूसरा नाम है चौकीदारी।
जब हम दरियागंज में एक पब्लिशर्स के दफ्तर के बाहर पहुंचे तो वहां डयूटी दे रहे थे मेरठ के सुनील कुमार। सुनील कुर्सी पर बैठे थे और दुकान का शटर गिरा था। उन्होंने कहा कि बहुत ही नीरस काम है। बस घंटे गिनते जाइए। हमेशा हाथ जोड़ कर ही बात करनी होती है। पता नहीं कौन साहब निकल जाए और हमारी नौकरी चली जाए। रात में यहां पर ड्यूटी करना एक तरह से जान जोखिम में डालना है, क्योंकि हमारे पास अपनी सुरक्षा के लिए कुछ नहीं होता।
एक घर के बाहर सुरक्षा में लगे झारखंड के सुगन पासवान से बात हो रही थी कि तभी उनका मालिक निकला। डांटते हुए कहा- यहां क्या कर रहे हो, गेट पर जाओ। सुगन ने कहा कि केवल साढ़े दस हजार मिलते हैं। उसी में पूरे परिवार का खर्च चलता है। डांट हो या फटकार, नौकरी तो करनी ही है। सच कहूं तो मजबूरी का नाम है चौकीदारी। जब मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज के गेट पर रिपोर्टर पहुंचे तो वहां दो गार्ड मिले, जो पहले आर्मी में काम कर चुके हैं। प्रकाश और विजय ने कहा कि हम यहां हैं तो अंदर डॉक्टर और स्टाफ खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं, लेकिन गेट पर खड़े रहना और जी हजूरी करते रहना सब के बस की बात नहीं। चौकीदारी तो हालात से समझौता है और कुछ नहीं।
जो असल जिंदगी में चौकीदार हैं, उनके हालात कैसे हैं यह पता लगाने के लिए एनबीटी ने चौकीदारों से बातचीत की उसी का यह अंश