अफ़ग़ानिस्तान की जमीला जो दुनिया की औरतों को लड़ने का हौसला देती हैं.

काबुल। अफगानिस्तान में औरतों के हक़ के लिए लड़ रहीं जमीला अफ़ग़ानी से दुनिया की औरतें बहुत कुछ सीख सकती हैं. युद्ध और कट्टरपंथ में जकड़े एक मुल्क़ को जमीला यह बताने की कोशिश कर रही हैं कि औरतें भी मर्दों की तरह इंसान हैं. उन्हें भी मर्दों की तरह बराबरी का हक़ है.

बड़ी बात यह है कि जमीला अपनी इस मुहिम में मर्दों को साथ लेकर चल रही हैं. अभी तक वह 6 हजार इमामों को महिला अधिकार की ट्रेनिंग दे चुकी हैं.
जमीला कहती हैं कि उनको ज़िंदगी में बहुत कुछ सहना पड़ा है. बचपन से ही भेदभाव का शिकार हुईं लेकिन लड़ाई भी तभी से लड़ रही हैं. आधुनिक और कुरआन की तालीम हासिल करने के बाद जमीला को एहसास हुआ कि तालीम से ही अफगानिस्तान में महिलाओं को सशक्त बनाया जा सकता है.
साल 1990 का दौर, जब यहां तालिबान की सत्ता थी तो महिलाओं को मस्जिद में प्रवेश की इज़ाज़त नहीं थी, तब एक मस्जिद के इमाम ने उनके लिए मस्जिद के दरवाजे खोले. आज जमीला इस्लाम में महिलाओं के अधिकारों पर उपदेश देती हैं कि एक महिला पुरुष के बराबर है और काम और अध्ययन करने का अधिकार रखती हैं.
जमीला अफगानी के अनुसार आज काबुल की 20 फीसदी मस्जिदों में महिलाओं के लिए विशेष नमाज की व्यवस्था की जाती है, जबकि 15 साल पहले ऐसा कुछ नहीं था. तालीम के महत्व के बारे में इमामों द्वारा दिए जाने वाले उपदेशों ने कई महिलाओं को उन्हें अध्ययन करने देने के लिए परिवारों को मनाने के लिए मदद की है.
सोवियत आक्रमण से पहले साल 1974 में अफगानी काबुल में पैदा हुई थी. जब वह केवल कुछ ही महीने की थी कि पोलियो के चलते पैर से विकलांग हो गई थीं लेकिन अफगानी की यह विकलांगता ही उसके लिए वरदान बन गई. उनका परिवार रूढ़िवादी था और लड़कियों के लिए शिक्षा के लिए इजाज़त नहीं थी. यहाँ तक कि उसकी बहनों का बाहर खेलना भी परिवार के लोगों का पसंद नहीं था लेकिन अफगानी इस माहौल से ऊब जाती और रोना शुरू कर देतीं. आखिरकार उनकी मेहनत रंग लाई और डॉक्टर के कहने पर उनके पिता ने उन्हें स्कूल भेज दिया था.