हजरत जाबिर बिन अब्दुल्लाह (रजि0) से रिवायत है कि नबी करीम (स०अ०व०) ने समुन्दरी किनारे की जानिब एक लश्कर भेजा जिसमें सौ मुसलमान शामिल थे। आप ने हजरत अबू उबैदा बिन जराह (रजि0) को उनका अमीर बनाया। मैं भी उनमें शामिल था। हम निकल खड़े हुए। हम रास्ते में थे कि खाने पीने का सामान खत्म होने के करीब हो गया।
तब अबू उबैदा बिन जराह (रजि0) ने फौज को हुक्म दिया कि हर आदमी वह सब कुछ एक जगह ले आए जो उसके पास है। इसलिए सबने उस पर अमल किया जिसके नतीजे में खजूरों के दो बोरे भर गए। हजरत अबू उबैदा उन बोरो में से हर दिन हर फौजी को एक खजूर खाने के लिए देते थे यहां तक कि वह दोनों बोरे भी खाली हो गए।
हजरत वहब बिन केसान (रजि0) जो हजरत जाबिर (रजि0) से इस रिवायत को बयान करते हैं, कहते हैं मैने कहा कि एक खजूर क्या काम देती होगी। इस पर हजरत जाबिर (रजि0) ने कहा हमें तो इसकी कद्र उस वक्त मालूम हुई जब वह एक मिलना भी बंद हो गई। हजरत जाबिर (रजि0) फरमाते हैं कि उसके बाद भी हम चलते रहे यहां तक कि समुन्दर के किनारे (जो मंजिल थी) पर पहुंच गए तो देखा कि टीले की तरह एक मछली किनारे पर पड़ी है।
उसको हमने दिन भर खूब पेट भरकर खाया। हजरत अबू उबैदा बिन जराह (रजि0) ने उस मछली के कांटो को खड़ा किया। उनमें नीचे से फासला रखा और ऊपर से मिला दिया। फिर ऊंटनी पर कुजावे डालकर उन दोनों कांटो के बीच से गुजारा गया तो वह गुजर गई और कांटो के सिरो के साथ न टकराई। (बुखारी)
सहाबा (रजि0) ने जिस तंग हाली में जेहाद किया उसका एक नमूना यह जिहादी मुहिम है कि एक खजूर खाकर दिन-रात गुजारा करना और उसके साथ ही जेहादी मुहिम को सर करना, आगे बढ़ते चले जाना और पीछे न हटना और कोई वावेला न करना और किसी किस्म की बेसब्री और अफरातफरी का शिकार न होना। ऐसी हालत में आपस में हमदर्दी और गम गुसारी का यह आलम है कि सबके पास जो कुछ है वह इकट्ठा कर लिया जाता है ताकि ऐसा न हो कि कोई तो खाए और कोई भूका रहे।
आज अगर यह हमदर्दी और गमगुसारी हमारे मुआशरा (समाज) में आ जाएं तो भूक का मसला आनन- फानन हल हो जाए। समाज के खाते-पीते लोग हमदर्दी गमगुसारी और समाज के गम में डूब जाने और आंसू बहाने की बातें तो बहुत करते हैं लेकिन खजानों पर सांप बन कर बैठे हुए हैं। अगर सब लोग अपनी दौलत को एक जगह जमा करके उसे मुल्क व मिल्लत के हवाले कर दें तो बाहरी कर्जे भी एक दम खत्म हो जाएं और अन्दरूनी मईशत भी मजबूत व मुस्तहकम हो जाए और कोई भूका नंगा न रहे।
बेशक इसके लिए अपनी सारी दौलत से दस्तबरदार न हो बल्कि कर्जों की अदायगी और आवाम के भूक और तंगी को दूर करने के लिए जिस कदर दौलत की जरूरत है उतनी मिकदार से दस्तबरदार हो जाएं तब ही सूरतेहाल तब्दील हो सकती है और बदअम्नी की जगह अमन, तंगी की जगह आसानी और परेशानी की जगह इत्मीनान और सुकून की जिंदगी मुयस्सर आ सकती है।
ऐसा कर लें तो अल्लाह तआला को गैबी मदद नाजिल हो सकती है और हमें गैब से रिज्क मिल सकता है। आज के दौर में कुवत का राज ही मुस्तहकम मईशत है। यह हमें कौमों की बिरादरी में मोअज्जि मकाम दिलवाती और अमेरीका या चीन के बजाए हमारे नाम हो जाती।
