भड़का रहे हैं आग लैब-ए-नग़मा गर से हम
ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम?
कुछ और बढ़ गए जो अँधेरे तो क्या हुआ,
मायूस तो नहीं हैं तुलू एक सहर से हम
ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है,
क्यूँ देखें ज़िन्दगी को किसी की नज़र से हम
माना कि इस ज़मीं को ना गुलज़ार कर सके
कुछ ख़ार कम तो कर गए, गुज़रे जिधर से हम
साहिर लुधियानवी