अल्लाह तआला का फरमान है कि अगर यह लोग तौरात, इंजील और कुरआन पर यकीन कायम करते जो उनकी तरफ उनके रब की तरफ से नाजिल किया गया है (यानी कुरआन ए पाक) तो उन पर ऊपर से भी रिज्क बरसता और नीचे से भी रिज्क बरसता। (मायदा)
गोया अहले किताब तौरात के दौर में तौरात और इंजील के दौर में इंजील और कुरआन ए पाक के दौर में कुरआन ए पाक को कायम कर लेते तो उनपर अल्लाह तआला की तरफ से रिज्क के तमाम दरवाजे खुल जाते। इस नुस्खे पर मुल्क अमल करे तो कौन सी सुपर पावर हमारे सामने ठहरती। हम महज अपनी नादानी में इन ताकतों की ठोकरों में पड़े है।
काश! हम तकवा की रविश अख्तियार /इख्तेयार करते और जमीन व आसमान की बरकतों और नेमतों का मुशाहिदा करते। कुरआन व सुन्नत पर अमल करने से आखिरत तो बनती है दुनिया भी संवर जाती है और मआशी हालत बेहतर हो जाती है। रिज्क में फराखी, जेहनों को सुकून और दिलों को इत्मीनान नसीब हो जाता है। लोग अल्लाह पाक और उसके दीन की तरफ रूजूअ करें तो अल्लाह तआला उनकी तरफ अपनी रहमत के साथ रूजूअ करता है।
ऐसा पहले भी हुआ है आज भी हो सकता है और आइंदा भी हकीकी आसूदा हाली हासिल करने का यही रास्ता है।
हजरत अबू सईद खुदरी (रजि0) से रिवायत है कि नबी करीम (स०अ०व० ) ने फरमाया- रास्तों में बैठने से बचो। सहाबा (रजि0) ने अर्ज किया- या रसूल (स०अ०व०)! रास्तों में बैठना हमारी मजबूरी है, हमारा रिवाज है। हम रास्तों में (यानी रास्तों के किनारों पर) मिल बैठते हैं, मशविरे होते हैं लिहाजा आप इसकी इजाजत मरहमत फरमा दें, तो अच्छा होगा। आप (स०अ०व०) ने फरमाया- अगर तुम्हें रास्तों के किनारों पर बैठना ही है तो फिर रास्ते का हक अदा करो।
सहाबा (रजि0) ने अर्ज किया या रसूल (स०अ०व०)! रास्ते का हक क्या है? आप (स०अ०व०) ने फरमाया- रास्ते का पहला हक नजरे नीची रखना है, दूसरा हक तकलीफदेह चीज को रास्ते से हटाना है, तीसरा हक सलाम का जवाब देना है और चैथा हक भलाई की तलकीन करना और बुराई से रोकना है। (बुखारी)
शारेअ आम / शरेआम किनारे पर बैठने की इजाजत है बशर्ते कि आने जाने वालों को उससे तकलीफ न हो। सड़क के जरिए आमद व रफ्त बिला रोक-टोक होना चाहिए। इसलिए रास्ते को कम करना, तजावुजात करना, सड़क के किनारे रेढि़यां लगाना, दुकानें और मकान बनाना उसी सूरत में जायज है जब उससे रास्ता गुजरने वालों के लिए तंगी और तकलीफ पैदा न होती हो।
इसी तरह समाज में आमद व रफ्त, नशिस्त, बसों, टेªनों और जहाजों में सफर के दौरान और जलसों जुलूसों और इज्तिमाओं के दौरान नजरें नीची रखना इस्लामी तहजीब का इम्तियाज है। असम्बलियों, तिजारती सेंटरों और हालों में बेपर्दगी नहीं होनी चाहिए। कालेजों और यूनिवर्सिटियों में भी इसका एहतेमाम करना चाहिए। दफ्तरों, रेलवे स्टेशनों और हवाई अड्डो के लिए भी इसके मुताबिक निजाम बनाना चाहिए।
पच्छिमी तहजीब ने हमारे समाज को इस मकाम पर ला खड़ा किया है कि आज हमारा समाज भी पच्छिम की तरह मखलूत हो गया और इख्तिलाते मर्द व जन की वजह से मुसलमानों की बेराहरवी के नतीजे में जिंदगी से सुकून खत्म हो गया है और बंदे अल्लाह तआला की बंदगी से गाफिल हो गए हैं।
सलाम फैलाने की जगह हमने सल्यूट कर लेने को सलाम का बदल बना दिया। नेकी का हुक्म करना और बुराई को रोकना एक फरीजा है जो हुकूमत अवाम और उलेमा सबकी जिम्मेदारी है लेकिन आज सिर्फ इसे मिम्बर के साथ खासकर दिया गया है। नबी करीम (स०अ०व०) के इस इरशाद को हम अपना लें जैसे कि इसको अपना लेने का हक है तो दुनिया जन्नत बन सकती है।
हजरब अबू हुरैरा (रजि0) से रिवायत है कि एक आदमी ने रसूल (स०अ०व०) से उद्दार की अदाएगी का मतालबा किया और सख्त रवैया अख्तियार किया। सहाबा ने इरादा किया कि उसे उसके नाजेबा रवैये की सजा दें। आप उनके इस इरादे को भांप गए तो आप ने फरमाया- उसे छोड़ दो। हकदार को मतालबा करने और बात करने का हक है। जिस मालियत का उसने ऊंट दिया था उतनी ही मालियत का ऊंट तलाश करके उसे दे दो।
सहाबा (रजि0) ने इस तरह का ऊंट तलाश किया लेकिन न मिला। इसलिए उन्होंने अर्ज किया या रसूल (स०अ०व०)! इस मालियत का ऊंट तो नहीं मिल रहा इससे ज्यादा मालियत का ऊंट मिल रहा है। आप ने फरमाया- वही खरीद लो और उसे अदायगी करो। तुम में से बेहतर वह है जो अदाएगी में बेहतर हो। (बुखारी)
यह शख्स यहूदी था। नबी करीम (स०अ०व०) ने उसकी सख्त रविश और नाजेबा अंदाज को बर्दाश्त किया। उसे उसका हक न सिर्फ अदा किया बल्कि उससे ज्यादा दिया।
आप नबी, रसूल और हुक्मरां थे। आप एक आम आदमी की जिंदगी बसर करते थे, खरीद फरोख्त करते और उधार लेन देन करते। कोई भी शख्स ऐसा न था कि वह आप से मिल न सकता था कोई सिक्योरिटी और कोई दरबान आप के दरवाजे पर न था। मस्जिद में रास्ते में चलते हुए आप से मुलाकात हो सकती थी।
क्या आज की मुहज्जब हुकूमतें इसकी मिसाल पेश कर सकती है? क्या रवादारी, खुश अखलाकी का इससे बेहतर नमूना कहीं तलाश किया जा सकता है और आज के समाज में इस नमूने की कोई हुक्ममरां शख्सियत सामने लाई जा सकती है। कोई मजहबी पेशवा भी ऐसा है कि दूसरे मजहब या मसलक का शख्स उसके साथ सख्ती से पेश आए तो पैरोकार उसे बर्दाश्त करें।
नबी करीम (स०अ०व०) के पैरोकार तो सहाबा थे। क्या उन्होंने आप की सोहबत में किसी के साथ ज्यादती की? तब यह कैसे मुमकिन है कि सहाबा (रजि0) से मोहब्बत करने वाला, अहले बैत का पैरोकार, उनकी मोहब्बत में लोगों की जान व माल और इज्जत व आबरू की हिफाजत के बजाए उन्हें पामाल करे।
मुसलमानों में यह बात कहां से आ गई है? यह कुरआन व हदीस की तालीमात का नतीजा नहीं है बल्कि लादीन समाजों से उन में आ गई है लिहाजा मुसलमानों को अपने दीन की तरफ रूजूअ करना चाहिए। नबी करीम (स०अ०व०) और सहाबा की सीरत को अपनाना चाहिए और दुनिया के लिए उस नमूने को ताजा करना चाहिए जो नमूना नबी करीम (स०अ०व०) और सहाबा ने पेश किया है। आज दुनिया को नबी करीम (स०अ०व०) और सहाबा की सीरत की जरूरत है, यही अम्न व अमान और शराफत के दौर की जामिन है।
(मौलाना अब्दुल मालिक)
————बशुक्रिया: जदीद मरकज़